– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
केवल और केवल एक साल की अवधि में ही अमेरिकी राष्ट्र्पति बाइडन की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। एक सर्वे के अनुसार मात्र 11 प्रतिशत अमेरिकी नागरिक, बाइडन के कार्यकाल को एक्सीलेंट की श्रेणी में रख रहे हैं तो 37 फीसदी लोगों ने उन्हें पूरी तरह से विफल राष्ट्रपति माना है। एक समय था जब बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप का विवादों से स्थाई नाता माना जाता था पर बाइडन के पिछले एक साल के कार्यकाल का विश्लेषण करने पर निराशा ही मिल रही है।
दरअसल बाइडन को सबसे अधिक अलोकप्रिय बनाने में अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले करने का निर्णय माना जाता है। माना जाता था कि बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप की तुलना में बाइडन अच्छे राष्ट्रपति सिद्ध होंगे पर जो एक कुशल प्रशासक और देशहित में कठोरतम निर्णय लेने की आशा बाइडन से अमेरिकी नागरिक लगाए बैठे थे उन्हें निराशा ही हाथ लगी है।
सर्वे के अनुसार तो अब उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की लोकप्रियता भी लगातार कम हो रही है। कारण साफ हैं पिछले एक दशक से लोगों की मानसिकता में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। इस दशक के लोगो को कठोर कदम उठाने वाले व्यक्तित्व की जरूरत हो गई है। आज दुनिया के देशों में एक नजर घुमा कर देखेंगे तो कठोर निर्णय लेने वाले राष्ट्राध्यक्षों को हाथोंहाथ लिया जा रहा है। राष्ट्रवाद तेजी से फैला है। बल्कि यह कहो तो अधिक सही होगा कि आज अति राष्ट्रवाद का युग देखा जा रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण तो हिन्दुस्तान में ही देखा जा सकता है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दुनिया के देशों में उनके कठोर निर्णयों के कारण जाना जाने लगा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन से नाराजगी का एक बड़ा कारण अफगानिस्तान से सेना की वापसी है। अमेरिका ही नहीं अपितु दुनिया के अधिकांश देशों को अमेरिका का यह निर्णय लौट के बुद्धू घर को आए जैसा हो गया है। आज अमेरिका के इस निर्णय से तालिबानी विस्तारवादी ताकतों को मजबूत होने का अवसर मिला है तो दूसरी ओर अफगानिस्तानी नागरिक तालिबान के रहमोकरम पर आ गए हैं। न्यूजविक जैसे अखबार ने बाइडन की गिरती साख चिंता व्यक्त की है। अफगान नीति की विफलता या यों कहें कि अफगानिस्तान नीति में गलती किसी ने की हो पर सेना की वापसी से अमेरिकी और दुनिया के देश हताश हुए हैं।
सारी दुनिया पिछले दो सालों से कोरोना के नित नए वैरियंट से दो-चार हो रही है। कोरोना की पहली लहर हो या दूसरी या तीसरी जिस तरह से अमेरिका में संक्रमण और मौत का सिलसिला चला उससे भी बाइडन की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। पिछले एक साल में कोरोना से निपटने में भी बाइडन प्रशासन को विफल माना गया है। हालांकि कोरोना विश्वव्यापी महामारी है और भारत जैसे देश तीसरी लहर से दो-चार हो रहे हैं। ओमिक्रोन का असर जिस तरह से देखा गया उससे भी अमेरिकियों में निराशा ही देखी गई है। कोविड के कारण सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। इसमें दो राय भी नहीं पर महंगाई पर नियंत्रण नहीं होना भी बाइडन की विफलता का एक कारण माना जा रहा है। और भी ऐसे अनेक कारण हैं जिससे बाइडन का ग्राफ लगातार डुबकी लगाए जा रहा है।
दरअसल राष्ट्रपति बाइडन ने पिछले साल 6 जनवरी को दिए संबोधन में कहा था कि मैं राष्ट्र्पति पद की शक्ति में विश्वास रखता हूं और उसका उद्देश्य देश को एकजुट करना है। दरअसल इस संबोधन पर बाइडन खरे नहीं उतरे हैं, यह अमेरिकियों का मानना है। अफगानिस्तान पर निर्णय से कहीं ना कहीं अमेरिका की ताकत पर प्रश्न उठा है तो लोगों में निराशा ही आई है। एक शक्तिशाली देश जिस तरह से किसी देश को उसके रहमोकरम पर छोड़ आया है वह विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाता है। इससे चीन और रूस को भी एक संदेश गया है, जो अमेरिका के एकछत्र ताकत में आई कमी का संदेश है।
हालात सामने हैं। सर्वें रिपोर्ट्स चेताने वाली है तो डेमोक्रेट्स में निराशा भी आ रही है। अमेरिका के वर्चस्व में कमी साफ दिखाई देने लगी है। आखिर राष्ट्रवादिता के युग में कठोर निर्णय लेने वाले व्यक्ति की छवि कुछ और ही होती है। अमेरिका की अफगानिस्तान नीति को वहां के नागरिक मैदान छोड़कर भागने जैसा निर्णय मानते हैं। अभी तो पूरे पूरे तीन साल का समय है। ऐसे में बाइडन को अपनी छवि में सुधार लाना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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