ब्‍लॉगर

एग्जिट पोल की विश्वसनीयता पर उठते रहे हैं सवाल

– योगेश कुमार गोयल

कर्नाटक विधानसभा चुनाव की मतदान प्रक्रिया के समापन के साथ ही तमाम सर्वे एजेंसियों द्वारा अपने-अपने एग्जिट पोल्स का प्रसारण कर दिया गया। अधिकांश एग्जिट पोल में कर्नाटक में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने या बहुमत के करीब रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है लेकिन कुछ एग्जिट पोल ऐसे भी हैं, जिनमें भाजपा को कांग्रेस पर बढ़त मिलने या सत्तासीन होने की भविष्यवाणी की गई है।

न्यूज नेशन-सीजीएस के एग्जिट पोल में भाजपा को 114 और कांग्रेस को 86 सीटें मिलने जबकि सुवर्णा न्यूज-जन की बात के पोल में भाजपा को 106 और कांग्रेस को 98 सीट, न्यूज 18-राजनीति के पोल में भाजपा को 100 और कांग्रेस को 92 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है। दूसरी ओर इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल में कांग्रेस को 135 और भाजपा को 85, न्यूज 24-टुडेज चाणक्य के पोल में कांग्रेस को 120 और भाजपा को 92, इंडिया-सीएनएक्स के पोल में कांग्रेस को 115 और भाजपा को 85, टाइम्स नाउ-ईटीजी के पोल में कांग्रेस को 113 और भाजपा को 85, जी न्यूज के पोल में कांग्रेस को 108 और भाजपा को 86, पोल ऑफ पोल्स में कांग्रेस को 107 और भाजपा को 92, एबीपी-सी वोटर के पोल में कांग्रेस को 106 और भाजपा को 89, टीवी 9-पोलस्ट्रेट के पोल में कांग्रेस को 104 और भाजपा को 93 तथा रिपलब्लिक पी-मार्क के एग्जिट पोल में कांग्रेस को 101 और भाजपा को 92 सीटें मिलने की संभावना व्यक्त की गई है। देखने वाली बात यह है कि इनमें से कई एग्जिट पोल के आंकड़ों में बड़ा अंतर है और साथ ही इनमें प्लस-माइनस का भी बड़ा खेल शामिल रहता है। यही कारण है कि एग्जिट पोल में किए जाने वाले दावों पर अब आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जाता क्योंकि ये केवल चुनाव परिणामों का पूर्वानुमान ही होते हैं और अभी तक कई बार ऐसा हो चुका है, जब विभिन्न एग्जिट पोल में किए गए पूर्वानुमान से चुनाव परिणाम बिल्कुल उलट रहे।


हालांकि चुनावी सर्वे कराए जाने का इतिहास बहुत पुराना है और दुनिया के कई देशों में ऐसे सर्वे कराए जाते हैं। दुनियाभर में सबसे पहले अमेरिकी सरकार के कामकाज पर लोगों की राय जानने के लिए चुनावी सर्वे कराए जाने की शुरुआत अमेरिका में हुई थी। उस समय जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने इस विधा को अपनाया था, जिन्हें ओपिनियन पोल सर्वे का जनक माना जाता है। चुनाव के पश्चात् सामने आए नतीजों का अवलोकन करने पर उन्होंने पाया कि उनके द्वारा एकत्रित किए गए सैंपल तथा चुनाव परिणामों में ज्यादा अंतर नहीं था। उनका यह तरीका काफी विख्यात हुआ। इससे प्रभावित होकर ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भी इसे अपनाया और बहुत बड़े स्तर पर ब्रिटेन में 1937 जबकि फ्रांस में 1938 में ओपिनियन पोल सर्वे कराए गए। उन देशों में भी ओपिनियन पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक साबित हुए थे। जर्मनी, डेनमार्क, बेल्जियम तथा आयरलैंड में जहां चुनाव पूर्व सर्वे करने की पूरी छूट दी गई है, वहीं चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको इत्यादि कुछ देशों में इसकी छूट तो है किन्तु कुछ शर्तों के साथ।

एग्जिट पोल अर्थात् चुनाव पूर्व सर्वे का खाका भारत में वर्ष 1960 में खींच दिया गया था। तब ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज’ (सीएसडीएस) द्वारा इसे तैयार किया गया था। हालांकि माना यही जाता है कि नीदरलैंड के समाजशास्त्री तथा पूर्व राजनेता मार्सेल वॉन डैम द्वारा एग्जिट पोल की शुरुआत की गई थी, जिन्होंने पहली बार 15 फरवरी, 1967 को इसका इस्तेमाल किया था और उस समय नीदरलैंड में हुए चुनाव में उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा था। भारत में एग्जिट पोल की शुरुआत का श्रेय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा के जरिये जनता के मिजाज को परखने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रुख को जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था। शुरुआत में देश में सबसे पहले इन्हें पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित किया गया जबकि बड़े पर्दे पर चुनावी सर्वेक्षणों ने 1996 में उस समय दस्तक दी, जब दूरदर्शन ने सीएसडीएस को देशभर में एग्जिट पोल कराने के लिए अनुमति प्रदान की।

भारत में अधिकांश टीवी चैनलों पर चुनाव पूर्व सर्वे वर्ष 1998 में प्रसारित किए गए और तब ये बहुत लोकप्रिय भी हुए किन्तु कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इन पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग पर 1999 में चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल तथा एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उसके बाद एक अखबार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग उठी और मांग के जोर पकड़ने पर तब चुनाव आयोग ने प्रतिबंध के संदर्भ में कानून में संशोधन के लिए तुरंत एक अध्यादेश लाए जाने के लिए कानून मंत्रालय को पत्र लिखा। उसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करते हुए सुनिश्चित किया गया कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान जब तक अंतिम वोट नहीं पड़ जाता, तब तक किसी भी रूप में एग्जिट पोल का प्रकाशन या प्रसारण नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि एग्जिट पोल मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही दिखाए जाते हैं।

मतदान खत्म होने के कम से कम आधे घंटे बाद तक एग्जिट पोल का प्रसारण नहीं किया जा सकता। इनका प्रसारण तभी हो सकता है, जब चुनावों की अंतिम दौर की वोटिंग खत्म हो चुकी हो। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि आखिर एग्जिट पोल के प्रसारण-प्रकाशन की अनुमति मतदान प्रक्रिया के समापन के पश्चात् ही क्यों दी जाती है? जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126ए के तहत मतदान के दौरान ऐसा कोई कार्य नहीं होना चाहिए, जो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डाले अथवा मत देने के उनके फैसले को प्रभावित करे। यही कारण है कि मतदान से पहले या मतदान प्रक्रिया के दौरान एग्जिट पोल सार्वजनिक नहीं किए जा सकते बल्कि मतदान प्रक्रिया पूरी होने के आधे घंटे बाद ही इनका प्रकाशन या प्रसारण किया जा सकता है। यह नियम तोड़ने पर दो वर्ष की सजा या जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। यदि कोई चुनाव कई चरणों में भी सम्पन्न होता है तो एग्जिट पोल का प्रसारण अंतिम चरण के मतदान के बाद ही किया जा सकता है लेकिन उससे पहले प्रत्येक चरण के मतदान के दिन डेटा एकत्रित किया जाता है।

एग्जिट पोल से पहले चुनावी सर्वे किए जाते हैं और सर्वे में बहुत से मतदान क्षेत्रों में मतदान करके निकले मतदाताओं से बातचीत कर विभिन्न राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों की हार-जीत का आकलन किया जाता है। अधिकांश मीडिया संस्थान कुछ प्रोफेशनल एजेंसियों के साथ मिलकर एग्जिट पोल करते हैं। ये एजेंसियां मतदान के तुरंत बाद मतदाताओं से यह जानने का प्रयास करती हैं कि उन्होंने अपने मत का प्रयोग किसके लिए किया। उन्हीं आंकड़ों के गुणा-भाग के आधार पर हार-जीत का अनुमान लगाया जाता है। इस आधार पर किए गए सर्वेक्षण से जो व्यापक नतीजे निकाले जाते हैं, उसे ही ‘एग्जिट पोल’ कहा जाता है। चूंकि इस प्रकार के सर्वे मतदाताओं की एक निश्चित संख्या तक ही सीमित रहते हैं, इसलिए एग्जिट पोल के अनुमान हमेशा सही साबित नहीं होते। एग्जिट पोल वास्तव में कुछ और नहीं बल्कि वोटर का केवल रूझान होता है, जिसके जरिये अनुमान लगाया जाता है कि नतीजों का झुकाव किस ओर हो सकता है। एग्जिट पोल के दावों का ज्यादा वैज्ञानिक आधार इसलिए भी नहीं माना जाता, क्योंकि ये कुछ हजार लोगों से बातचीत करके उसी के आधार पर तैयार किए जाते हैं। वास्तव में ये सिर्फ अनुमानित आंकड़े होते हैं और कोई जरूरी नहीं कि मतदाता ने सर्वेकर्ताओं को अपने मन की सही बात ही बताई हो। यही कारण है कि एग्जिट पोल की विश्वसनीयता को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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