ब्‍लॉगर

पॉक्सो पीड़ित और न्याय की लंबी डगर

– डॉ. निवेदता शर्मा

लोककल्याणकारी राज्य व्यवस्था में किसी भी तरह के अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है। बल्कि जहां भी कुछ गलत हुआ है, उसकी सीमित या अधिकांश भरपाई किस तरह की जा सकती है, उसके लिए राज्य अनेक कानून एवं विधि अनुरूप व्यवस्था का निर्माण करता है, जिस पर चलकर उम्मीद की जाती है कि जिसके साथ भी गलत हुआ है उसे न्याय मिलेगा । पर यह न्याय दिलाएगा कौन ? स्वभाविक है जिनके कंधे पर इस कार्य को करने का दायित्व होगा वे सभी लोग। किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि पॉक्सो पीड़ितों को समय पर न्याय नहीं मिल रहा । जो सुविधा शासन से सुनिश्चित की है, वह भी उन्हें नहीं मिल रही है। ज्यादातर केस में पीड़ित बालिग हो गईं किंतु उन्हें जो राशि विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा पीड़ित प्रतिकर स्कीम में स्वीकृत कर दे देना चाहिए थी, वह उसे कभी मिल ही नहीं पाती है।

चिंता का विषय यह है कि इस सहायता के अभाव में कितनी बच्चियां मजबूरन अपराधी के साथ समझौते करने के लिए विवश होती होंगी? कितनी सामाजिक बदनामी के कारण अचानक से केस को वापस लेती होंगी और ऐसी कितनी होंगी जो भविष्य में जीवन निर्वाह के भीषण संकट से गुजरने के लिए मजबूर होकर अपने पैर पीछे करने के लिए मजबूर हो जाती होंगी? विश्व बैंक में डेटा एविडेंस फॉर जस्टिस रिफॉर्म कार्यक्रम से पॉक्सो एक्ट को लेकर कुछ चौंकाने वाली बातें पिछले दिनों सामने भी आईं । पॉक्सो एक्ट के 10 साल बाद एक स्वतंत्र थिंक टैंक ने देशभर की ई-कोर्ट्स के विश्लेषण में पाया कि पॉक्सो एक्ट में दर्ज मुकदमों में 43.44 फीसद मामले में दोषी बरी कर दिए जाते हैं और केवल 14.03 फीसदी मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाता है।


विश्लेषण में 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 486 जिलों में स्थित ई-कोर्ट के 2,30,730 मामलों का अध्ययन किया गया था, जिसका निष्कर्ष निकला कि 22.9 प्रतिशत मामलों में आरोपी और पीड़ित एक-दूसरे को जानते थे। 3.7 फीसद मामलों में पीड़ित और आरोपी परिवार के सदस्य मिले। 18 फीसदी मामलों में पीड़ित और आरोपी के बीच पहले से प्रेम-संबंध होने की बात सामने आई, जबकि 44 फीसद मामलों में आरोपी और पीड़ित दोनों एक-दूसरे से पहले कभी नहीं मिले थे यानी पूरी तरह से अपरिचित पाए गए । इस विश्लेषण से पता चला कि पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत दर्ज 56 फीसदी मामले पेनीट्रेटिव अपराधों से संबंधित हैं। 31.18 प्रतिशत मामले यौन हमले के रूप में पाए गए, जबकि 25.59 फीसदी मामले गंभीर पेनीट्रेटिव अपराधों से जुड़े थे।

एक अन्य संस्था इंडिया फाउंडेशन की इसी विषय पर तैयार रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि बीते 10 साल में बच्चों से दुष्कर्म में 290 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इनमें से 64 फीसद पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट (पॉक्सो अधिनियम) कानून में 2012 से आगे के 10 वर्ष वर्षों तक दर्ज घटनाओं की समीक्षा के बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में साफ है कि 2012 में बच्चों से दुष्कर्म के 8,541 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2021 में इनकी संख्या 83,348 हो गई। वर्ष 2022 की रिपोर्ट अभी आएगी तब और पता चल जाएगा कि पॉक्सो मामलों में कितनी वृद्धि हुई है या पहले से कुछ कमी भी आ सकी है। फिलहाल ‘प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम’ रिपोर्ट यह बता रही है कि 99 फीसद घटनाओं में पीड़ित मासूम बच्चियां हैं।

अध्ययन बताते हैं कि बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों में पॉस्को लगाया ही नहीं गया। ‘बाल यौन अपराध संरक्षण नियम, 2020’ का नियम है कि यौन उत्पीड़न के मामले में प्राथमिकी दर्ज होने के बाद विशेष अदालत मामले में किसी भी समय पीड़ित की अपील या अपने विवेक से पीड़ित को राहत या पुनर्वास के लिए अंतरिम मुआवजे का आदेश देंगी । आदेश के पारित होने के 30 दिनों के अंदर राज्य सरकार द्वारा पीड़ित को मुआवज़े का भुगतान किया जाना है ।

‘बाल कल्याण समिति’ (सीडब्ल्यूसी) को यह अधिकार दिया गया है कि समिति अपने विवेक के अनुसार भोजन, कपड़े, परिवहन या पीड़ित की अन्य आकस्मिक जरूरतों के लिये उसे विशेष सहायता प्रदान करने के आदेश दे सकती है। इस तरह की आकस्मिक राशि का भुगतान आदेश की प्राप्ति के एक सप्ताह के अंदर पीड़ित को किया जाएगा। किंतु व्यवहार में ऐसा हो नहीं रहा । जिसे न्याय चाहिए यदि उसे शासन द्वारा निर्धारित पीड़ित प्रतिकर की सहायता ही समय पर नहीं मिल पाए, तब फिर कैसे उसके साथ न्याय होगा ही यह उम्मीद की जा सकती है ? इसी का आगे यह परिणाम होता है कि अक्सर पीड़ितों के अभियुक्त उन पर मुकर जाने का दबाव डालते हैं और ज्यादातर मामलों में सफल होते दिखाई देते हैं।

दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 की धारा 17 के तहत गठित एक सांविधिक निकाय) द्वारा मैपिंग ऑफ नीड्स एंड प्रायोरिटीज: ए स्टडी ऑफ चाइल्ड रेप विक्टिम्स इन दिल्ली द्वारा आयोजित एक नमूना अध्ययन में सामने आए हैं कि 42 फीसद पीड़ित बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। 50 फीसद बच्चे विभिन्न प्रकार की शारीरिक बीमारियों से पीड़ित थे जो यौन उत्पीड़न से जुड़ी थीं। लगभग 81 फीसद माता-पिता ने कहा कि वे अपने बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं, जो बाल बलात्कार के शिकार थे। मुआवजे के संबंध में, अध्ययन से पता चला कि केवल 15 फीसद पीड़ितों को कोई मुआवजा मिला यानी 85 फीसद को मुआवजा नहीं मिला था। इसमें सिर्फ एक बच्चे को सही मुआवजा मिला था। जबकि 99 फीसद बच्चों को प्रचलित योजना के अनुसार मुआवजा नहीं मिला था और 38 फीसद पीड़ितों को तो कोई कानूनी सहायता ही नहीं दी गई थी।

यहां समझनेवाली बात यह है कि न्याय दिलाने का दायित्व प्रशासन के कंधों पर है। हमने पॉक्सो एक्ट में देखा भी कि 2012 में भारत सरकार ने नाबालिग बच्चों की सुरक्षा के लिए इसे बनाया, फिर साल 2019 में कानून में संशोधन कर दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान तक केंद्र की सरकार ने किया, किंतु अपराधी को उसके अपराध की पूरी सजा मिले यह कार्य प्रशासन का है। प्रशासन से ऐसे में यह अपेक्षा की जाती है कि वह पॉक्सो से जुड़े सभी मामलों में गंभीरता दिखाए क्योंकि बच्चों से ही देश का सुखद भविष्य है। जिन्हें पॉक्सों में निर्धारित पीड़ित प्रतिकर की अत्यधिक आवश्यकता है, उसे वह तत्काल मिले, जिसमें कि जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों की जिम्मेदारी सबसे अधिक है।

(लेखिका, मध्य प्रदेश बाल संरक्षण आयोग की सदस्य हैं।)

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