ब्‍लॉगर

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के मायने

– प्रमोद भार्गव

ताकतवर अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से एकाएक वापसी के फैसले से दुनिया हैरान है। पूर्ण रूप से सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान में घटनाक्रम किस तरह की करवटें लेगा, इस प्रश्न का उत्तर अंतरराष्ट्रीय सामरिक व कूटनीतिज्ञ जानकारों के पास भी नहीं है। परंतु अब अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के सांसद जिम बैंक्स के बयान के बाद इस पहेली पर पड़ी धूल छंटती दिख रही है। दरअसल यह सवाल पूरी दुनिया में उठ रहा है कि क्या अमेरिका व मित्र राष्ट्रों की सेनाएं इतनी कमजोर हैं कि लोकतंत्र व मानवता विरोधी तालिबान के समक्ष घुटने टेक दें?

इस पृष्ठभूमि में अब समझ आ रहा है कि अमेरिका के जो बाइडेन के नेतृत्व वाली डेमोक्रेटिक सरकार का यह सब किया-धरा है। आशंका जताई जा रही है कि जिस चीन के साथ पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आरपार की लड़ाई लड़ने की ठान ली थी, उसी के समर्थक तालिबानियों के समक्ष बाइडेन एकाएक झुक गए ? क्या चीन और बाइडेन ने वामपंथी वैचारिक मत समर्थन के चलते ऐसा किया ? और फिर एकाएक फौज को अफगान से वापस बुलाने की घोषणा कर दी ? हालांकि अमेरिकी सेना की वापसी का तालिबान से समझौता कतर की राजधानी दोहा में फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही हुआ था। लेकिन ट्रंप ने तालिबान के इस दावे को मानने से इनकार कर दिया था कि वह अफगानिस्तान का इस्लामिक आका है। ट्रंप आनन-फानन में हथियारों का जखीरा अफगान की धरती पर ही छोड़कर सेना वापसी के पक्ष में भी नहीं थे।

इस वजह का खुलासा अब अमेरिका की विपक्षी पार्टी रिपब्लिकन करने लगी है। पार्टी के सांसद जिम बैंक्स ने कहा है कि बाइडेन सरकार की जल्दबाजी की वजह से तालिबानियों को अफगानिस्तान में बड़ी ताकत मिल गई है। तालिबान के हाथ 85 बिलियन डॉलर के अमेरिकी सेना के अस्त्र-शस्त्र लग गए हैं। इनमें 75 हजार सैनिकों को ढोने वाले वाहन, 200 से ज्यादा विमान और हॉक हेलिकॉप्टर, 6 लाख लघु व मझौले हथियार और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद शामिल हैं। यह ताकत इतनी बड़ी है कि तालिबानियों के पास दुनिया के 85 प्रतिशत देशों से कहीं ज्यादा ब्लैक हॉक लड़ाकू हेलिकॉप्टर आ गए हैं। इस हवाई ताकत से तालिबानी पगलाकर कहीं भी कहर ढा सकते हैं। इनमें नाइट डिवाइस और बुलेटप्रूफ जैकेट भी हैं। तालिबान के हाथ वे बायोमेट्रिक लैपटॉप व कंप्युटर भी आ गए हैं, जिनमें अमेरिका की मदद करने वाले अफगानियों के नाम व पते दर्ज हैं।

साफ है, तालिबानी इन लोगों से चुन-चुनकर क्रूर बदला लेंगे ? अमेरिकी सेना के पूर्व सलाहकार जोनाथन स्क्रोडन का कहना है कि लड़ाकू विमानों और हेलिकॉप्टरों पर कब्जा कर लेना तो आसान है, लेकिन इनका इस्तेमाल कठिन है। क्योंकि इन्हें उड़ाने के लिए पूरी एक प्रशिक्षित टीम की जरूरत पड़ती है। उड़ान भरने के बाद इनमें सुधार की भी जरूरत होती है। इनकी देखभाल के लिए निजी ठेकेदार थे, जो अफगान के तालिबान के कब्जे में आने से पहले ही लौट आए हैं। फिर भी खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता है। अलबत्ता एक शंका यह भी उठ रही है कि आतंकियों के हाथ जो हथियार आए हैं, उनकी वे कालाबजारी भी कर सकते हैं।

तालिबान बदला हुआ दिखाने का दावा भले ही कर रहा हो, लेकिन उसके साथ जो अन्य आतंकी संगठन हैं, उनसे दूरी बनाना मुश्किल है। यही वजह है कि तत्काल 5 लाख से भी ज्यादा अफगानी जान जोखिम में डालकर देश छोड़ने को तैयार हैं। क्योंकि इन्हें अपना भविष्य अनिश्चितता के अंधकार में डूबा लग रहा है। बावजूद तालिबानी इन हथियारों को पाकर इसलिए मजबूत लग रहे हैं, क्योंकि जो 80 हजार अफगानी सैनिक तालिबानियों के सामने समर्पण कर चुके हैं, उनमें से कुछ इन हथियारों व हेलिकॉप्टरों को चलाने में अमेरिकी प्रशिक्षकों द्वारा दक्ष कर दिए गए हैं। धर्म व नस्लीय एकरूपता के चलते ये तालिबान के साथ खड़े हो गए हैं।

जिम बैंक्स का बयान इसलिए भी तार्किक है, क्योंकि बाइडेन चुनाव-प्रचार के दौरान कहते रहे हैं कि वे चीन से तनावपूर्ण संबंध नहीं रखेंगे। जबकि डोनाल्ड ट्रंप ने चीन द्वारा कोविड-19 वायरस के कृत्रिम रूप में सृजन की आशंकाओं के चलते अनेक प्रतिबंध लगा दिए थे। इस आशंका की पुष्टि अमेरिका द्वारा की गई उस एअर स्ट्राइक से भी हुई है, जिसके चलते आईएस-खुरासान गुट के उस चरमपंथी को मार दिया है, जिसने काबुल हवाई अड्डे पर आत्मघाती हमले की साजिश रची थी। अमेरिकी सेना के मुख्यालय पेंटागन ने यह दावा किया है। यहां सवाल उठ रहा है कि अमेरिका ने आखिरकार इसी हवाई अड्ढे और अन्य हवाई अड्डों पर खड़े हॉक हेलिकॉप्टरों पर हमला करके उन्हें नष्ट क्यों नहीं किया ? कालांतर में यही हेलिकॉप्टर तालिबानियों की हवाई ताकत बन सकते हैं ?

इस मकसद के पीछे यह कूटनीतिक मंशा जताई जा रही है कि तालिबान को बाइडेन सरकार इतनी ताकत दे देना चाहती है, जिससे रूस और तुर्की जैसे देश भयभीत रहें। दरअसल चीन ने इस्लामिक ईस्ट तुर्किस्तान मूवमेंट को आतंकी संगठन का दर्जा दिया हुआ है। इस कारण तुर्की और चीन में दूरी बनी हुई है। वैसे तालिबानियों को इन हथियारों के इस्तेमाल के लिए किसी नैतिक कारण की जरूरत नहीं है। अलबत्ता बाइडेन भारत के ट्रंप की तरह शुभचिंतक नहीं हो सकते, इस लिहाज से एक आशंका यह भी है कि तालिबान यदि अपने मददगार पाकिस्तान के जरिए इन हथियारों का उपयोग भारत के खिलाफ करता है तो भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका से हथियार खरीदने को मजबूर होना पड़ेगा ? यानी बाइडेन दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं।

वैसे भी अमेरिका समेत सभी पश्चिमी देश अपने हितों के लिए दोतरफा चालें चलने में कोई गुरेज नहीं करते। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि जो पाकिस्तान तालिबान को पालकर ताकतवर बना रहा था, उसे अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देशों ने कभी दंडित नहीं किया। जबकि पाकिस्तान दुनिया में आतंकी हमलों के लिए तालिबान समेत तमाम आतंकी शिविरों में प्रशिक्षित आतंकी उपलब्ध कराता रहा है। अमेरिका में 19/11 के आतंकी हमले के दोषी ओसामा बिन लादेन को शरण पाकिस्तान ने एबटावाद ही दी हुई थी। अमेरिका ने यहीं उसे ढेर किया था।

एकाएक अमेरिकी फौजों के हटने के साथ ही, तालिबानियों के अफगानी सत्ता पर काबिज होने के मंसूबे पूरे हो गए। चीन भी तालिबानियों के समर्थन में इसलिए आ खड़ा हुआ है, क्योंकि वह अफगानिस्तान की धरती में समाए खनिजों का दोहन करने की मंशा पाले हुए हैं। इसीलिए इस घटनाक्रम की शुरूआत से ही चीन तालिबान के उत्साहवर्धन में लगा है।

दरअसल कुटिल चीन की भूमि की एक पट्टी चीन को अफगानिस्तान की सीमा से जोड़ती है। चीन जिस देश की भी मदद करता है, उसके आर्थिक और खनिज दोहन के लिए कुख्यात है। अफगान की इस धरती के ऊपर शुष्क मेवा और नीचे खनिजों के भंडार हैं। इन खनिजों के उत्खनन की प्रौद्योगिकी अफगान के पास नहीं है। लिहाजा कथित तालिबानी सरकार को देश की माली हालत बहाल रखनी है तो खनिजों का उत्खनन जरूरी है। इन खनिजों से चीन कोरोना के चलते उद्योगों की सुस्त हुई चाल को गति दे सकता है। चीन की एशिया को जोड़ने वाला बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट को भी इस धरती से गुजरना है।

गोया, चीन का तालिबान के पक्ष में नरम व मददगार रुख फलदायी साबित हो सकता है। लेकिन चीन जिस तरह की चालाकियां बरतने का आदी है, उस परिप्रेक्ष्य में नहीं लगता कि दोनों का तालमेल लंबे समय तक चलेगा ? अतएव अफगानिस्तान से सेनाओं की जिस तरह से जल्दबाजी में जो निर्णय किया गया है, उसमें जिम बैंक्स और अन्य जानकार वामपंथी हित और हरकतों की शंका देख रहे है, तो वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यर्थ नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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