ब्‍लॉगर

सरकार राजनीतिक लाभ-लोभ छोड़ खेती को जमीन पर उतारे


मृणाल पांडे

भारत में खेती का जन्म और विकास मनुष्यों की एक लंबी मिश्रित परंपरा ने दीर्घ अनुभव के आधार पर किया। इतने बदलावों के बीच भी जो टिकने लायक था, उसको सादर जस का तस छोड़ा गया। जो बदलाव योग्य था, उसे ही बदला गया। टिकाऊ थी हर इलाके की अपनी मिट्टी की सिफत, मौसमों का क्रम और जैव विविधता। बदलने योग्य थे कुछ जरूरी उपकरण, नए पेड़ों की प्रजातियां जो अलग- अलग प्रवासी कबीले परदेस से साथ लेते आए, क्यारियां बनाने के तरीके, संकरित फल-फूलों के बाग-बगीचे, उनमें प्रयोग चलते रहे, नई बाबत बनती गई।

आम तौर से इस क्रम में देश भर में शारदीय नवरात्रि खेतिहर समाज के लिए सालाना नयेपन की बड़ी खुशनुमा शुरुआत हुआ करती थी। नवरात्रि के नाना उत्सव उसका सामाजिक ऐलान करते थे। दनादन एक के बाद एक पर्व, मेले और सामाजिक सद्कार्य बच्चों, युवाओं और महिलाओं के लिए खुशी के द्वार खोल देते और नई फसल की आगमनी से तृप्त बड़े-बूढ़े उनका उत्साह और चहल- पहल देखते हुए आराम से कौड़ा तापते और नए-पुराने किस्से कहते-सुनते देर तक बैठकी लगाते थे। पर इधर कुछ समय से कार्तिक लगा नहीं कि उत्तर भारत के मैदानों में हवा का प्रदूषण लगाम तुड़ाकर भागने लगता है। सांस लेना दूभर, आंखों में तकलीफ, छोटे बच्चे और दमे के मरीजों की गत अलग खराब हो जाती है। सरकारी दबाव और जन चेतना के जहूरे से दीपावली पर पटाखे चलाना कम हुआ, पर गहरे प्रदूषण के स्रोत उससे कहीं बड़े स्रोत हैं और अफसोस कि वे सीधे उस सरकारी विकास के खाके से जुड़ी हुई हैं जो हर माल के अतिरिक्त उत्पादन और गैर जरूरी खपत से जुड़ा हुआ है। खेती भी उसके दायरे में आ गई और अस्वस्थ हुई है।

गुजरात और राजस्थान में खेती की बजाय पशुपालन को महत्व दिया गया था तो इसलिए कि वहां की भूमि और आबोहवा इसके लिए अनुकूल थी। फिर हरित क्रांति आई जिसने नहर सिंचित गंगा नगर इलाके को धान बोना सिखाया और इसके लिए जो सरकारी सब्सिडियां मिलती थीं, उनको देख कर गेहूं उत्पादक पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी धान की फसल बोई जाने लगी। हम मानें न मानें, उत्तरी मैदानों के सिंचित इलाकों में परंपरागत फसलों की बजाय धान की खेती का मसला जो पराली पैदा कराता है, सीधे सरकारी सब्सिडियों तथा खरीद से जुड़ा हुआ है। खुद को कृषक मित्र बतलाने के लिए नई तरह के बीज से लेकर रासायनिक उर्वरक और खरीद के दामों तक पर चुनाव-दर-चुनाव सब्सिडी बढ़ाने का सभी सत्तासीन सरकारें चुनाव काल में धुंआधार प्रचार करती हैं और किसानआंदोलनों का इतिहास उठा कर देख लें, अधिकतर खेती की कुल खपत मोल के हिसाब से खरीद के दाम तय कराने से सिंचित इलाकों में ही उपजते रहे हैं और चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकारों की बांह मरोड़कर वोट के बदले आरक्षण और सब्सिडी पाकर बिखर जाते हैं।

सस्ती रासायनिक खाद, मुफ्त बिजली-पानी और बाहर से आए तथा कथित उन्नत नस्ल के बीजों, छिड़काव की दवाओं को खुली अर्थव्यवस्था के परिदृश्य से और जोड़ दीजिए। इनके बीच रासायनिक संविलयन से जो घातक और दूरगामी बबाल उफन रहे हैं, उनपर न तो हमारे सरकारी वैज्ञानिक और न ही किसान आंदोलन के नेता किसी लंबी समग्र बातचीत की पहल करते दिख रहे हैं। की होती तो दक्षिण भारत के किसानों को दिल्ली तक पैदल चल कर धरने देने की जरूरत क्यों होती?

आज हमको लगता है कि धुआं उगलते संयंत्र, पक्के राजपथ, ओवरब्रिज, अंडरपास और लाखों मोटरों की आवाजाही महानगरों के विकास का प्रमाण हैं, इनके नित नए विस्तार की घोषणा सगर्व की जाती है कि देखो हमने इस नगर को नया टोक्यो या पेरिस बना दिया। सच तो यह है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु हमारा कोई महानगर नहीं जिसकी हवा लाखों वाहनों के आने-जाने और निर्माण कार्यों से फैल रही धूल से मलिन न हो। पंजाब और हरियाणा के समृद्धतर किसान पहले की तरह खेतों में खड़ी पराली का चारा या सोने का गद्दा नहीं बनाते। उसे खेत में पलीता लगा कर उसके धुएं के गुब्बार भी आस-पास के शहरों की तरफ रवाना कर देते हैं। मानव- निर्मित विकास का खाका जिसने दलों को चुनाव जितवा कर बड़े उपक्रमियों और सरकारों की तिजोरियां भर दी हैं, अब अधिक दिन तक मौसम की भौतिकी के नियम नहीं बदल सकता।

नतीजतन ठंड के मौसम में जब प्रदूषित हवा ऊपर नहीं उठ पाती तो शहर-गांव के हर अमीर-गरीब खासकर बच्चों, बूढों, श्वास रोगों के मरीज की जानपर बन आती है। फिर इस बरस तो कोरोना का कहर भी इस कष्टकारी फेहरिस्त से आन जुड़ा है। डॉक्टरों के अनुसार, प्रदूषण बढ़ा है इसलिए जाड़े आते ही रोग से मरने वालों की तादाद भी पहले से काफी बढ़ गई है।

भारत के गंगा-जमुनी इलाके में रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते इस्तेमाल, पशुपालन और खेती से जुड़ी डीजल चालित मशीनरी (कंबाइन हारवेस्टर, पावर प्लांट और पंपों आदि) का प्रयोग इसी विकास के सपने की तहत बढ़ा है। पर अब उनसे ही लगातार कार्बन उत्सर्जन होते-होते वातावरण में छोटे-छोटे कणों वाले सेकेंडरी पर्टीक्युलेट मैटर की मात्रा खतरनाक हद तक बढ़ गई है। जल, जमीन और पर्यावरण सब में खतरनाक अमोनिया की मात्रा तो इतनी बढ़ गई है कि शोध के अनुसार, भारत में चीन के बाद सबसे अधिक घातक अमोनिया हॉट स्पॉट बन गए हैं। बलिहारी उस विकास की जिसने कृषि को कार्बन उत्सर्जन का बड़ा उत्पादक और शिकार- दोनों बना डाला है। शहरी औद्योगिक इकाइयों का उत्सर्जन इससे जुड़कर धूप-ताप पर असर डाल रहा है और जानकारों का कहना है कि आगे जाकर धान तथा कपास-जैसी फसलों की तादाद कम होती चली जाएगी।

विडंबना यह, कि जिस समय पराली के धुंए पर इतनी चिंता जताई जा रही है, उस बीच भी सरकार से मिलने वाली भरपूर सब्सिडी किसानों को गेहूं की बजाय खेतों में डंठल छोड़ने वाली धानया कपास-जैसी रोकड़ा फसलों के उत्पादन को बोने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। मुफ्त की बिजली, मुफ्त का पानी, सब्सिडाइज्ड उर्वरक और सस्ता डीजल इनसे अधिक पानी मांगने वाली फसलों की खेती का दायरा लगातार फैला है। और डीजल का उत्सर्जन, बोरिंग मशीनरी से भूजल का अतिरिक्त दोहन, सर पर की हवा को खतरनाक और भूमिगत जल को खत्म कर रहे हैं। सस्ते, सब्सिडी प्राप्त, लेकिन नाइट्रोजन उत्सर्जक रासायनिक उर्वरकों के सही इस्तेमाल की बाबत हमारे ग्रामीण किसानों में वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है। अच्छी फसल लेने के चक्कर में वे इसका भारी मात्रा में प्रयोग करने तो लगे हैं, पर जमीन में लगातार बढ़ते अमोनिया से उर्वरक के नाइट्रोजन कणों का मेल अमोनिया को गैस बनाकर उसका जहर हवाओं में भी घोल देता है।

अभी खबर आई है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से पंजाब जाते हुए (जहां खरीदी मोल अधिक है) मुनाफाखोरों द्वारा किसानों से सस्ते में खरीदे गए धान के कई ट्रक पकड़े गए हैं। यह मौजूदा विपणन व्यवस्था और अलग-अलग खरीदी मोल के छेद दिखाता है जिनसे किसान को कोई लाभ नहीं होता, पर थोक व्यापारी फल- फूल रहे हैं। समय आ गया है कि सरकार राजनीतिक लाभ-लोभ तजकर कृषि क्षेत्र को लंबे समय से दी जा रही बिजली-पानी की छूट पर रोक लगाए। इससे बची राशि को राज्य सरकारें अपने क्षेत्रकी खेती स्थानीय जानकारी और नई वैज्ञानिक तरीकों को मिलाकर करवाने और फसल बिक्री की उन योजनाओं में लगा सकेंगी जो मांग और आपूर्तिपर आधारित हों, न कि विशुद्ध मुनाफा कमाई पर।

विशेषज्ञों का सुझाव है कि उर्वरकों पर सब्सिडी की बजाय किसानों को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से कैश भुगतान करना बेहतर होगा। इससे वे वाजिब तादाद में उर्वरक खरीदेंगे और सरकार की उर्वरक कंपनियों को निरंतर घाटा भी न होगा। माल के विपणन पर सरकार ने जोखिम उठाते हुए इधर कुछ तर्कसंगत कदम उठाए हैं। पर अब जरूरत है कि इससे आगे जाकर खेती को किसानों पर दया या निजी मुनाफे की बजाय बाजारों में जिनिस की सचमुच की मांग पर वैसे आधारित बनाया जाए, जैसा कि वह मूलत: भारत में रहता आया तो उत्तम खेती मध्यम बान का मुहावरा सही हो जाएगा।

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