ब्‍लॉगर

हिजाब बनाम श्रीमद्भगवतगीता

– वीरेन्द्र सिंह परिहार

कर्नाटक के स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने को लेकर बीते कुछ महीनों के दाैरान पूरे देश में बड़ा बवाल मचा। मुस्लिम लड़कियों की एवं मुस्लिम स्कालरों का यह कहना था कि वह क्या पहनती हैं, यह उनका मौलिक अधिकार है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने तो इस संदर्भ में यहां तक कह दिया कि कोई चाहे बिकनी पहने- यह भी उसका अधिकार है। लेकिन मुस्लिम पक्ष का यह भी कहना था कि हिजाब इस्लाम का हिस्सा है और शरिया के अनुसार वह हिजाब पहनकर ही स्कूल एवं कालेज जायेंगी। जबकि दूसरी तरफ शैक्षणिक संस्थानों एवं कर्नाटक सरकार का कहना था कि शैक्षणिक संस्थानों में ड्रेस कोड लागू है। इसलिए वहां ड्रेस कोड से इतर हिजाब पहनने की अनुमति नहीं दी जा सकती। अंततः मामला कर्नाटक हाईकोर्ट गया, जहाँ पर उसके द्वारा यह कहा गया कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, इसलिए शैक्षणिक संस्थानों पर इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।

हालांकि मुस्लिम पक्ष इससे संतुष्ट न होकर सर्वाेच्च न्यायालय पहुंच गया है। उसके अनुसार उसके लिए शरियत संविधान से ऊपर है। यद्यपि सर्वाेच्च न्यायालय ने इस पर त्वरित सुनवाई करने से इनकार कर दिया है। इसी बीच गुजरात सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए श्रीमद् भगवत गीता को स्कूलों में पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया। कर्नाटक सरकार भी इस दिशा में कदम उठा रही है। फलतः मुस्लिम जगत की ओर से इसका व्यापक विरोध देखने को मिला। मुस्लिम धर्म गुरुओं द्वारा कहा गया कि यदि ऐसा है तो सभी धर्माें की पुस्तकें पढ़ाई जानी चाहिए। पता नहीं क्यों ? इस देश में तथाकथित सेक्यूलर जो ऐसे मामलों में विरोध करने के लिए अग्रणी रहते थे, वह देश के बदले माहौल और हिन्दू चेतना के बढ़ते प्रवाह को देखते हुए मुखर होकर इस कदम का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि क्या स्कूलों में गीता पढ़ाया जाना, किसी मजहब या पंथ की किताब पढ़ाया जाना है ?

वस्तुतः गीता कोई ऐसी पुस्तक नहीं जो मात्र हिन्दू धर्म से सम्बन्ध हो। उसमें न तो कोई कर्मकाण्ड का वर्णन है और न ही कोई ऐसे रीति-रिवाजों का जो मात्र हिन्दुओं के लिए हो। उसमें जो कुछ है पूरी मानवता के लिए है। सारे इंसानों के लिए भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में कर्म का संदेश दिया। उन्होंने संदेश ही नहीं दिया, अपितु अर्जुन से पूछ भी लिया- अर्जुन क्या तुमने मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुना ? क्या तुम्हारा मोह- अज्ञान समाप्त हो गया ? अर्जुन ने दृढ़ता से उत्तर दिया- ‘‘नष्टो मोहः स्मृतिलव्धा त्वत्प्रसादा व्मायाच्युत स्थितिस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव।।’’ अर्थात मेरा मोह नष्ट हो गया, संदेह दूर हो गया। तुम्हारे वचनों से और कृपा से मैं स्मृति को उपलब्ध हो गया। अब इसको बड़े फलक में देखने की आवश्यकता है। पहली बात तो गीता अनुशासन, संयम सिखाती है, बड़ी सच्चाई यही है कि यदि व्यक्ति में संयम, अनुशासन का अभाव है तो न तो वह अध्यात्म में सफल हो सकता है, न परिवार में, न व्यापार में। जीवन के किसी भी विधा के चरम को स्पर्श करने में निश्चित रूप से सफल नहीं होगा। जैसा कि स्वामी सत्यमित्रानंद जी कहते हैं- ‘‘अध्यात्म पूरे संसार को छूता है। उसके प्रमाणिक स्पर्श से व्यक्ति की ऊर्जा जागृत होती है। अध्यात्म से तात्पर्य यह भी नहीं कि वह जीवन से दूर ले जाये। ऐसे अध्यात्म की जीवन में उपयोगिता भी नहीं है।’’

अब जहाँ तक मोह का सवाल है, वहाँ यह स्पष्ट है कि यदि प्रबंधन करने वाले या नेतृत्व करने वाले के मन में मोह होगा तो वह न्याय नहीं कर सकेगा, वह निष्पक्ष नहीं हो सकता। इसलिए प्रबंधन करने वाले को अपने जीवन की बौद्धिक तुला को संतुलित करने का पूरा प्रयास करना पड़ेगा कि मेरा कोई नातेदार, मित्र, घनिष्ठ, कहीं अनुचित आचरण कर रहा है तो उसे दण्डित करना पड़ेगा। उसके कर्म को ठीक करना पड़ेगा। इसके लिए संतुलित मस्तिष्क की पहली आवश्यकता है, लेकिन संतुलित मस्तिष्क को पाने के लिए जीवन को आध्यात्म के साथ जोड़ना पड़ता है। देह के साथ जुड़ा व्यक्ति कर्तव्य विमुख होता है। देह के साथ जब धृतराष्ट जुड़ जाता है तो वह संजय से पूँछता है- ‘‘ममकाः पाण्डाश्चैव किम कुर्वत संजय’’ अर्थात मेरे और पाण्डु-पुत्रों ने क्या किया ? पूछना चाहिए था- कौरवों-पाण्डवों ने क्या किया ? लेकिन अंधे होने पर भी उसका मोह अपनो के लिए ‘मामका’ शब्द प्रयोग कराता है।

गीता में कृष्ण कहते हैं- ‘‘व्यवसायित्माक बुद्धि समाधान न विधीयते।’’ अर्थात जिन लोगो का मन चंचल है वे ठीक से निर्णय लेने में अपने को असमर्थ पाते हैं। जीवन की किसी भी व्यवस्था को यदि ठीक से चलाना है तो गीता के अनुसार पहला प्रयत्न अपने चित्त अपने मन को धीरे-धीरे ही सही, संतुलित करने की आवश्यकता है। जिन लोगो का मन चंचल है वे ठीक से निर्णय करने में सक्षम नहीं होते। गीता बार-बार कहती है- ‘‘धर्मस्य त्रस्यते महतो भयात (2/40) धर्म का छोटे-से-छोटा आचरण, अध्यात्म की छोटी सी क्रिया व्यक्ति का बहुत बड़े भय से बचा लेती है। गीता कहती है- ‘‘स्वकर्मणा तभम्यच्र्य सिद्धि विद्धति मानवः (18/40) यानी कुछ भी हो यदि कार्य करने की कला सीख ली तो वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है जिसे प्राप्त करने का प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। (इसका तात्पर्य उस सिद्धि से नहीं जो चमत्कार की ओर ले जाती है) लेकिन गीता जिस सिद्धि की बात कर रही है, वह मनुष्य को आनंद की ओर ले जायेगी। जगत में रहते हुए भी व्यक्ति संसार में लिप्त नहीं होगा। इसी सिद्धि या प्रवीणता प्राप्त करने के चलते एक रविदास मोची को एक राजरानी के रूप में प्रतिष्ठित महिला मीरा ने अपना गुरु बनाया था।

गीता कहती है मनुष्य को सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय सभी में समभाव रखना चाहिए। यह भी संभव है- हार में कोई जीत छुपी हो या दुःख में कोई आनंनद छिपा हो। श्रेष्ठ व्यक्ति आपदा को अवसर में बदल देता है। इस तरह से गीता पूरी मनुष्य जाति से यह अपेक्षा करती है कि वह श्रेष्ठ या आर्य बनें। यह बड़ी सच्चाई है कि भारत सभ्यता व आर्थिक समृद्धि मैं अतीत में अग्रणी था, परन्तु जबसे राजनीति में धर्म का प्रभाव कम होना शुरू हुआ। गांधी के शब्दों में कहे तो धर्म विहीन राजनीति का दौर जबसे चला तो भारत में एक राष्ट के रूप में अवनति की शुरुआत हो गई। स्वतंत्र भारत में भी राजनीतिज्ञों में मोह-माया, तेरा-मेरा और भाई-भतीजावाद का प्राबल्य ही हमारी राष्ट्रीय असफलता का बड़ा कारक है। इधर हाल के वर्षाें में मोदी और योगी ने बताया है कि एक संन्यासी दृष्टि से यदि शासन किया जाये तो सुशासन का दौर आ सकता है।

महान दार्शनिक एवं भारत के भूतपूर्व राष्टपति स्व. राधाकृष्णन का कहना था- ‘‘गीता को विज्ञान की तरह पढ़ने में और दर्शन की तरह सोचने की अभिलाषा स्वाभाविक है।’’ पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. कलाम का कहना था- ‘‘गीता एक विज्ञान और भारतीयों के लिए अपनी संस्कृतिक विरासत का गर्व है। जर्मन धर्म के अधिकृत भाष्यकार होअर का कहना है- ‘‘यह सब कालो के लिए सब प्रकार के धार्मिक जीवन के लिए प्रमाणिक है।’’ यूरोपीय विद्धान एडविन अर्नाल्ड ने गीता पर ग्रंथ लिखा- सेलेशियन शांगा और कहा भारतवर्ष के इस दार्शनिक ग्रंथ के बिना अंग्रेजों साहित्य निश्चित ही अपूर्ण रहेगा।’’ महात्मा गांधी कहते थे- गीता के श्लोक उन्हें विशाल ब्रिटिश साम्राज्य से टकराने की ताकत देते हैं। जब प्रकाश की कोई किरण नहीं तब रास्ता बना देते हैं। उन्होंने गीता को माँ बताया था।’’ लोकमान्य तिलक ने गीता पर भाष्य लिखकर यह बताया कि यह कर्म प्रधान है, यह पलायन का नहीं, संघर्ष का दर्शन है।’’ गीता जीवन जीने की कला एवं विज्ञान दोनों है। समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग गीता में निहित है। यह बताती है कि शरीर और मन का सम्बन्ध ठीक से यदि नहीं जुड़ा तो सफलता नहीं मिलने वाली। अर्जुन के सवाल प्रत्येक व्यक्ति के सवाल हैं, क्योंकि यह जिंदगी ही एक युद्ध-क्षेत्र है। गौर करने का विषय है कि यदि अमेरिका के न्यू जर्सी विश्व विद्यालय में गीता पढ़ाई जा सकती है तो भारतवर्ष में क्यों नहीं ? जापान, जर्मनी, नीदरलैण्ड, स्वीडन में भी गीता किसी न किसी रूप में पढ़ाई जा रही है। हावर्ड विश्व विद्यालय में भी पढ़ाई जाने वाली है। ऐसी स्थिति में भारत का एक वर्ग इसका विरोध करे, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा। लेकिन वक्त की यह मांग है कि प्रत्येक विद्यालयों और विश्व विद्यालयों में गीता का अध्ययन, अध्यापन सिर्फ देश के लिए नहीं, सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी होगा।

(इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं)

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