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भगवान बुद्ध और सनातन दर्शन के अन्तर्सम्बन्ध

– गिरीश जोशी

भगवान बुद्ध और बौद्ध पंथ के विषय में अनेक विमर्शों के माध्यम से सनातन और बौद्ध दर्शन के बीच मतभिन्नता का अस्तित्व खड़ा किया गया है। इस विमर्श से हटकर एक अलग दृष्टिकोण से भगवान बुद्ध और सनातन दर्शन के अन्तर्सम्बन्धों को देखने का प्रयास करते हैं।

भारत देश की विशेषता है, जब-जब समाज धर्माचरण के मार्ग से विचलित हो जाता है, सनातन के शाश्वत सिद्धांतों की समाज को विस्मृति हो जाती है, समय काल परिस्थितिवश सामाजिक व्यवस्था में धर्म का त्रुटिपूर्ण विवेचन होने लगता है इस कारण से विभिन्न प्रकार की जटिल समस्याएँ सामाजिक जीवन में व्याप्त हो जाती है, तब-तब इन व्यवस्थाओं को ठीक करने के लिए उच्चस्तर की चेतना का धरती पर अवतरण होता है। इस प्रकार अवतरित हुई चेतनाओं को ही अपने यहां अवतार कहा गया है। सृष्टि परिचालन की व्यवस्था के बारे में सनातन दृष्टि में ब्रह्मा- सृजन, शिव-विसर्जन और विष्णु पालन का काम करते हैं। जिसके पास व्यवस्थाओं के संचालन का काम होता है उसे ही व्यवस्थाओं में आने वाली गड़बड़ी को ठीक करने का भी दायित्व वहन करना पड़ता है। इसलिए जब भी व्यवस्था तंत्र में किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता होती है उस समस्या की प्रकृति के अनुसार उसे ठीक करने के लिए भगवान विष्णु एक अलग अवतार में विलक्षण दृष्टिकोण के साथ हमारे मध्य उपस्थित होते हैं। भगवान बुद्ध की मूल चेतना को आद्य शंकराचार्यजी ने पहचाना था। इसलिए उन्होंने भगवान बुद्ध को दशावतार में एक अवतार माना है।

भगवान बुद्ध की उच्चस्तरीय चेतना को आचार्य शंकर ही पहचान सकते थे। यहाँ हम बौद्ध दर्शन और सनातन परंपराओं के बीच किस प्रकार का संबंध है, उसका विचार करेंगे। भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित मार्ग में त्रिरत्न बुद्ध, धर्म और संघ, दिए गए हैं। सनातन में भी तीन योगों का प्रावधान है- कर्म योग, भक्ति योग एवं ज्ञान योग। बुद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य हैं। आर्य सनातन परंपरा का गुणवाचक विशेषण है। सनातन में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। बुद्ध दर्शन में पंचशील है-1.झूठ न बोलना 2. हिंसा न करना 3. चोरी न करना 4. व्यभिचार न करना 5. नशा न करना। सनातन परंपरा में पाँच यम है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह। भगवान बुद्ध ने अष्टांग मार्ग सम्यक्दृष्टि, सम्यक्, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्म, सम्यक्आजीविका, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समाधि का प्रवर्तन किया । सनातन परंपरा में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि अष्टांग योग के माध्यम से सत्य को जानने का मार्ग बतलाया गया है। दोनों मार्गों का लक्ष्य समाधि ही है।

सनातन परंपरा में साधना के लिए चार साधन चतुष्टय- नित्यानित्यवस्तुविवेक,वैराग्य, षट्सम्पत्ति का अर्जन तथा मुमुक्षता और छः संपत्ति -शम,दम,श्रद्धा,समाधान,उपरति और तितिक्षा कुल दस बातों का साधक में होना जरूरी बताया गया है तो बौद्ध दर्शन में दस परिमिताएं – दान,शील,नैष्क्रम्य, प्रज्ञा, वीर्य, शांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा को आवश्यक बताया गया है।

भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में कभी वेदों का विरोध नहीं किया लेकिन उस समय वे लोग जो वेदों का त्रुटिपूर्ण प्रतिपादन कर मनमाने कर्म जैसे हिंसा तथा पशुबलि जैसी कुप्रथा मे लिप्त हो गए थे उनका विरोध किया था। भगवान बुद्ध की संकलित वाणी सुत्तनपात 292 में लिखा- ”विद्वा च वेदेहि समेच्च च धम्मं, न उच्चावचं गच्छति भूपरिपञ्ञे। ”इसका अर्थ पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड अपने ग्रन्थ “वेदों का यथार्थ स्वरूप” में करते हैं- ”जो विद्वान् वेदों द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। उसकी ऐसी डांवाडोल अवस्था नहीं होती।” “धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा। अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।।“ (धम्मपद पृ. 114-15) अर्थात् धर्म में आनन्द मानने वाला पुरुष अत्यन्त प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। पण्डितजन सदा आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं। न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद पृ. 140-141) अर्थात् न जन्म के कारण, न गोत्र के कारण, न जटा धारण के कारण ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जिसमें धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।

भगवान बुद्ध ने विपश्यना नामक साधना की तकनीक को वेदों से ही प्राप्त कर पुनः प्रतिस्थापित किया और उसके माध्यम से साधना कर बुद्धत्व को प्राप्त हुए। अखिल सृष्टि के सत्य स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं-“सब्बो पज्जलितो लोको,सब्बो लोको पकंपितो” अर्थात मुझे सृष्टि का माया से अनावृत सत्य स्वरूप ये दिखा की सारा लोक ‘पज्जलित’ यानी प्रकाश के स्वरूप में है और सर्वत्र मात्र ‘पकंपन’ यानि केवल तरंगे ही तरंगे है। इस सृष्टि का वास्तविक स्वरूप प्रकाश और तरंगे मात्र है। हमें दृश्यमान स्वरूप में जो जगत दिखाई पड़ता है वो उस प्रकाश तथा तरंगों की घनीभूत अभिव्यक्ति है,वह वास्तविक नहीं है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा था-“ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह।” भगवान बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर कहा- “अत्ताहि अत्तनो नथो को हि नाथो परो सिया अत्तनां व सुदन्तेन,नाथं लभति दुल्लभं।“ अर्थात मैं स्वयं अपना स्वामी हूँ। सुयोग्य पद्धति से जानने के प्रयास करने पर ‘नाथं लभति दुल्ल्भं’ से दुर्लभ नाथ (ब्रम्ह) पद प्राप्त होता है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने महावाक्य में अभिव्यक्त किया- “अहम् ब्रह्मास्मि।”

दोनों का गंतव्य एक ही था केवल मार्ग अलग था। भगवान बुद्ध के मन में दु:खों के कारण का निवारण विचार था। भगवान बुद्ध के अनुसार हमारे दु:खों का कारण हमारा इस जगत के व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य, विचार आदि के प्रति अनुराग या द्वेष होता है। बुद्ध के अनुसार ये सारी चीजें अनित्य हैं जो पल-प्रतिपल समाप्त ही हो रही है, प्रिय के प्रति अनुराग और अप्रिय के प्रति द्वेष हमारे दु:खों का कारण बनता है। इसलिए बुद्ध ने इस संसार की हर बात को अनित्य प्रकृति का होने के कारण उस पर सकारात्मक अथवा नकारात्मक किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया ना कर अस्तित्व को “शून्य” के रूप में स्वीकार कर तटस्थता के मार्ग का अनुसरण किया और सत्य तक पहुंचे। इस संबंध में आदि गुरु शंकराचार्य के दृष्टिकोण को देखें तो इस विश्वप्रपंच को देखकर उनके मन में प्रश्न उठे- “कस्तवम कोSहम कुतः अयात, को में जननी को में तात:” यानि में कहाँ और क्यों आया हूँ? मेरे वास्तविक माता-पिता कौन है? मेरे यहाँ आने का उद्देश्य क्या है? इस सृष्टि का रहस्य क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए वे भी वेदों में वर्णित “अनंत” की साधना का अनुसरण कर सत्य तक पहुंचे।

सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में ‘शून्य’ और ‘अनंत’ के बीच भारी अंतर है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता। लेकिन सृष्टा जो कि अनादि और अनंत है उसकी दृष्टि से देखें तो उसके लिए शून्य और अनंत एक ही रस्सी के दो छोर जैसे ही हैं। गणित के विद्यार्थियों को शून्य और अनंत का संबंध बड़ी आसानी से समझ में आता है। यदि किसी भी संख्या को शून्य से भाग दिया जाए तो परिणाम अनंत प्राप्त होता है और यदि किसी संख्या को अनंत से भाग दिया जाए तो परिणाम में शून्य प्राप्त होता है।

इसका अर्थ है अर्थ है यदि हम शून्य का विचार लेकर चलें या अनंत की परिकल्पना को लेकर आगे बढ़े अंततोगत्वा इस सत्यान्वेषण की प्रमेय का हल “परमसत्य” के रूप में ही प्राप्त होगा। इसी देश के सत्यान्वेषी मनीषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा है- “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।“ भगवान बुद्ध इस देश में अवतरित हुए “विप्र” श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ महात्माओं में से एक हैं जिन्होंने उसी सनातन सत्य को एक अलग मार्ग से खोज कर दुनिया के सामने रखा है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव हैं।)

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