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किसान आंदोलनः ‘गंगाजल’ जैसी पवित्र सोच पर सवाल क्यों ?

– रामानुज

तीन कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनरत किसान संगठनों की जहां इन्हें लेकर अपनी आशंकाएं व तर्क हैं, केंद्र सरकार इन कानूनों को लेकर अपना पक्ष रखने के साथ किसानों को हर बिन्दु को विस्तार से समझाकर संतुष्ट करने को तैयार है। सरकार इन कानूनों को किसानों के लिये बहुत फायदेमंद और भविष्य के लिये मील का पत्थर बता रही है। केंद्र सरकार का कहना है कि वह किसान हितैषी और उनके प्रति संवेदनशील है। आखिर उसकी विकास-समृद्धवादी और सकारात्मक सोच पर शंका क्यों? उसके कार्यकाल में किसानों को समृद्धशाली करने वाली तमाम योजनाएं इसका जीता-जागता प्रमाण हैं।

सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह ही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई बार किसानों के प्रति अपना भरोसा और उनके हितों को लेकर प्रतिबद्धता जता चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी यह भी कह चुके हैं कि केंद्र सरकार की सोच ‘गंगाजल’ की तरह पवित्र है। इसमें शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रधानमंत्री और सरकार के मंत्री हरसंभव प्रयास और संवाद को तैयार हैं। इसके बावजूद किसान संगठन और उनके नेता इसपर विश्वास नहीं कर रहे हैं।

इन कृषि कानूनों और किसान आंदोलन को लेकर कई सवाल कई हैं। क्या वाकई में ये कानून किसानों को बर्बाद कर देंगे या इसे लेकर बेवजह आशंका और भ्रम का वातावरण तैयार किया गया है, जिससे किसान संगठन आहत और गुमराह हैं। जहां तक केंद्र सरकार का किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), कृषि मंडियों, कांट्रैक्ट फार्मिंग की बात हो या फिर इसमें विवाद और समस्या आने पर एसडीएम और कलेक्टर के माध्यम से कानूनी निपटारे की व्यवस्था की बात हो, सरकार किसान संगठनों की हर आशंका का सहानुभूतिपूर्वक समाधान करने के साथ ही लिखित रूप से भरोसा देने को तैयार है। केंद्र सरकार ऐसा कर भी चुकी है तो किसान संगठन उसे मनाने को तैयार क्यों नहीं हैं? जबकि इससे पहले तक वे एमएसपी और एपीएमसी समेत कुछ मुद्दों पर लिखित आश्वासन चाहते थे।

केंद्र सरकार से पांच दौर की वार्ता के बाद जब कृषिमंत्री, वाणिज्य मंत्री, रक्षामंत्री और गृहमंत्री आदि ने उन्हें भरोसा देते हुए सरकार की तरफ से लिखित प्रस्ताव भेजा तो इसपर क्यों नहीं राजी हैं। वे क्यों तीनों कृषि कानूनों की रद्द करने की हठधर्मिता कर रहे हैं। क्या इसके पीछे कोई राजनीतिक साजिश या मंशा है जो किसान संगठनों को बरगला कर देश को अस्थिर करना चाहती है। क्या विभिन्न राजनीतिक दल किसानों के कंधों पर अपनी विरोध की बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं। फिलहाल किसानों के रवैए को लेकर ऐसा ही लगता है कि उनके नेता राजनीतिक दलों की तरह सरकार से ‘सौदा’ करना चाहते हैं। जबकि सरकार बारंबार किसानों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और भरोसे को न केवल जता रही है बल्कि वह उसे करके भी दिखा रही है।

सरकार अपनी तरफ से किसान संगठनों की मांगों और सभी आशंकाओं को दूर करते हुए नए कृषि कानूनों में जरूरी संशोधन करने के साथ ही अभी भी किसान संगठनों की शंकाओं और विभिन्न बिन्दुओं पर चर्चा तथा सुधार के लिए तैयार है। अगर इसके बाद भी किसान संगठन सरकार के प्रयास और प्रस्ताव पर यही रवैया अपनाते हैं तो फिर उनका मकसद किसान हित है या राजनीतिक, इसे समझाना होगा। क्योंकि किसान संगठन पहले जिन प्रमुख मुद्दों को लेकर लिखित आश्वासन और संशोधन चाह रहे थे, इसपर सरकार उन्हें लिखित रूप से भी देने को तैयार है तो किसान संगठन क्यों इन कानूनों को रद्द और वापस लेने पर अड़े हुए हैं। किसान संगठनों ने सरकार के अबतक दिए गए प्रस्ताव को खारिज कर आंदोलन को और तेज करने का बिगुल फूंक दिया है। यही वे वजहें हैं, जिनको हमें समझना होगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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