ब्‍लॉगर

आदिवासी एवं हिन्दू धर्म

– एड. हिम्मत तावड़

देश में सैकड़ों विभिन्न जनजातियां मौजूद हैं और उनके अपने रीति-रिवाज हैं लेकिन वे आदिवासी धार्मिक प्रथाओं और सनातन धर्म के बीच प्रकृति पूजा (पेड़, पशु, नदी, सूर्य, चंद्रमा आदि) की तरह कई समानताओं के कारण सनातन धर्म का अभिन्न अंग हैं। हमारे दक्षिणी राजस्थान के आदिवासियों में सनातन हिन्दू धर्म की अन्य जातियों की तरह समान गोत्र में विवाह नहीं होते हैं तथा हमारे गांवों में प्रत्येक गोत्र के अलग-अलग देवरा (मंदिर) मौजूद हैं। इनमें भैरूजी, चामुंडा मां, अम्बे मां, रामदेवजी, महादेवजी, गणेशजी एवं कुलदेवी की मूर्तियां स्थापित हैं। यहां वर्ष में एक बार रात्रि जागरण के बाद सुबह पूरी गोत्र के लोग शामिल होकर चूरमे का भोग लगाकर पूजा-पाठ करते हैं तथा भोपे (पुजारी) वहां आने वाले दर्शनार्थियों व मन्नत मांगने वालों को पूजा कराकर आशीर्वाद देते हैं।

रात्रि जागरण के समय पाण्डव-कौरव, रामायण के प्रसंगों तथा देवी-देवताओं के आह्वान के गीत महिलाओं एवं पुरुषों के द्वारा श्रद्धा भाव से गोला बनाकर नृत्य करते हुए गाये जाते हैं। पूजा पद्धति भी हम आदिवासियों में हिन्दू धर्म की ही रीति-नीति से होती है। हमारे देवरों में आने वाले दर्शनाथियों के तिलक लगाये जाते हैं। वहां पर नारियल भी वधेरा (फोड़ा) जाता है, उस नारियल के साथ बिल्व पत्र को तोड़कर उसमें मखाने भी जाते हैं। इन सबको प्रसाद के रूप में भगवान का आशीर्वाद मानकर सभी में वितरित किया जाता है। बिल्व पत्र भगवान शंकर को भी चढ़ाया जाता है।

हमारे 102 वर्ष के दादाजी मालाजी को मैंने पूछा कि ये देवरा (मंदिर) की पूजा हम कब से करते हैं? तो उन्होंने मुझे बताया कि अपना जो देवरा (मंदिर) है वह जादूओं के समय का है। इसका मतलब हम यह समझ सकते हैं कि ये पूजा पद्धति कई पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही है। हमारे यहां छोटे बच्चों के चोटी रखने की परम्परा है। जो बच्चा परिवार में बड़ा होता है उसकी चोटी रखी जाती है, जब वह विवाह करता है उससे पूर्व उसके मामा के वहां, गांव वाले व उसके माता-पिता उसको सजा-धजाकर गीत गाते हुए लेकर जाते हैं। वहां स्थानीय कुलदेवी की प्रतिमा के समक्ष मामा पूजा-अर्चना कर चोटी के बाल काट कर अर्पित करते हैं। उसके बाद ही लड़के का विवाह सम्पन्न होता है। इसे हम विवाह होने तक ब्रह्मचर्य के पालन से जोड़ सकते हैं।

हम आदिवासियों में विवाह के समय दूल्हा या दुल्हन के घर हल्दी रस्म के समय अड़ोस-पड़ोस के लोगों को बुलाया जाता है। दूल्हा या दुल्हन की मां थाली में दीपक लेकर आगे होती है। दूल्हा या दुल्हन के ऊपर सफेद वस्त्र लोग आगे पीछे पकड़कर चलते हैं। पुरुष ढोल बजाते व महिलाएं गणेशजी के आवाहन के गीत गाते हुए खेत की तरफ जाते हैं। खेत की पवित्र मिट्टी का अगरबत्ती व दीपक से पूजन किया जाता है। उसके बाद उस पवित्र मिट्टी से गणेश बनाकर वापस आदर व श्रद्धा के साथ ढोल बजाते हुये घर पर लाकर गणपति स्थापना की जाती है।

उसी गणपति स्थापना के सामने दूल्हा या दुल्हन को श्रद्धा व पवित्र मन से नीचे जमीन पर सोना होता है। जब तक सात फेरे नहीं हो जाते हैं तब तक खाट पर नहीं सो सकते तथा रात्रि में लोग इकठ्ठे होकर देवी-देवताओं के आवाहन के गीत जैसे- ‘चावल मेलो कौरवोअे पांडवोअें, चावल मेलो हस्तीनापुर मां, चावल मेलो नव लाख देविओं..’ तथा रामायण आदि के गीत गाये जाते हैं। जब तक दूल्हा या दुल्हन पीठी बैठे हुए होते हैं तब तक रोजाना सुबह 5 बजे आरती के समय देवी-देवताओं के आवाहन का ढोल बजाया जाता है तथा गणेश जी की पूजा की जाती है। शादी में अग्नि के समक्ष सात फेरे लिये जाते हैैं तथा सात फेरे लेने के बाद पंचों की जाजम पर जहां दुल्हन के घर बारात गई है उस गांव के जितने भी देवरे-मंदिर-देवी-देवता हैं, उन सबके लिये नारियल दिये जाते हैं, ध्वजा व भगवान के लिए भोग-प्रसाद-सामग्री के लिये राशि भी दी जाती है।

हमारे आदिवासी समाज में मृत्यु होने पर अग्नि संस्कार के बाद बारहवें के समय मृतक की मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्ति स्थापना के समय हमारे आदिवासी भोपे या महाराज मंत्रों के माध्यम से पांच पंचों की सहायता से मूर्ति की स्थापना करते हैं। उस समय सारे ही हिन्दू देवी-देवताओं को मंत्रों के माध्यम से आवाहन किया जाता है तथा पानी से उसको स्नान कराकर पवित्र किया जाता है। अस्थि विसर्जन भी हमारे आदिवासियों में तीन नदियों के संगम गुणभागरी महादेव पर करने की परम्परा है। गुजरात व राजस्थान के ज्यादातर आदिवासी वहीं आते हैं। कुछ आदिवासी बेणेश्वर बांसवाड़ा में अस्थि विसर्जन करते हैं। कुछ आदिवासी माउंट आबू की नक्की झील में अस्थि विसर्जन करते हैं। इस प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में अलग स्थानों पर अस्थि विसर्जन किया जाता है जबकि आर्थिक रूप से सक्षम आदिवासी हरिद्वार भी जाते हैं।

हम आदिवासी समाज पौराणिक काल से दीपावली-होली-रक्षाबंधन-नवरात्रि-दशहरा मनाते आ रहे हैं। दीपावली के समय हमारे लोग गौ-माता को नहला-धुलाकर धनतेरस के दिन उनकी पूजा करते हैं। दीपावली के दूसरे दिन बैलों व गायों को नयी रस्सी के बने हुये जोरकी व मोरली (माला) पहनाकर सुंदर-सुंदर रंगों से रंगते हैं और नारियल फोड़कर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हमारे गौ-धन को सुरक्षित रखें। हमारे आदिवासियों में शादी-ब्याह-मरण-मौत तथा दैनिक बोलचाल में एक-दूसरे से मिलने पर अभिवादन पौराणिक काल से ही ‘राम-राम’ है। हमारे मेवाड़ के आदिवासी भीलों में बहुत प्रसिद्ध लोक उत्सव गवरी है जिसे अब लोकनाट्य कहा जाने लगा है। गवरी में कई पीढ़ियों से हमारे पूर्वज महादेव व मां पार्वती को सवा महीने तक श्रद्धा भाव से पूर्णतः ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पूजा-अर्चना-आराधना करते हैं। इसमें कई प्रसंग होते हैं जिनका गांव-गांव में जाकर प्रमुख चौक-स्थलों पर मंचन किया जाता है। इसे रामलीला, कृष्णलीला की तरह महादेव-पार्वती लीला के रूप में भी समझा जा सकता है।

हमारे गांवों में कोई व्यक्ति देवी-देवता की कुदृष्टि से बीमार हुआ हो उस प्रकार की मानसिकता से ग्रसित होने पर गांवों में भोपों व महाराज होते हैं, उनके पास जाते हैं तो वह मक्की के दाने देखकर कौन से देवता की कुदृष्टि है या देवता नाराज हैं, ये पता लगाकर मंत्र करते हैं। उन मंत्रों में हनुमानजी की कसम, महादेव जी कसम, वीर बावजी की कसम, भैरूजी की कसम, मां अम्बा की कसम तथा विभिन्न देवी-देवताओं के नामों का जप करते हुए मंत्र पढ़े जाते हैं। आधुनिक दुनिया का विज्ञान इसे कुछ भी कहे, लेकिन आस्था और विश्वास से जुड़ी यह परम्पराएं आदिवासी समाज में स्थान रखती हैं, इसे मानसिक संतुष्टि और व्यक्ति के आत्मविश्वास को स्थापित करने की प्रक्रिया के तौर पर अध्ययन किया जाना चाहिए।

सतयुग 17,28000 वर्षों का बीत गया उसमें स्वयं महादेव ने भील का अवतार धारण किया था। हमारा आदिवासी भील समुदाय अपने आपको भगवान शिव का वंशज मानता है। आदिवासियों को रामायण और महाभारत में एक सम्मानजनक स्थान मिलता है। रामायण लिखने वाले वाल्मीकि भी भील समाज से हैं, वह रामायण लिखने से पूर्व वालिया डाकू के नाम से जाने जाते थे। त्रेतायुग 19,96000 वर्षों का बीत गया, उस समय रामायण के युद्ध में भगवान श्रीराम व लक्ष्मण के साथ कोई राजा या महाराजा नहीं लडे़ थे बल्कि उस पूरे युद्ध में आदिवासी लड़े थे। महाबली हनुमान-माता सबरी, निषादराज जैसे महान वनवासी या आदिवासी उस समय हुए हैं। उनके द्वारा उस युग में सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए किये गये महान कार्याें के कारण दुनिया उनको हिन्दू धर्म में प्रथम पूजनीय देव के रूप में विशाल मंदिर बनाकर उनकी आरती करती है, उनकी पूजा की जाती है। हजारों किलोमीटर दूर से लोग उन स्थलों पर तीरथ के लिए जाते हैं। भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के समय उस समय एक मात्र आमंत्रित अतिथि निषादराज थे।

द्वापरयुग 8,64,000 वर्षाें का बीत गया, उस समय महाभारत के युद्ध में कौरवों व पांडवों दोनों की तरफ से आदिवासी योद्धाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कौरवों की तरफ से महादेव भक्त राजा हिरण्य धनु का पुत्र एकलव्य लड़ा था, वह भील योद्धा था। अर्जुन का विवाह आदिवासी नागकन्या उलूपी से हुआ था एवं अर्जुन का एक अन्य विवाह मणिपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा से हुआ था। भीम का विवाह आदिवासी हिडिम्बा से हुआ था, उसका पुत्र घटोत्कच महाभारत के युद्ध में पांडवों की तरफ से लड़ा था। घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक हुए, जो आज भी खाटूश्यामजी के रूप में सर्वसमाज में पूजित हैं।

कलयुग के 4,32,000 वर्ष बीत चुके हैं, अभी हम कलयुग की यात्रा में हैं। आदिवासियों के इस कलयुग में भी बडे़-बड़े राज्य रहे हैं। राजा चम्पा भील का शासन चाम्पानेर पर था, इन्होंने 1300 भगोड़े राजाओं से युद्ध किया था। पावागढ़ की पहाड़ी पर दुर्ग था जिसे पवनगढ़ या पावागढ़ कहते हैं। वहां आज महाकाली का मंदिर स्थित है। सोमनाथ पर मोहम्मद गजनवी के आक्रमण के समय सोमनाथ की रक्षा के लिए वेगड़ा भील ने युद्ध करते हुए प्राणों की आहुति दे दी थी। वर्ष 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़ व सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए भगवे झंडे के नीचे हर-हर महादेव का नारा देते हुए राणा पूंजा भील के नेतृत्व में महाराणा प्रताप की सेना की तरफ से अकबर से छापामार युद्ध प्रणाली अपनाते हुए युद्ध किया था जिसमें अकबर को भी पीछे हटना पड़ा था। वर्ष 1857 की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई के साथ रानी झलकारीबाई भील समुदाय से थीं, जिसकी शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से हू-ब-हू मिलती थी। जब किले में रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों ने घेर लिया था उस समय रानी लक्ष्मीबाई के कपड़े पहनकर रानी झलकारीबाई ने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए युद्ध किया व अपने प्राणों की आहुति दे दी और रानी लक्ष्मीबाई को किले से बाहर निकाल दिया था।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) में भी आदिवासियों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग कहा गया है। हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 2 में भी यह परिभाषा दी गई है। यह नियम उन सभी लोगों पर लागू होता है कि जो हिन्दू आस्थाओं से जुड़ा हुआ है। भारत के आदिवासियों पर भी यह अधिनियम लागू होता है, परन्तु कुछ मामलों में धारा 29 के अन्तर्गत आदिवासियों को अपनी रूढ़ियों व प्रथाओं के अधीन कुछ मान्यताएं विशेष दी गई हैं। सन 2011 की जनगणना में 96 प्रतिशत आदिवासियों ने अपने आपको धर्म के कॉलम में हिन्दू दर्ज करवाया है।

बीते 5 वर्षों से भारत के कुछ जनजाति क्षेत्रों में यह आवाज सुनाई दे रही है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। इस प्रकार की आवाज भारत के झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे जनजाति क्षेत्र के कुछ लोगों की उपज है जो लम्बे समय से ईसाई मिशनरियों व उनके संस्थानों तथा संगठनों में रहकर सनातन संस्कृति व भारत के विरुद्ध धर्मांतरण में लगे हुए हैं। जबकि, युगों-युगों से आदिवासी हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। हमारे इतिहास के आईने में तथा पूर्वजों द्वारा स्थापित संस्कारों को देखने पर यही परिलक्षित होता है कि हम सनातन संस्कृति के मूल संरक्षक रहे हैं। हमारे जनजाति समाज के युवाओं को इस प्रकार की भाषा बोलने वाले लोगों को समझाकर उनको सही प्रत्युत्तर देने की आवश्यकता है।

आदिवासियों का हिन्दू धर्म व संस्कृति में महान योगदान है। कुछ विशेष प्रथाओं व रूढ़ियों की विशिष्टता के कारण आदिवासियों को संविधान के सारे नियम व कानून सीधे लागू नहीं कर कुछ विशेष छूट के तहत लागू होने की बात कही गई है। इसका कारण यह है कि परम्पराओं व पवित्र प्रथाओं-आस्थाओं का संरक्षण हो, उनका लोप नहीं हो। इस कारण संविधान में यह प्रावधान भी किया गया है कि आदिवासी समाज पर धीरे-धीरे हिन्दू समाज के नियम ही लागू करने के लिए केंद्र सरकार समय-समय पर नए गजट नोटिफिकेशन जारी करेगी, परन्तु अब तक जितनी भी सरकारें रहीं, उनमें से किसी भी सरकार ने हम आदिवासियों की तरफ ध्यान नहीं दिया। हमको सिर्फ पंचायत के खूंटे से बांधकर रखने का प्रयास किया गया है जो सही नहीं है। इससे हमारा संवैधानिक व कानूनी पहलू बहुत कमजोर हो चला है। उन कमजोरियों का अध्ययन करके आज इसका फायदा ईसाई मिशनरी व धर्मांतरण में लगी ताकतें उठा रही हैं। वे ही किताबों व कानूनों में से रास्ता निकाल कर कहते हैं, देखो आदिवासी हिन्दू नहीं है, हमारे युवा भी ज्ञान नहीं होने के कारण उनके भ्रम के कुचक्रों में फंसकर भेड़चाल जा रहे हैं।

जरूरी है कि हम इतिहास के पन्नों को टटोलें, जब देखेंगे तो सामने आएगा कि आदिवासी सनातनी हिन्दू समाज का महत्वपूर्ण स्तम्भ है। समय रहते संविधान के अनुच्छेद 342 में संशोधन किया जाकर हमारी परिभाषा अनुसूचित जाति की तरह स्पष्ट की जानी चाहिए। स्पष्ट हो कि जो आदिवासी हिन्दू आस्थाओं को त्याग देगा उसे अनुसूचित जनजातियों का संविधान प्रदत्त लाभ नहीं मिलेगा। इसके बाद गुमराह होने की गुंजाइश नहीं रहेगी।

(लेखक, उदयपुर जिले की आदिवासी बहुल कोटड़ा तहसील के निवासी भील आदिवासी समाज से हैं।)

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