ब्‍लॉगर

आदिवासी दिवस बनाम जनजातीय गौरव के निहितार्थ

– डॉ. अजय खेमरिया

15 नवम्बर को जनजातीय गौरव दिवस मनाए जाने को लेकर उदारवादी जमात के पेट में दर्द शुरू हो गया है। 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है फिर भारत सरकार द्वारा जनजाति गौरव दिवस के औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं। सच्चाई यह है कि अरण्य अस्मिता और उसके गौरवशाली इतिहास को एक सुनियोजित मानसिकता के साथ विस्मृत करने का कार्य देश में 75 साल से किया जाता रहा है। विश्व आदिवासी दिवस की सुनियोजित अवधारणा भारत की समग्र एकता और अखंडता के विरुद्ध एक वैश्विक षड्यंत्र है। इसके तार उसी औपनिवेशिक मानसिकता से जुड़े हैं जिसे भगवान बिरसा मुंडा ने अपने जीवनकाल में सफल चुनौती दी थी। टोपी से बचने की बिरसा थियरी असल में ईसाई मिशनरी और गोरी हुकूमत से संघर्ष की संयुक्त संकल्पना ही थी।

दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में जनजातियों को राज व्यवस्था ने जिस दृष्टि से देखा और समझा है वह वैरियर एल्विन और फादर हॉफमैन जैसे विदेशी चश्मे से ढंकी हुई है। विश्व आदिवासी दिवस वस्तुतः एल्विन जैसी बौद्धिक विरासत से रची गई एक अलगाववादी थियरी ही है, जिसकी प्रामाणिक काट में मोदी सरकार ने जनजातीय गौरव दिवस का शंखनाद किया है। यह गौरव दिवस असल मायनों में भारतीय दृष्टि से जनजातीय गौरव को पुनर्स्थापित करने का शुभारंभ भी है।बुनियादी रूप से हमें यह समझने की आवश्यकता है कि 2007 में शुरू हुआ विश्व आदिवासी दिवस अगले दस वर्षों के अंदर देश के 300 केंद्रों पर कैसे सरकारी और गैर सरकारी मंचों पर भव्यता के साथ मनाया जाने लगा। इसकी पड़ताल हमें उस वैश्विक षडयंत्र की तरफ ले जाती है जो मूल रूप से माओवाद और नक्सलवाद के दर्शन पर टिकी है। इस आदिवासी दिवस अवधारणा का एकमेव सिद्धान्त है ‘जनजाति हिन्दू नहीं है।’ भारत की 11 करोड़ आबादी को इस झूठ के साथ बरगलाना कि आदिवासियों को भारत के संविधान से ज्यादा अधिकार संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणापत्र देता है। साथ ही अगर भारत का संविधान हमें (आदिवासियों) यूएन के अनुसार अधिकार नहीं देता है तो अलग नागरिकता की मांग की जाए।

इन बीज मांगों के आलोक में संविधान दिवस के आयोजनों में भारत के संविधान की प्रतियां तक जलाई जा रही हैं। इन मांगों के समर्थन में माओवादी, मिशनरी एक्टिविस्ट एवं आर्मीनुमा दलित संगठनों के साथ जेएनयू, जामिया, जाधवपुर, अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालयों के एकेडेमिक्स भी खड़े नजर आते हैं। यह वही संगठित वर्ग है जिसने नागरिकता संशोधन कानून,अनुच्छेद 370 के संसदीय घटनाक्रम पर देश भर में झूठ और नफरत की फसल खड़ी की। हाल ही में किसान आंदोलन और दिल्ली दंगों में भी ऐसे ही तत्वों की भूमिका सर्वविदित है।

महत्वपूर्ण पक्ष यह कि आदिवासी दिवस की इस अलगाववादी थियरी को एमनेस्टी, फोर्ड फाउंडेशन से लेकर वे सभी एनजीओ खुलेआम मदद कर रहे हैं जो हालिया एफसीआरए कानून में संशोधन से तिलमिलाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि एक वैश्विक षड्यंत्र पूरी सुनियोजित रणनीति के साथ आदिवासी मामलों में सक्रिय है जिसने झारखंड, छ्त्तीसगढ़, मप्र, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की संसदीय राजनीति तक को अपने कतिपय प्रभाव में ले रखा है। इस पूरी गिरोहबंदी का लक्ष्य देश की 11 करोड़ जनजातीय आबादी को हिंदू धर्म और भारत की राष्ट्रीयता के विरुद्ध खड़ा करना है।

अब बड़ा सवाल यह है कि देश की 705 अनुसूचित जनजाति वर्गों में से केवल बिरसा मुंडा के साथ जनजाति गौरव क्यों जोड़ा गया है?

इसका जवाब यह है कि भगवान बिरसा मुंडा सनातन परंपरा के ध्वजवाहक हैं। उनकी स्पष्ट उद्घोषणा थी कि सनातन संस्कृति की कीमत पर राजनीतिक आर्थिक विकास का कोई महत्व नहीं है। सच्चाई यह है कि हिंदुत्व और सनातन तत्व ही भारत की एकता और अखंडता की बुनियाद है। इस बुनियाद को कमजोर करने का षड्यंत्र भारत और भारत के बाहर औपनिवेशिक कालखंड से ही सतत जारी है। 2014 के बाद इन षडयंत्रकारी शक्तियों की जमीन बुरी तरह से हिली है। यही उस बड़े उदारवादी वर्ग की चिंता का सबब है जो भारत में कभी मूल निवासी कभी आर्य अनार्य के विवाद खड़े करता रहा है।

जनजाति को वैश्विक आदिवासी नागरिकता की बात करने वालों की मानसिकता को भी यहां गहराई से समझने की आवश्यकता है क्योंकि बिरसा से भयभीत गोरी हुकूमत ने बाकायदा एक थियरी ईजाद की थी जो यह बताती है कि भारत में बिरसा मुंडा जैसा वीर आगे पैदा नहीं हो सके। इसके लिए अंग्रेजी सरकार को किस कार्ययोजना पर काम करना है। नतीजतन मुंडा वर्गीय वनवासियों को इसी थियरी पर धर्मांतरित किया गया। जयपाल मुंडा इसकी नजीर हैं जिन्हें बाकायदा लंदन ले जाकर सुशिक्षित किया गया और उन्होंने संविधान सभा में सदस्य के रूप में जो भूमिका ली वह सर्वविदित है। आज झारखंड के 11 जिलों में यह षड्यंत्र सफल होता दिख रहा है।

झारखंड के दो मुख्यमंत्रियों को छोड़कर हर सीएम फादर हॉफमैन की मूर्ति पर जाकर माला पहनाते हैं। फादर हॉफमैन वही शख्सियत है जिसने भगवान बिरसा मुंडा की असमय मौत की पटकथा लिखी। दूसरा नायक है वैरियर एल्विन जिसने दो नाबालिग वनवासी लड़कियों से विवाह कर उनका शोषण किया।इसी वैरियर एल्विन को नेहरू जी ने देश का प्रधान जनजातीय सलाहकार बनाया। देश के एकेडेमिक्स में एल्विन की गढ़ी गईं अलगाववादी थियरी ही 75 वर्षों से पढ़ाई जा रही है। आदिवासी दिवस और गैर हिन्दू आदिवासी थियरी के नायक मिशनरी और बिरसा के हत्यारे बेशर्मी से कैसे बने हुए हैं। अब इसे समझना अधिक कठिन नहीं है। एल्विन और हॉफमैन के मानस पुत्रों को भगवान बिरसा मुंडा अगर स्वीकार्य नहीं है तो इसके निहितार्थ भारत और भारतीयता के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय साजिश को स्वयंसिद्ध करता है।

वस्तुतः भगवान बिरसा मुंडा ने जिन महान उद्देश्यों को लेकर प्राणोत्सर्ग किया, वनवासी समाज में राष्ट्रीय चेतना की स्थापना की। क्या उस चेतना और बलिदान के दिखाए गए मार्ग पर हमारी अपनी राजव्यवस्था 75 सालों में वंचितों के लिए चलने का नैतिक साहस दिखा पाई है? अपनी नाकामी की पर्देदारी के लिए भी आदिवासी दिवस जैसे षडयंत्र को उदारवादियों ने स्थापित करने का काम किया है। इसे वोट बैंक के नजरिये से भी समझने की जरूरत है क्योंकि वनवासी करीब 20 राज्यों में भौगोलिक रूप से बिखरे हैं और उनमें पिछडेपन के साथ विविधता बहुत है। वनवासियों की एकीकृत वोट अपील पिछड़ों, दलित, अल्पसंख्यक जैसी नहीं है। सिवाय झारखंड और छत्तीसगढ़ को छोड़कर।

बिरसा की जन्मभूमि झारखंड के गठन की विधिवत घोषणा करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस नए राज्य को बिरसा को समर्पित करने की बात कही थी। लेकिन हॉफमैन जैसे बिरसा मुंडा के हत्यारे उसी झारखंड में राजनीतिक दलों से खुलेआम प्रतिष्ठित होते रहे हैं। रांची और इसके आसपास के जिलों के हजारों वनवासियों के साथ बिरसा नारा लगाते थे-

“तुन्दू जाना ओरो अबूझा राज एते जाना” (ब्रिटिश महारानी का राज ख़त्म हो, हमारा राज स्थापित हो)

प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास “जंगल के दावेदार” में जो प्रामाणिक वर्णन बिरसा मुंडा और उनकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का किया है वह आज के इस पिछड़े वनवासी समाज की तत्कालीन चेतना के उच्चतम स्तर को भी स्वयंसिद्ध करता है। उन्होंने महज 25 साल जीवन गुजारा लेकिन अपने विभूतिकल्प व्यक्तित्व के चलते वे वनांचल में भगवान के रूप में आज पूजे जा रहे है। यह एक तथ्य है कि बिरसा को भारतीय लोकजीवन में पाठ्यक्रम में कभी यथोचित स्थान नहीं दिया गया है। आततायी मुगलों की सदाशयता पढ़ते हमारे विद्यार्थी बिरसा को भगवान बनाने वाली प्रामाणिक घटनाओं से वंचित क्या सिर्फ वनवासी होने की वजह से हैं।

यह सुखद संकेत है कि अब भारत की राज व्यवस्था वनवासियों को विदेशी चश्मे से नहीं भारत की एकीकृत अस्मिता के साथ देखने लगी है। भारत के पहले विश्वस्तरीय रेलवे स्टेशन हबीबगंज का नाम महान गोंड रानी कमलापति के नाम से होना जनजातीय गौरव को भारत के आत्मगौरव के साथ स्वीकार करने का आरम्भ है। बाकायदा सरकारी आदेश में पहली बार किसी जनजातीय नायक को भगवान का दर्जा देकर गौरव दिवस की शुरुआत भारत के स्वत्व के साथ जनजातीय गौरव को सिद्ध करने की शुरुआत भी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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