वो हमें बेच रहे थे…और खुद का कानून बनाकर बेच रहे थे…सदन में नोट लहराते रहे… बिकने की ताकत दिखाते रहे…एक पार्टी से चुनकर जाते रहे…दूसरी पार्टी से वफा दिखाते रहे… हमारे वोट की ताकत को अपनी ताकत बनाकर नोट कमाकर इठलाते रहे…सरकारें बनाते-बिगाड़ते रहे और खुद माननीय कहलाते रहे…ऐसे भ्रष्ट और बिकाऊ नेताओं ने अपना खुद का बनाया कवच पहन रखा था… इस कवच पर लिखा था- मैं जनता के वोट से चुना गया ऐसा नेता हूं, जिसे नोट लेने का अधिकार है… देश की विधानसभा हो या लोकसभा मेरे भ्रष्टाचार को शरण देने वाली ऐसी गुफा है, जहां कानून के हाथ भी नहीं पहुंच पाएंगे…मैं बिक सकता हूं…मैं डिग सकता हूं…मैं खरीदा जा सकता हूं… मैं बेचा जा सकता हूं…अपने वोट को नोट की ताकत से बिकते देख जनता बेबस थी…जनता तो जनता राजनीतिक दल भी अपने नेताओं की इस दगाबाजी पर मन-मसोसकर रह जाते थे… जिसकी ताकत उसकी हिमाकत…जिसको दरकार उसकी सरकार… सब कुछ चल रहा था, क्योंकि कानून ने ही अपनी कलम से अपने हाथ काट लिए थे…30 साल पहले उच्च न्यायालय के एक फैसले ने इसे माननीयों का विशेषाधिकार बना डाला था और भ्रष्टाचार का कवच पहना दिया था…पहले सरकार बनाने के लिए माननीय बिकते रहे…फिर प्रश्न पूछने तक के पैसे लेने लगे और सदन के घेरे में खुद को महफूज रखने लगे…मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आया…देश को चलाने वाले लोगों की हिमाकतों पर सवाल उठाया और फिर ऐसा फैसला आया कि माननीयों का कवच चूर-चूर हो गया…अब बिकाऊ नेताओं पर नियंत्रण लगेगा…प्रकरण भी बनेगा और केस भी चलेगा…हालांकि एक सवाल अब भी बना रहेगा कि जो बिकेगा उसका प्रमाण कैसे जुटेगा…और प्रमाण नहीं जुटेगा तो केस चलना तो दूर प्रकरण तक नहीं बनेगा…नेता अब और सजगता दिखाएगा…नोट सदन में नहीं लहराएगा…खुद को बिकाऊ नहीं बताएगा… लेकिन जनता को नजर आएगा, जब वोएक दल का होकर दूसरे दल से वफा दिखाएगा… सवाल नोट के बदले वोट तक ही सीमित नहीं रह जाएगा, स्वार्थ के लिए खुद को बेचने वाला गुनहगार तब भी बच जाएगा…
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