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नीतीश कुमार होने के मायने.

– बिक्रम उपाध्याय

वर्तमान राजनीतिक भारत में संभवतः नीतीश कुमार अकेले ऐसे नेता हैं, जो पिछले ढाई दशक से लगातार सत्ता के साथ जुड़े हुए हैं। पिछले 15 साल से लगातार बिहार सरकार के मुखिया तो हैं ही, उसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित केंद्र की राजग सरकार में भी मंत्री रहे हैं। यानी 1997 से लेकर आजतक सत्ता की देवी का आशीर्वाद अनवरत उन्हें मिल रहा है।

बड़ी बात सिर्फ यह नहीं कि उनके नतृत्व के लोग हामी रहे हैं। बड़ी बात यह भी है कि उस पार्टी के मुखिया के रूप में उन्होंने अपना सिक्का जमाए रखा, जिस पार्टी का वजूद बिहार के बाहर कभी मजबूती से महसूस भी नहीं किया गया। इतनी बड़ी कामयाबी केवल भाग्य या जोड़तोड़ से नहीं मिल सकती। इस कामयाबी के लिए नीतीश बाबू का व्यक्तित्व और उनकी निर्णय क्षमता का भी बहुत बड़ा योगदान है। नीतीश कुमार निर्णय में जितने कठोर हैं, व्यवहार में उतने ही समावेशी। जब उनपर चुनाव के दौरान अहंकारी होने का आरोप लगा तो उन्होंने हाथ जोड़कर पत्रकारों से कहा- कृपया मुझे अभिमानी मत कहिए।

सुशासन बाबू का टैग उन्हें यूं ही नहीं मिला। उसके लिए नीतीश कुमार ने भाव और प्रभाव रहित राजनीति और लोकनीति पर चलते हुए अपना बहुत कुछ दांव पर भी लगाया है। नीतीश कुमार को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी पार्टी अब भाजपा के सामने छोटे भाई की भूमिका में आ गई है। वे आज भी उतने ही विश्वास और ठसक के साथ सरकार बनाते दिखे जैसे पिछले चुनाव में राजद को ज्यादा सीटें मिलने के बाद भी मुख्यमंत्री बनते समय दिखे थे। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा बारंबार इस निश्चय की घोषणा कि नीतीश कुमार ही अगले 5 वर्ष के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहेंगे, तो फिर किसी के मन में कोई शंका या संदेह आने की गुंजाइश भी नहीं रहती।

नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। इतिहास गवाह है कि 1995 में 324 सीट वाले बिहार विधानसभा में जनता दल यूनाइटेड को केवल 7 सीटें मिली थीं। उसके बाद नीतीश कुमार ने किस तरह बिहार की राजनीति में अपने आपको अपरिहार्य बना दिया, यह अब सबके सामने है।

1 मार्च 1951 को बिहार के बख्तियारपुर में एक साधारण परिवार में जन्में नीतीश कुमार ने अपनी सूझबूझ और जन स्वीकारोक्ति के बल पर एक अपने को असाधारण राजनेता सिद्ध कर दिया है। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग से सोशल इंजीनियरिंग तक का नीतीश कुमार का सफर कई मोड़ों से होकर गुजरा है। 1974 से लेकर 1977 तक चले जेपी आंदोलन में तपने और जनता के लिए लड़ने के लिए तैयार होने का समय था। नीतीश कुछ उन नये राजनेताओं में सम्मिलित थे जिन्हें जयप्रकाश बाबू के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय भूमिका मिली थी।

नीतीश की सफल चुनावी राजनीति 1985 में शुरू हुई, जब वे पहली बार बिहार विधानसभा के लिए चुने गये। पहले लोकदल और फिर जनता दल में भी उन्हें महत्वपूर्ण पद दिए गए। लेकिन जनता दल में आपसी मनमुटाव के चलने नीतीश ने जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन कर लिया और अपनी एक अलग राजनीतिक पहचान कायम कर ली। जार्ज फर्नांडीस कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक गठबंधन में भाजपा के साथ आए और इस तरह से नीतीश कुमार का भी भाजपा के साथ एक औपचारिक संबंध स्थापित हो गया। राजनीति में नीतीश कुमार का कद बढ़ता गया वे जल्दी ही नौंवी लोकसभा के सदस्य भी चुन लिए गए। 1990 में उन्हें पहली बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में बतौर कृषि राज्यमंत्री बनाया गया। वे लगातार कई वर्षों तक बिहार के बाढ़ संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। वाजपेयी सरकार में जार्ज फर्नांडीस के साथ साथ नीतीश कुमार भी कैबिनेट मंत्री बने। वहां उन्होंने रेल और भूतल परिवहन मंत्री की जिम्मेदारी संभाली।

नीतीश कुमार की रूचि और दखल बिहार की राजनीति में ज्यादा थी। जनता लालू यादव और उनकी परिवार के सरकार से तंग आ चुकी थी। प्रदेश के एक बदलाव का बयार चल रहा था। वैसे में नीतीश कुमार जनता की आकांक्षा बन कर उभरे और 2005 में बनने वाली नई सरकार का नेतृत्व संभाला। तब से वह लगातार मुख्यमंत्री के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हालांकि वह पहली बार वर्ष 2000 में ही मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन उन्हें सिर्फ सात दिनों में ही त्यागपत्र देना पड़ गया। नीतीश भले ही सत्ता में पिछले ढाई दशक से बने हुए हैं, लेकिन जब भी नैतिकता की बात आई तो उन्होंने इस्तीफा देने में जरा भी संकोच नहीं किया। 2014 के आम चुनाव में जब उनकी पार्टी लोकसभा में कोई बड़ी जीत हासिल नहीं कर पाई तो नीतीश कुमार ने स्वयं खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और अपनी जगह दलित वर्ग के नेता जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री का पद सौंप दिया था। लेकिन पार्टी और सरकार में उथल-पुथल के बाद उन्हें फरवरी 2015 में फिर से नेतृत्व के लिए आगे आना पड़ा। इसी साल विधानसभा चुनाव हुए और नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन कर चुनाव लड़ा और फिर बहुमत पाकर मुख्यमंत्री बने। लेकिन जब लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी मनमानी करते नजर आए तो नीतीश ने तुरंत उनके दूरी बनाने का फैसला किया और फिर से भाजपा के साथ सरकार का गठन कर लिया।

नीतीश कुमार यदि बिहार की राजनीति में अजातशत्रु बने हुए हैं तो उसके पीछे एनडीए सरकार का काम और उनका स्पष्ट दृष्टिकोण का भी योगदान है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार अब बीमारू राज्य से बाहर आ चुका है। गरीबी दर लगातार घट रही है। 2004-05 में जहां गरीबी दर 54.4 प्रतिशत थी, वही अब घटकर 33.74 प्रतिशत हो गई है। बिहार में प्रति व्यक्ति आय और व्यय दोनों बढ़ी है। इज ऑफ डूइंग बिजनेस में भी बिहार 2015 में बिहार का स्कोर 2015 में 16.4 से बढ़कर वर्तमान में 81.91 हो गया है।

नीतीश कुमार जानते हैं कि आगे चुनौतियां बड़ी हैं। केवल राजनीतिक फ्रंट पर ही नहीं, सरकार के प्रदर्शन में भी। अपने कामकाज के भरोसे राजनीति करने वाले नीतीश आगे भी उसी पर निर्भर रहने वाले हैं। बिहार के विकास की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही सामाजिक सामंजस्य और विरोधियों की कसौटी पर भी उन्हें खड़ा होना है। शराबबंदी का उनका फैसला महिलाओं ने सराहा और उसका परिणाम वोट में भी मिला। लेकिन नशा मुक्ति के साथ साथ रोजगार और औद्योगिकीकरण भी बड़े मुद्दे हैं। जिस पर नीतीश कुमार को कुछ बड़ा करके दिखाना है। बिहार की जनता नीतीश कुमार के साथ है, परिस्थितियां भी अनुकूल है। आगे का रास्ता नीतीश कुमार को तय करना है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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