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युगांडा से सूडान संकट तक: बदलती भारतीय विदेश नीति

– आर.के. सिन्हा

सूडान में सेना और अर्धसैनिक बल के बीच चल रहे भीषण गृहयुद्ध के चलते वहां के हालात बद से बदतर हैं। वहां फंसे हजारों भारतीयों को सुरक्षित स्वदेश लाने के लिए सारा देश चिंतित है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सूडान में फंसे भारतीयों को जल्द से जल्द सुरक्षित निकासी के लिए विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को निर्देश दिए हैं । मतलब यह कि अब सरकार एक्शन मोड में आ गई है।

यह बदले हुए मजबूत भारत का नया चेहरा है। अब जहां पर भी भारतवंशी या भारतीय संकट में होते हैं, तो भारत सरकार पहले की तरह हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठती। आपको याद ही होगा कि रूस-यूक्रेन जंग के कारण हजारों भारतीय मेडिकल छात्र-छात्रायें यूक्रेन में फंस गए थे। उन्हें भारत सरकार तत्काल सुरक्षित स्वेदश लेकर आई। भारत के हजारों विद्यार्थी यूक्रेन में थे। वे वहां पर मेडिकल, डेंटल, नर्सिंग और दूसरे पेशेवर कोर्स कर रहे थे। ये रूस-यूक्रेन जंग को देखते हुए वहां से निकल कर स्वदेश आना चाहते थे। पहले तो किसी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इतनी अधिक संख्या में यूक्रेन की राजधानी कीव और दूसरे शहरों में पढ़ रहे भारतीय नौजवानों को स्वदेश कैसा लाया जाएगा। पर इच्छा शक्ति हो तो सब कुछ संभव है। यह साबित करके दिखाया गया।


अब अफगानिस्तान में गृहयुद्ध के दिनों की ही बात को जरा याद कर लें। भारतीय वायुसेना और एयर इंडिया के विमान लगातार अफगानिस्तान से भारतीयों को लेकर स्वदेश आते रहे। काबुल में जिस तरह के हालात बन गए थे उसमें सारे भारतीयों को लेकर तालिबानी आतंकियों के बीच से लेकर आना कोई छोटी बात नहीं थी I इनको ताजिकिस्तान के रास्ते दिल्ली या देश के अन्य भागों में लाया गया। कुछ विमान कतर के रास्ते से भी आए। उस वक्त भारत के अफगानिस्तान में दर्जनों विकास के बड़े प्रोजेक्ट चल रहे थे, इनमें अफगानिस्तान को नये तरह से खड़ा करने के लिए भारत हर तरह की मदद भी कर रहा था। भारत के हजारों करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट फंस गए थे। इन प्रोजेक्ट्स से हजारों भारतीय जुड़े हुए थे। इन्हीं भारतीयों को सुरक्षित निकाला जा रहा था।

भारत की तरफ से अफगानिस्तान बांध से लेकर स्कूल, बिजली घर से लेकर सड़कें, काबुल की संसद भवन से लेकर पावर इंफ्रा प्रोजेक्ट्स और हेल्थ सेक्टर आदि समेत न जाने कितनी परियोजनाओं को तैयार किया जा रहा था। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अफगानिस्तान से देश के नागरिकों की सुरक्षित स्वदेश वापसी सुनिश्चित करने और वहां से भारत आने के इच्छुक सिखों और हिंदुओं को भी भारत में शरण देने का अधिकारियों को निर्देश दिया। अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के नियंत्रण के बाद ही आने वाली परिस्थितियों को भांपते हुए भारत सरकार सक्रिय हो गई थी। जाहिर है, ये सब कदम उठाने के बाद भारत सरकार का इकबाल न केवल देश के अंदर बल्कि विदेशों में भी बुलंद हुआ।

अब आगे बढ़ने से पहले 1972 के दौर में चलते हैं। अब बुजुर्ग हो रहे भारतीयों को याद ही होगा कि सन 1972 में अफ्रीकी देश युगांडा के तानाशाह ईदी अमीन ने अपने देश में रहने वाले हजारों भारतीयों को रातों रात आदेश दे दिया था कि वे सभी 90 दिनों में देश को छोड़ दें। हालांकि भारतीय ही युगांडा की अर्थव्यवस्था की जान थे। पर सनकी अमीन कभी भी और कुछ भी कर देता था। उसके फैसले से वहां दशकों से रहने वाले भारतवंशियों के सामने बड़ा भारी संकट खड़ा हो गया था । तब ब्रिटेन ने उन भारतीयों को अपने यहां शरण दी थी। तब हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने उन भारतवंशियों के लिए कुछ नहीं किया था। ऐसा उन्होंने क्यों किया यह लोगों को अचम्भे में डालने वाला था I क्योंकि, वे कोई कमजोर प्रधानमंत्री तो थी नहींI उस समय बांग्लादेश की आजादी और पाकिस्तान के 93000 सैनिकों के आत्मसमर्पण के बाद उनके शोहरत का डंका बज रहा था I लेकिन, उन्होंने कोई ठोस कदम नहीं उठाए I पता नहीं क्यों?

भारतीय युगांडा में लुटते-पिटते रहे। हमने घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा कुछ नहीं किया था। उन भारतीयों को हमसे अभी तक गिला है। और होना भी चाहिए । क्या हम सात समंदर पार जाकर बस गए बहादुर उद्योगपति भारतीयों से सिर्फ यही उम्मीद रखें कि वे भारत में आकर निवेश करें?

आज का भारत चुनौती का सामना करता है। भारत की बदली हुई विदेश नीति के चलते ही हमने टोगो में जेल में बंद पांच भारतीयों को सुरक्षित रिहा करवाया था। ये सब के सब केरल से थे। टोगो पश्चिमी अफ्रीका का एक छोटा सा देश है। भारत सरकार 2015 में यमन में फंसे हजारों भारतीयों को सुरक्षित स्वदेश लाई थी। वह अपने आप में एक मिसाल हैI भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस सुमित्रा से इन्हें पहले जिबूती ले जाया गया था। जिबूती से इन लोगों को चार विमानों से भारत वापस लाया गया। उस समय यमन के हूती विद्रोहियों के खिलाफ सऊदी अरब के नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने सैन्य कार्रवाई शुरू की थी, जिसमें हजारों भारतीय फंस गए थे।

अब भारत सरकार के सामने सूडान से भारत के नागरिकों को लाने की बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री मोदी खुद सूडान से भारतीयों को वापस लाने के काम पर लगातार नजर रख रहे हैं। सूडान में चल रहे गृह युद्ध में कुछ भारतीयों के हताहत होने की भी खबरें हैं। सूडान में 3000 से अधिक भारतीय इस समय फंसे हुए हैं। राजधानी खार्तूम में संघर्ष की वजह से इनकी निकासी में मुश्किल आ रही है। बहरहाल, यह दुखद है कि भारत के मित्र देश सूडान में इतना गंभीर आतंरिक संकट चल रहा है। भारतीय विशेषज्ञ सूडान के वानिकी क्षेत्र के विकास में सन 1910 से सक्रिय हैं।

महात्मा गांधी ने 1935 में इंग्लैंड जाते समय पोर्ट सूडान का दौरा किया था और सूडान में बसे भारतवंशियों से मुलाकात की थी । पंडित जवाहरलाल नेहरू भी 1938 में सूडान गए थे। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने 1953 में पहले सूडानी संसदीय चुनावों का निरीक्षण किया। 1957 में स्थापित सूडानी चुनाव आयोग ने भारतीय चुनाव कानूनों और प्रथाओं से प्रेरणा प्राप्त की। भारत ने फरवरी 1954 में स्थापित सूडानीकरण समिति को वित्तीय सहायता प्रदान की, जिसे स्वतंत्रता के बाद सूडानी सरकार में ब्रिटिश कर्मचारियों की जगह लेने का काम सौंपा गया था।

भारत ने मार्च 1955 में खार्तूम में अपना दूतावास खोला। सूडान ने उसके चंदेक सालों के बाद राजधानी के चाणक्यपुरी में अपना दूतावास स्थापित किया। चाणक्यपुरी क्षेत्र में अमेरिका, ब्रिटेन, चीन के साथ सूडान का भी दूतावास सबसे पहले बन गया था। इससे साफ है कि भारत ने सूडान के साथ अपने संबंधों को हमेशा अहमियत दी है। अब भारत यह भी चाहेगा कि वहां पर हालात शांतिपूर्ण हो जाएं और वहां से सारे भारतीयों को सुरक्षित निकाल लिया जाए।

(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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