ब्‍लॉगर

बांध सुरक्षा की बड़ी पहल

– प्रमोद भार्गव

भारत सरकार ने देशभर के बांधों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से 10,211 करोड़ रुपए का बजट आबंटित किया है। ‘बांध पुनर्वास और सुधार कार्यक्रम’ (डीआरआईपी) के अंतर्गत यह दिया गया है। दो चरणों में बांधों की मरम्मत होगी। बांध संख्या के लिहाज से भारत तीसरे स्थान पर है। देश में कुल बांध 5,745 हैं। इस मामले में चीन पहले और अमेरिका दूसरे स्थान पर है। देश में 973 बांधों की उम्र 50 से 100 वर्ष के बीच है, जो 18 प्रतिशत बैठती है। 973 यानी 56 फीसदी ऐसे बांध हैं, जिनकी आयु 25 से 50 वर्ष हैं। शेष 26 प्रतिशत बांध 25 वर्ष से कम आयु के हैं, जिन्हें मरम्मत की अतिरिक्त जरूरत नहीं है। दरअसल पुराने और ज्यादा जल दबाव वाले बांधों की मरम्मत इसलिए जरूरी है क्योंकि अधिक मात्रा में बरसात का पानी भर लेने पर इनके टूटने का खतरा बना रहता है। इन बांधों की मरम्मत अप्रैल 2021 से लेकर 2031 तक होनी है।

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा ‘बांध सुरक्षा विधेयक-2018’ पारित कर दिए जाने के बाद से ही यह उम्मीद थी कि जिन बांधों की उम्र 26 से 100 वर्ष है कालांतर में उनकी मरम्मत की जाएगी। कई बांध इतनी जर्जर अवस्था में आ गए हैं कि बांध की दीवारों, मोरियों और द्वारों से निरंतर पानी रिसता रहता है। इस नजरिए से इस विधेयक का उद्देश्य बांधों की सुरक्षा के लिए मजबूत और संस्थागत कार्ययोजना उपलब्ध कराना है। भारत में बांधों की सुरक्षा के लिए कानून की कमी के कारण यह चिंता व विचार का मुद्दा था। खासतौर से बड़े बांधों का निर्माण, देश में बड़ी बहस और विवाद के मुद्दे बने हैं। फरक्का, नर्मदा सागर और टिहरी बांध के विस्थापितों का आज भी सेवा-शर्तों के अनुसार उचित विस्थापन संभव नहीं हुआ है। बड़े बांधों को बाढ़, भू-जल भराव क्षेत्रों को हानि और नदियों की अविरलता के लिए भी दोषी माना गया है।

11 अगस्त 1979 को गुजरात की मच्छू नदी पर बने बांध के टूट जाने से 1800 लोगों की मौत हो गई थी और सैंकड़ों गांव कई दिनों तक पानी में डूबे रहे थे। इस भयानक त्रासदी के चालीस साल बाद बांधों की सुरक्षा संबंधी कानून वजूद में आया और अब धनराशि भी उपलब्ध करा दी गई है। देश के महानगरों में पेयजल और ऊर्जा संबंधी जरूरतों की आपूर्ति तथा सिंचाई जल की उपलब्धता बड़ी मात्रा में इन्हीं बांधों से मुमकिन होती है। इन बांधों में मछली पालन व पर्यटन से भी लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ाने के लिए बांधों को जिम्मेवार ठहराया गया है। बावजूद बांधों की सुरक्षा और संरक्षण जरूरी है, क्योंकि इन्हें हमने पर्यावरण विनाश और विस्थापन जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटते हुए खड़ा किया है।

भारत के हर क्षेत्र में बड़ी संख्या में नदियों और पहाड़ों के होने से अनेक बांधों का निर्माण संभव हुआ है। यहां 5,745 से भी ज्यादा बड़े बांध हैं। 450 बड़े बांध निर्माणाधीन भी हैं। इसके अलावा हजारों मध्यम और लघु बांध हैं। भारतीय भौगोलिक परिस्थिति व अनुकूल जलवायु का ही कमाल है, जो इतने छोटे-बड़े बांधों का निर्माण संभव हुआ। भारत में बांधों का निर्माण आजादी के पूर्व से ही आरंभ हो गया था, इसलिए 164 बांध सौ साल से भी ज्यादा पुराने हैं। 75 प्रतिशत बांध 25 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं।

बांधों का समुचित रखरखाव नहीं होने के कारण 36 बांध पिछले कुछ दशकों के भीतर टूटे भी हैं। इनके अचानक टूटने से न केवल पर्यावरणीय क्षति हुई, बल्कि हजारों लोगों की मौतें भी हुईं। फसल और ग्राम भी ध्वस्त हुए। टूटे बांधों में राजस्थान में 11, मध्य-प्रदेश में 10, गुजरात 5, महाराष्ट्र 4, आंध्र-प्रदेश 2 और उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडू व ओडिशा के एक-एक बांध शमिल हैं। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में गंगा नदी पर बना फरक्का बांध भी बरसात में बाढ़ की समस्या बन तबाही मचाता है। इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे तोड़ने की बात कही थी।

कई राज्य इस कानून के विरोध में भी रहे थे, लेकिन नरेंद्र मोदी की दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते कानून आखिरकार अस्तित्व में आया। अब प्रत्येक राज्य में स्थित बांधों की सुरक्षा के लिए एसडीएसए स्थापित किया जाएगा। एक राज्य के स्वामित्व वाले बांध, जो किसी अन्य राज्य में या केंद्रीय लोक सेवा उपक्रमों (सीपीएसयू) के अंतर्गत आने वाले बांध या वे बांध जो दो या दो से अधिक राज्यों में फैले हैं, सभी एनडीएसए के अधिकार क्षेत्र में होंगे। इसी कारण तमिलनाडू जैसे राज्यों की ओर से विधेयक का विरोध किया गया था। क्योंकि यह राज्य केरल में कई बांधों का प्रबंधन करता है। मुल्ला पेरियार बांध इनमें से एक है। विरोधी राज्यों को शंका थी कि यह विधेयक उनकी शक्ति कमजोर करेगा। 2014 में तमिलनाडू एवं केरल सर्वोच्च न्यायालय भी गए थे। तमिलनाडू अपने यहां बांधों की जल भंडारण क्षमता में वृद्धि करना चाहता था, जबकि केरल ने सुरक्षा का हवाला देते हुए विरोध किया था। अब जो बांध दो या दो से अधिक राज्यों की आर्थिक मदद से निर्माणाधीन होने के कारण विवादग्रस्त हैं, उनके सामाधान का रास्ता भी खुल गया है। भविष्य में यदि नदी जोड़ो अभियान जोर पकड़ता है तो बांध और नहरों के निर्माण से लेकर दो या इससे अधिक राज्यों में जल-बंटवारे को लेकर जो विवाद उत्पन्न होते हैं, उन्हें निपटाने में सुगमता होगी।

दरअसल अंग्रेजी शासनकाल में जो बांध बने थे, वे आजादी के बाद राज्यों के अस्तित्व में आने के साथ ही विवादित हो गए। ये विवाद आजतक नहीं निपटे हैं। 1892 व 1924 में मैसूर राज्य व मद्रास प्रेसिडेंसी (वर्तमान तमिलनाडू) के बीच जल बंटवारे को लेकर समझौते हुए थे। आजादी के बाद मैसूर का कर्नाटक में विलय हो गया। इसके बाद से कर्नाटक को लगने लगा कि मद्रास प्रेसिडेंसी पर अंग्रेजों का प्रभाव अधिक था, इसलिए समझौता मद्रास के पक्ष में हुआ है। लिहाजा वह इस समझौते को नहीं मानता है। जबकि तमिलनाडू का तर्क है कि पूर्व समझौते के मुताबिक उसने ऐसी कृषि योग्य भूमि विकसित कर ली है, जिसकी खेती कावेरी से मिलने वाले सिंचाई हेतु जल के बिना संभव नहीं है। इस बावत 1986 में तमिलनाडू ने विवाद के निपटारे के लिए केंद्र सरकार से एक ट्रिब्यूनल बनाने की मांग की। नदी विवाद जल अधिनियम के तहत 1990 में ट्रिब्यूनल बनाया गया। इस ट्रिब्यूनल ने कर्नाटक को आदेश दिया कि तमिलनाडू को 419 अरब क्यूसेक फीट पानी, केरल को 30 अरब तथा पुड्डुचेरी को 2 अरब क्यूसेक पानी दिया जाए। किंतु कर्नाटक ने इस आदेश को मानने से इनकार करते हुए कहा कि कावेरी पर हमारा पूरा हक है, इसलिए हम पानी नहीं देंगे। लिहाजा बार-बार विवाद गहराता रहता है।

दूसरी तरफ तमिलनाडू व केरल के बीच मुल्ला पेरियार बांध की ऊंचाई को लेकर भी विवाद गहराया हुआ है। तमिलनाडू इस बांध की ऊंचाई 132 फीट से बढ़ाकर 142 फीट करना चाहता है, वहीं केरल इसकी ऊंचाई कम रखना चाहता है। पेरियार नदी पर बना यह बांध 1895 में अंग्रेजों ने मद्रास प्रेसिडेंसी को 999 साल के पट्टे पर दिया था। जाहिर है, अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक बांधों का निर्माण व अन्य विकास कार्य किए। लेकिन स्वतंत्र भारत में उन कार्यों, फैसलों और समझौतों की राज्यों की नई भौगोलिक सीमा के गठन व उस राज्य में रहने वाली जनता की सुविधा व जरूरत के हिसाब से पुनर्व्याख्या करने की जरूरत है। 

इसी तरह पांच नदियों वाले प्रदेश पंजाब में रावी व ब्यास नदी के जल बंटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा जल विवाद सतलुज और यमुना लिंक नहर का भी है। प्रस्तावित योजना के तहत सतलुज और यमुना नदियों को जोड़कर नहर बनाने से पूर्वी व पश्चिमी भारत के बीच अस्तित्व में आने वाले जलमार्ग से परिवहन की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मार्ग से जहाजों के द्वारा सामान का आवागमन शुरू हो जाएगा। मसलन सड़क के समानांतर जलमार्ग का विकल्प खुल जाएगा। हरियाणा ने तो अपने हिस्से का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है, लेकिन पंजाब को इसमें कुछ नुकसान नजर आया तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को ही रद्द कर दिया। लिहाजा अब यह मामला भी अदालत में है। इसी तरह कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा राज्यों के बीच महादयी नदी के जल बंटवारे को लेकर दशकों से विवाद है।

बहरहाल अंतर्राज्यीय जल विवादों का राजनीतिकरण इसी तरह होता रहा तो मौजूदा बांधों का अस्तित्व और निर्माणाधीन बांधों को पूरा करना मुश्किल होगा। लिहाजा बांध सुरक्षा विधेयक आ जाने और धनराशि उपलब्ध करा देने से ऐसे मामले हल होते लग रहे हैं। ये बांध देश की संप्रभुता के साथ खेती-किसानी से जुड़े लोगों को आत्मनिर्भर बनाए रखने के काम भी आ रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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