15 दिसंबर यानी लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की पुण्यतिथि।सन 1950 की इसी तारीख़ को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं में शुमार सरदार पटेल का निधन हुआ था। विडंबना ये है कि पक्के गाँधीवादी और कांग्रेस नेता सरदार पटेल को आजकल कांग्रेस और ख़ासतौर पर नेहरू के ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश होती है। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी एक से ज़्यादा बार कह चुके हैं कि नेहरू के बजाय भारत के पहले प्रधानमंत्री सरदार पटेल होते तो तमाम समस्याएँ न होतीं। ऐसा अभियान कितना इतिहासविरुद्ध है इसको समझने के लिए आइये आपको इतिहास की सैर कराते हैं। भारत की आजादी का दिन करीब आ रहा था। मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी। 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा- ”कुछ हद तक औपचारिकताएँ निभाना ज़रूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूँ। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं।’
जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा- ” आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएँ बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएँ व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ।’ पटेल की ये भावनाएँ सिर्फ औपचारिकता नहीं थी। अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है।
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