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भारतीय वैज्ञानिकों ने खोजी रासायनिक इकाई, करोना का इलाज भी हो सकेगा संभव

नई दिल्‍ली (New Dehli) । शोधकर्ताओं (researchers) का कहना है कि कोरोना (Corona) के खिलाफ यह खोज एक बड़ी कामयाबी (success) है, जिसने हमें प्री क्लीनिकल (clinical) अध्ययन (Study) के लिए उत्साहित किया है, लेकिन जब तक ठोस निष्कर्ष (conclusion) नहीं निकलता तब तक अध्ययन पूरा नहीं होता। इसमें करीब चार से पांच माह का वक्त लग सकता है।

करीब तीन साल की मेहनत के बाद कोरोना वायरस को लेकर भारतीय वैज्ञानिकों को एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। वैज्ञानिकों के हाथ वायरस का रासायनिक तोड़ लगा है, जिसके आधार पर जल्द ही कोरोना संक्रमण के खिलाफ दवा बनने की उम्मीद जगी है। अभी तक यह खोज प्रयोगशाला में की गई है, लेकिन अब प्री क्लीनिकल ट्रायल भी शुरू होंगे।


पुणे स्थित आईसीएमआर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) के वैज्ञानिकों ने एक नई रासायनिक इकाई को खोजा है, जो कोरोना के वायरल को रोकने में अहम भूमिका निभाती है। अध्ययन मेडिकल जर्नल एसीएस ओमेगा में प्रकाशित है। इसमें आईसीएमआर और एनआईवी के अलावा मैसूर विश्वविद्यालय के कार्बनिक रसायन विज्ञान विभाग के रासायनिक जीव विज्ञान प्रयोगशाला और उनके शोधकर्ताओं ने सहयोग किया है।

एनआईवी की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रज्ञा यादव ने कहा, यह खोज हमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। हमारे परिणामों ने नई रासायनिक इकाई (एनसीई) प्रदान की है, जिसके आधार पर भविष्य में कोरोना के विभिन्न वैरिएंट से लड़ने के लिए दवा विकसित करने में मदद मिल सकती है। इसके लिए जल्द ही प्री क्लिनिकल अध्ययन शुरू होंगे।

ठोस नतीजे का इंतजार
शोधकर्ताओं का कहना है कि कोरोना के खिलाफ यह खोज एक बड़ी कामयाबी है, जिसने हमें प्री क्लीनिकल अध्ययन के लिए उत्साहित किया है, लेकिन जब तक ठोस निष्कर्ष नहीं निकलता तब तक अध्ययन पूरा नहीं होता। इसमें करीब चार से पांच माह का वक्त लग सकता है। प्री क्लीनिकल ट्रायल के बाद ही दवा बनाने और मानव परीक्षण शुरू होंगे।

पहले बनाया मॉडल, फिर किया अध्ययन
शोधकर्ताओं ने बताया कि कोरोना वायरस एक गंभीर तीव्र श्वसन बीमारी है जो आरएनए पोलीमरेज (आरडीआरपी) पर निर्भर करती है। यह आरएनए संश्लेषण में शामिल एक प्रमुख एंजाइम है। इसी को देखते हुए अध्ययन में एक ऐसा मॉडल बनाया गया, जिसे हाइब्रिड थायोरासिल और कौमरिन कंजुगेट्स (एचटीसीए) का नाम दिया। इस रासायनिक मॉडल का इस्तेमाल सबसे पहले परखनली में मौजूद जीवित कोरोना वायरस पर किया गया। इसमें पाया कि मॉडल वायरस के खिलाफ अच्छे से कार्य कर रहा है। इसके बाद संक्रमित चूहों पर इस्तेमाल से पता चला कि इसमें कोरोना वायरस के खिलाफ कार्य करने के गुण मौजूद हैं।

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