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इस हिंदोस्तानी डॉक्टर को साक्षी मानकर चीनी प्रोफेशनल सेवा की कसम खाते हैं


नई दिल्ली। भारत और चीन (China) के बीच भले ही ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ एक धोखेबाज़ नारा साबित हुआ हो, लेकिन कहीं न कहीं कुछ मानवीय रिश्ते रहे हैं। भारत और चीन के बीच लद्दाख में सीमा पर तनाव से जुड़ी खबरें तो कई पढ़ रहे हैं, लेकिन इस बीच एक राहत देती इंसानियत की खबर यह आई कि एक हिंदुस्तानी डॉक्टर को 110वीं जयंती पर चीन ने शिद्दत से याद किया। चीनी सरकार के विभागों ने ऑनलाइन सम्मेलन कर डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनीस (Dr. Dwarkanath Kotnis) को न सिर्फ श्रद्धां​जलि दी बल्कि उनकी सेवाओं को याद भी किया।

विदेशों के साथ दोस्ताना संबंध के लिए चीनी एसोसिएशन ने बीते रविवार को डॉ. कोटनीस की याद में कार्यक्रम किया, उसमें पेकिंग यूनिवर्सिटी (Peking University) के अधिकारी भी शामिल रहे। जब दूसरे विश्व युद्ध (II World War) की त्रासदी का समय था और जब माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीनी क्रांति हो रही थी, तब चीन में डॉ. कोटनीस ने स्वास्थ्य सेवाएं देकर चीनी लोगों का ही नहीं, दुनिया का दिल जीता था। चीन के लिए कठिन समय में कोटनीस के योगदान को माओ तक ने सराहा था।

क्या यह दोस्ती की तरफ संकेत है?
डॉ. कोटनीस को याद करते हुए CPAFFC के प्रमुख लिन सोंगतियान ने कहा कि कोटनीस चीन के दोस्त थे। एक अंतर्राष्ट्रीय योद्धा थे और भारत व चीन के लोगों के बीच एक सूत्र बने थे। उनकी वैश्विक मानवीय भावना से प्रेरणा ली जाना चाहिए और एशिया में शांति व समृद्धि के रास्ते खोले जाना चाहिए। लिन ने कुछ और महत्वपूर्ण बातें भी कहीं, जिन्हें संकेत रूप में समझा जा सकता है। “ऐसे दौर में, जब भारत और चीन के बीच टेंपरेरी मुश्किलें पेश आ रही हैं और दुनिया कई तरह के बदलावों से गुज़र रही है, कोटनीस की जयंती पर इस तरह का कार्यक्रम किया जाना अपने आप में उल्लेखनीय हो जाता है।”

क्या है डॉ. कोटनीस की अमर कहानी?
चीन के कुछ शहरों में डॉ. कोटनीस की प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं, जब माओ ने उनके योगदान को सराहा था। असल में, 1910 में महाराष्ट्र के शोलापुर में जन्मे डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस 1938 में भारत से चीन भेजे गए उस दल के प्रतिनिधि थे, जिसे चीन में स्वास्थ्य सेवाओं में मदद के लिए भेजा गया था। उस वक्त चीनी क्रांति और विश्व युद्ध के चलते घायल चीनी सैनिकों के इलाज के लिए काफी संकट खड़ा हो गया था। हालांकि इस दल में भेजे गए बाकी डॉक्टर भारत लौट आए थे, लेकिन डॉ. कोटनीस 1942 में चीन में ही आखिरी सांस तक घायल चीनी सैनिकों का इलाज करते रहे। कहा जाता है कि 1942 में मृत्यु से पहले कोटनीस ने चीन में कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) जॉइन कर ली थी, लेकिन इस बात का कोई पुख्ता रिकॉर्ड नहीं मिला।

कैसे चीन पहुंचे थे डॉ. कोटनीस?
जापानी सेनाओं की चीन में घुसपैठ के बाद 1938 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल झू डे ने जवाहरलाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) से गुज़ारिश की थी कि कुछ भारतीय डॉक्टरों को चीन भेजा जाए। उस वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) के अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandr Bose) ने प्रेस के ज़रिये एक खुली अपील जारी की। 22000 रुपये का फंड, एक एंबुलेंस जुटा ली गई।

नेताजी ने एक लेख लिखकर चीन पर हमले के लिए जापान की आलोचना भी की थी। यह आज़ादी के लिए लड़ रहे एक देश की तरफ से ऐसे ही दूसरे देश को मदद किए जाने का उपक्रम था। 1939 में नेहरू के चीन दौरे के बाद डॉक्टरों को भेजे जाने का मिशन परवान चढ़ा। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेज़ों के हिसाब से कोटनीस जनवरी 1939 में यनान पहुंचे थे।

कोटनीस के चीन के साथ रिश्ते
उत्तर चीन में जापान के खिलाफ तैयार बेस में पहुंचकर, सर्जिकल विभाग के प्रमुख के तौर पर आर्मी जनरल अस्पताल में कोटनीस ने सेवाएं दी थीं। मेडिकल सहयोगी स्टाफ गुओ किंगलैन वहां कोटनीस के चीनी भाषा ज्ञान और सेवा के जज़्बे से प्रभावित थीं। दोनों की शादी हुई और हिंदुस्तानी व चीनी परंपरा के जोड़ से दोनों ने अपने अपने बेटे का नाम ‘यिनहुआ’ रखा था।

लगातार 72 घंटे तक किए थे ऑपरेशन
जापान और चीन के बीच एक युद्ध के समय 1940 में डॉ. कोटनीस ने ​बगैर सोए लगातार 72 घंटों तक ज़ख्मी सैनिकों के ऑपरेशन किए थे। रिकॉर्ड के हवाले से ये भी कहा जाता है कि युद्ध के दौरान कोटनीस ने 800 से ज़्यादा सैनिकों का इलाज किया। ‘वन हू डिड नॉट कम बैक’ (One Did Not Come Back) शीर्षक से कोटनीस की जीवनी छपी और 1946 में एक हिंदी फिल्म बनी ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ और वो वाकई अमर हो गए। चीन के कुछ शहरों में न ​केवल उनकी प्रतिमाएं स्थापित हुईं, शिजियाझुआंग (Shijiazhuang) में मेडिकल स्कूल का नामकरण उनके नाम पर हुआ। कोटनीस की यादों से जुड़ी चीज़ें अब भी हेबेई प्रांत में सुरक्षित रखी गई हैं।

मेडिकल स्कूल से अब तक करीब 45 हज़ार मेडिकल ग्रैजुएट निकल चुके हैं और परंपरा है कि इस स्कूल के सभी छात्र और स्टाफ कोटनीस के स्टैचू के सामने कसम खाते हैं कि वो भी ‘कोटनीस की तरह’ सेवा करेंगे। मेडिकल स्कूल के एक अधिकारी लिउ वेंझू ने कहा कि कोटनीस को भारत और चीन के बीच एक आत्मीय संबंध के तौर पर हमेशा याद रखा जाएगा।

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