ब्‍लॉगर

कांग्रेस खुद को बदल पाएगी ?

– ऋतुपर्ण दवे

कांग्रेस के लिए यह संक्रमण काल है। बहुत गहरा और अग्निपरीक्षा सरीखा। अक्सर राजनीतिक गलियारों में अब यह सवाल कौंधता है कि कांग्रेस बचेगी भी या नहीं ? ऐसे सवालों के पीछे भावनाएं भी अलग-अलग हो सकती हैं। राजनीति में भले ही इन सवालों के मायने कुछ भी निकाले जाएं लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से इसे सवाल नहीं भावनाओं की नजर से देखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि इस देश के मजबूत लोकतंत्र के पीछे सशक्त विपक्ष की पैनी नजर और उसे प्रोत्साहित करने की ईमानदार मंशा के अतीत के तमाम उदाहरण सबके सामने हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता। क्या देर-सबेर यह लोकतंत्र के लिए ही चुनौती बन सकेगा या फिर केवल कांग्रेस के लिए ?

भारतीय जनता पार्टी के अनेक वरिष्ठों द्वारा कई मौकों पर कांग्रेस को टुकड़े-टुकड़े गैंग कहने की कुछ वर्ष पुरानी शुरुआत सही लगने लगी है। मेरा ऐसा लिखने का अभिप्राय कांग्रेस की मुखालफत कतई नहीं है। बस इतना कि बदली हुई राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी परिस्थितियों के बीच कांग्रेस में वो इच्छाशक्ति या मजबूती नहीं दिख रही है जो इस वक्त दिखनी चाहिए थी। समय का यही तकाजा है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह सुकून की बात हो सकती है लेकिन लोकतंत्र के लिए नहीं। दुनिया के सबसे मजबूत और विशाल लोकतंत्र की मजबूती के लिए सशक्त विपक्ष जरूरी है। कांग्रेस में अब वो बात दिखती नहीं है और मजबूत होती क्षेत्रीय पार्टियों में नेशनल लीडरशिप को लेकर लड़ाई पहले दिख चुकी है। आगे भी दिखना तय है। सभी के एका की सोचना बेमानी होगी।

सच तो यह है कि हर किसी को लगने लगा है कि कांग्रेस किस दिशा में जा रही है और वह भी क्यों और कैसे ? इसका जवाब न तो कांग्रेस दे रही है और न ही देने को तैयार दिखती है। परिस्थितियों पर सबकुछ छोड़कर भी कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि यह सबकुछ परिस्थितजन्य भी तो नहीं है। पंजाब के घटनाक्रम के बाद भले कोई-सा भी कार्ड खेलकर कांग्रेस की सरकार बचा ली गई हो। लेकिन जो कुछ घट रहा है वह तेजी से सब तक पहुंच भी रहा है। लगता भी नहीं कि इससे पार्टी की बची-खुची साख पर बट्टा लगने से बचाया जा सकेगा। अब तो हवा का रुख भांपने के एक से एक तौर तरीके सामने हैं। उसके बाद कांग्रेस में 5 राज्य के चुनावों से 6 महीने पहले लिए गए फैसले जो दिखते कठोर जरूर हैं पर आम मतदाताओं के बीच कौन-सा संदेश दे रहे हैं, शायद इस पर भी आत्मचिन्तन नहीं किया गया होगा ? माना कि जातिगत कार्ड खेलकर कागजों और गणित के कतिपय राजनीतिक फॉर्मूलों से एन्टी-इन्कम्बेन्सी को मात देने की युक्ति की दुहाई दी जा रही हो पर पंजाब के मतदाताओं पर इसका क्या असर पड़ेगा इसको लेकर चल पड़ी हवा कब आंधी और देखते ही देखते तूफान में बदल जाएगी, कैसे इनकार किया जा सकता है ?

कमोबेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही यही कुछ घट रहा है। सत्ता का लालच और कुर्सी की होड़ के बीच भले ही शिगूफेबाजी हो, लेकिन नित नई बनती सुर्खियों और सत्ता के भावी बदलाव की झूठी-सच्ची हवाओं से एक स्थिर और आंकड़ों में मजबूत सरकार की चिन्ता बढ़ना अस्वाभाविक नहीं है। निश्चित रूप से ऐसी अटकलबाजियों से सरकार की मजबूती और भविष्य को लेकर कार्यप्रणाली और लेखा-जोखा से भी खास लहर बनती है जो बिना कहे उस सरकार के प्रति धारणा बना देती है। यह भी सच है कि कांग्रेस के पास एक हाथ की उंगलियों पर गिने जाने लायक राज्य बचे हैं। इसी को लेकर जितना अंर्तद्वन्द, खींचतान या सामंजस्य की कवायदें बाहर दिखती हैं वह 136 वर्ष पुराने इस संगठन में कभी दिखी, यहां तक कि आपातकाल में भी। अब तो यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि कौन किसका सिपहसलार है ? पार्टी के प्रति निष्ठा के मायने पुराने होते जाते हैं जो गुटों के प्रति निष्ठा में तेजी से बदल गए हैं। एक पार्टी और गुटों की भरमार का जो सच अब है वह शायद पहले कभी नहीं दिखा। क्षेत्रीय पार्टियों से भी बदतर हालात में कांग्रेस का सच भले ही भाजपा के लिए बूस्टर बनता हो लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से इसे अलग नजरिए से देखना ही होगा।

2022 की शुरुआत उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर यानी पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों से होगी और आधे मार्च बीतते-बीतते नई सरकार सत्तासीन होगी। वहीं साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव होंगे। इन चुनावों में कांग्रेस के लिए चुनौती जीतने से ज्यादा बेहतर करने की होगी। दिनों दिन और नित नए संकटों से गुजर रही इस सबसे बड़ी पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए साख से ज्यादा अस्तित्व का सवाल सामने मंडरा रहा है। एक ओर भले ही कांग्रेस बिखरी हो या कुनबे में एका न दिख रहा हो दूसरी ओर इन राज्यों में किनके दमखम पर उतरा जाएगा यह सबसे बड़ा सवाल है ? ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव, प्रियंका चतुर्वेदी अशोक तंवर, ललितेश पति त्रिपाठी जैसे राहुल के करीबियों के चले जाने के बाद नौजवानों के लिए हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी कितने प्रभावी होंगे यह तो वक्त बताएगा क्योंकि जो गए उनका कांग्रेस से वर्षों का बल्कि कहें पीढ़ियों का नाता रहा। जो आए वह अधिकतर दूसरे घरों से होकर आए हैं। जाहिर है ऐसे दौर में जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर युवाओं की जबरदस्त मौजूदगी रहती है तथा ट्रेन्ड और ट्रोल का जमाना है, युवा जिनके अच्छे खासे वोट हैं और ग्रुप्स हैं, बेलाग और बेबाक राय रखते हैं, किसके साथ होंगे ? यह भी भविष्य के गर्त में छुपा सवाल है।

इधर धरातल पर कांग्रेस की स्थित भई गति सांप छछूंदर केरी जैसी है। किसको छोड़े, किसको जोड़े? शायद यही वजह है कि चाहे देश हो या प्रदेश, जिला हो शहर या फिर गांव, कांग्रेस में बरसों बरस पुराने चेहरे ही दिखते हैं। जबकि आम जनमानस कांग्रेस में नए, पढ़े-लिखे, टेक्नोक्रेट को देखना चाहता है। शायद इस सच को कांग्रेस स्वीकार नहीं रही है जिस कारण एक तरह से कांग्रेस में नीचे से लेकर ऊपर तक कोई बदलाव दिखता ही नहीं है। ठीक उलट भाजपा और दूसरी तमाम क्षेत्रीय पार्टियां तक इस मनोवैज्ञानिक सच को स्वीकारते हुए प्रयोग भी करती रहती हैं। हाल ही में जहां प्रधानमंत्री मोदी ने कई कैबिनेट मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया तो गुजरात में रातोंरात मुख्यमंत्री बदल गहरा संदेश दिया। उसी तर्ज पर मजबूरी वश ही सही पंजाब में कांग्रेस ने चलने की कोशिश तो की लेकिन होम करते ही हाथ भी जला बैठी।

कांग्रेस भी बगावत के बीच बदलाव की कोशिश में दिखती जरूर है, पर क्या खुद को बदल पाएगी ? एक धारणा आम और खास यह भी कि 1990 में भारत की आबादी 87.33 करोड़ थी तब युवाओं का झुकाव कांग्रेस की तरफ था। आज भारत की आबादी 135 करोड़ पहुंच रही है और युवाओं तथा लोगों का झुकाव 1990 के मुकाबले बेहद कम और न के बराबर है। इस फर्क को या दूरी को कांग्रेस ने क्यों कभी समझने की कोशिश भी नहीं की ? आलम यह है कि जब भी किसी राज्य ने मौका दिया नहीं कि पहले ही खींचतान शुरू हो जाती है और नेताओं के साथ बिल में दुबके विज्ञप्ति वीर सक्रिय हो उठते हैं। बड़े-बड़े होर्डिंग और पोस्टर में सैकड़ों किमी दूर के मंत्री, विधायक जिनका उस क्षेत्र से कोई सरोकार नहीं है, उनकी तस्वीरें स्थानीय स्वनामधन्यों के नाम और गलबहियां करते चेहरों से पट जाती हैं। लोग लगातार वही-वही चेहरे और परदेशी नेताओं की यारी और चंद मुंह चिढ़ाने वाले नगर के असर हीन और स्वयंभू प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर का नेता कहलवाने वालों को तमाम महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति होता देख नाक-मुंह सिकोड़कर पछतावे का भाव लिए वक्त का इंतजार करने लगते हैं।

बस कांग्रेस को इसी सच को समझना होगा, सकारात्मक राजनीति और नए बदलाव, नए प्रयोग के साथ नए लोगों खासकर युवाओं से जुड़ना ही होगा। तभी मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष का तगमा लेकर ही सही, कांग्रेस भविष्य में कुछ कर पाएगी वरना जो चल रहा है, जैसा चल रहा है चलने दो की तर्ज पर कितनी और कहां तक सिमटेगी, शायद इसका अंदाजा किसी को न होगा और लोकतंत्र की जड़ों के साथ भी यह अन्याय ही होगा। कम से कम दो सशक्त और राष्ट्रीय दल, भारत जैसे देश के लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी थे, हैं और रहेंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Share:

Next Post

जयंती विशेषः रानी दुर्गावती से युद्ध में ही मारा गया था शेरशाह सूरी

Tue Oct 5 , 2021
– रमेश शर्मा रानी दुर्गावती को हम गोंडवाना की महारानी के रूप में जानते हैं। उन्होंने अकबर के आक्रमण का पुरजोर उत्तर दिया था। आखिरकार वह वीरांगना आसफ खाँ की उस कुटिल चाल का शिकार बनीं, जो उसने जबलपुर के नरई नाले पर रची थी। इसी स्थान पर रानी का बलिदान हुआ था। पर यह […]