ब्‍लॉगर

कांग्रेस पूरे देश में गुटबाजी से ग्रस्त

वीरेन्द्र सिंह परिहार
यूं तो कांग्रेस पार्टी और गुटबाजी का सम्बन्ध उसके जन्मकाल के कुछ वर्षाें के उपरांत ही चला आ रहा है, बीसवीं सदी के पहले दशक के उपरान्त ही कांग्रेस में गरमदल एवं नरमदल बतौर अलग-अलग गुट थे। देश की आजादी के बाद भी सरदार पटेल के जीवित रहते कांग्रेस में दो धड़े मौजूद थे। यद्यपि वामपंथी इतिहासकारों ने सरदार को दक्षिणपंथी तो नेहरू को वामपंथी रुझानों वाला साबित करने की कोशिश की है। पर इसमें कोई दो मत नहीं कि सरदार पटेल महान राष्ट्रवादी और तुष्टिकरण के विरोधी थे।
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के शुरुआती वर्षाें में कांग्रेस में समानान्तर गुटबाजी रही, जिन्हें सिंडीकेट और इंडिकेट कहा गया। यद्यपि 1969 में कांग्रेस के विभाजन के पश्चात यह गुटबाजी समाप्त हो गई, पर तब तस्वीर का एक दूसरा पहलू सामने आया। इंदिरा गांधी का कांग्रेस पार्टी में ही नहीं, पूरे देश में एक छत्रराज कायम हो गया था। इसलिये केन्द्रीय स्तर पर गुटबाजी का सवाल ही नहीं पैदा होता था पर राज्यों में गुटबाजी और ज्यादा प्रत्यक्ष व उग्र ढंग से देखने को मिलती रही। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी राज्यों में खुद इस तरह की गुटबाजी को बढ़ावा देती थीं, ताकि उस राज्य का मुख्यमंत्री अपना स्वतंत्र जनाधार कायम न कर सके और पूरी तरह उनके रहमो-करम पर निर्भर रहे। इसी नीति के तहत वह किसी भी मुख्यमंत्री को ज्यादा दिनों तक पद पर बने नहीं रहने देती थीं। आगे चलकर इंदिरा गांधी ने ऐसे बौनों को मुख्यमंत्री बनाना शुरू किया, जिनका कद उनके घुटनों के नीचे रहे और वह उनके पुत्र संजय गांधी के प्रति असंदिग्ध रूप से वफादार बने रहें।
कमोबेश राजीव गांधी के समय भी कांग्रेस में ऐसी ही स्थिति रही। यद्यपि नरसिंहराव के दौर में कांग्रेस पार्टी में गुटबाजी तो नहीं थमी, पर केन्द्रीय स्तर से उसको संरक्षण पहले की तरह नहीं मिला। वजह स्पष्ट थी नरसिंहराव न तो वंशवाद की उपज थे और न ही वंशवाद के आधार पर उनका कोई उत्तराधिकारी ही सामने था। सोनिया गांधी के दौर में पार्टी का पूरा एकाधिकार और सत्ता के सूत्र उनके पास होने से केन्द्रीय स्तर पर तो गुटबाजी का सवाल ही नहीं पैदा होता, परन्तु राज्यों के स्तर पर यह गुटबाजी पूर्ववत कायम रही।
यद्यपि यह भी बड़ा सच है कि सोनिया गांधी कम-से-कम इंदिरा गांधी तो थी नहीं, कांग्रेस का प्रभुत्व और प्रभाव भी उस दौर में पूर्व की भांति नहीं रह गया था। जहाँ भाजपा कांग्रेस के सामानान्तर सत्ता की प्रमुख दावेदार बन गई थीं, तो वहीं बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों ने राज्यों को अपने अधिपत्य में ले लिया था। यद्यपि इस दौर में कुछ राज्यों में कांग्रेस पार्टी के कुछ संभावनायुक्त नेता उभरे। उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजस्थान में सचिन पायलट और मुम्बई में मिलिंद देवड़ा इत्यादि। पर राहुल गांधी के नेतृत्व को सुरक्षित रखने के लिये इन युवा, गतिशील नेताओं को अपेक्षित महत्व नहीं मिल पाया जिसके चलते ज्योतिरादित्य कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गये और सचिन पायलट फिलहाल सार्थक विकल्प के अभाव में वक्त देख रहे हैं।
अभी जो पांच राज्यों में चुनाव नतीजे सामने आये, उसमें कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय झेलनी पड़ी। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद थी कि असम और केरल में सत्ता विरोधी फैक्टर के चलते सत्ता मिल सकती है। पर असम और केरल में सत्ता में आने की जगह वह पुनः विपक्षी पार्टी ही बनी रही। पाण्डुचेरी भी उसके हाथ से निकल गया तो बंगाल में जहां उसके 44 विधायक हुआ करते थे वहां वह शून्य बटे सन्नाटे में आकर ठहर गई है। ले-देकर तमिलनाडु का नतीजा जरूर उसके अनुकूल कहा जा सकता है, पर वहां भी सफलता डीएमके पार्टी की थी जिसमें कांग्रेस पार्टी की कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं कही जा सकती। ऐसी स्थिति में सोनिया गांधी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के नेतृत्व में जाँच कमेटी का गठन किया कि वह कांग्रेस पार्टी की पराजयों का विश्लेषण कर प्रतिवेदन दें। कमेटी ने अपने प्रतिवेदन में कांग्रेस में व्याप्त गुटबाजी एवं साम्प्रदायिक तत्वों से किये गए गठबंधन को कांग्रेस पार्टी के पराजय का मुख्य कारण माना। उदाहरण के लिए केरल में पार्टी ओमान चड्डी एवं रमेश चेन्नीथला दो नेताओं के गुटो में बंटी हुई थी। तो असम में एआईयूडीएफ और बंगाल में भी फुरफुरा शरीफ की पार्टी से गठबंधन होना पराजय का कारण माना गया। यद्यपि कांग्रेस पार्टी द्वारा यह कहा गया है कि उपरोक्त रिपोर्ट के आधार पर सुधारात्मक कदम उठाये जायेंगे लेकिन लाख टके का सवाल यह कि क्या यह संभव है ?
बड़ी सच्चाई यह क वर्तमान दौर में कांग्रेस पूरे देश में गुटबाजी से ग्रस्त है। स्थिति कि भयावहता यह है कि यह रोग अब केन्द्रीय स्तर पर जा पहुंचा है, जिसका उदाहरण गत वर्ष जी 23 बतौर कांग्रेस के कई नेताओं का वह बयान है जिसमें उन्होंने कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की मांग करते हुये कांग्रेस पार्टी में ऊपर से नीचे तक निर्वाचन कराने की मांग करने के साथ कांग्रेस में पूणकालिक अध्यक्ष एवं सामुहिक नेतृत्व पर जोर दिया गया था। स्पष्ट है कि इन नेताओं को यह पता चल चुका है कि सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी में मतदाताओं को आकर्षित करने की क्षमता का अभाव है, ऐसी दशा में उनका हीं नहीं, पूरी कांग्रेस पार्टी का भविष्य अंधकारमय है। इसलिये बहुत से कांग्रेसी वंशवाद के खूटे से कांग्रेस पार्टी को मुक्त करना चाहते हैं।
जहाँ तक गुटबाजी का सवाल है तो कांग्रेस पार्टी के लिये यही कहा जा सकता है कि गुटबाजी और कांग्रेस पार्टी एक-दूसरे के पर्याय है। पंजाब में अमरिंदर सिंह और सिद्धू लड़ रहे हैं, राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट में तलवारे खिंची हैं। मध्य प्रदेश में भी अजय सिंह जैसे नेता कमलनाथ के एकाधिकार के विरोध में उतर आये हैं। छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव के अपने-अपने खेमे हैं। महाराष्ट्र में चौथे नम्बर की पार्टी होते हुये भी कांग्रेस पार्टी कई खेमों में बंटी हुई है।
गौर करने की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी में इस गुटबाजी का मूल कारण क्या है ? इसका कारण है कांग्रेस पार्टी का विचारधारा-विहीन होना, पार्टी का राष्टबोध से रहित होना, इसका बड़ा कारण कांग्रेस में हावी ऊपर से नीचे तक व्यक्तिवादी एवं वंशवादी राजनीति है। वस्तुतः कांग्रेस जिस धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की बात करती है, वह क्षमाप्रार्थी धर्मनिरपेक्षता है, जो राष्ट्र की एकता और अखण्डता के लिये घातक है, जिसमें जिहादियों तक का तृष्टिकरण किया जाता है।
बड़ी समस्या यह कि कांग्रेस कितना भी कहे, पर उसमें कोई सुधार आने से रहा। वस्तुतः वह चुनाव लड़ने और सत्ता पाने की एक मशीनरी मात्र बनकर रह गई है, जिसे इस देश का जागरूक मतदाता समझ चुका है। किसी संगठन में सुधार या बदलाव ऊपर से होता है तभी प्रभावी होता है लेकिन यहां शीर्ष में ही कांग्रेस वंशवाद की बेल से जकड़ी हुई है, जिसमें बदलाव के आसार नहीं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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