ब्‍लॉगर

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका

– रंजना मिश्रा

भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ऐसी अनेक नारियों की वीर गाथाओं से भरा पड़ा है, जिनके साहस, त्याग और बलिदान ने भारत को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।आरंभ से लेकर अंत तक उन्होंने न केवल शांतिपूर्ण आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलनों में भी बढ-चढ़कर हिस्सा लिया। नारी शक्ति ने इस महान विद्रोह में हिस्सा लेकर अंग्रेजी शासन की जड़ें हिला दीं। इनमें दो वीरांगनाओं का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, एक तो लखनऊ की बेगम हजरत महल और दूसरे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। जब 1855 में झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजी शासकों ने झांसी की रानी लक्ष्मी बाई व उनके दत्तक पुत्र को झांसी का शासक मानने से इनकार कर दिया तो लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, उनका स्पष्ट नारा था कि “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी”और इसी प्रयास में रानी लक्ष्मीबाई 8 जून 1858 को अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए शहीद हो गईं।

बेगम हजरत महल ने लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व किया था। बेगम हजरत महल ने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादिर को गद्दी पर बैठा कर स्वयं अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। बेगम हजरत महल के सैनिक दल में तमाम महिलाएं शामिल थीं, जिनका नेतृत्व रहीमी करती थीं। लखनऊ में सिकंदरबाग किले के हमले में वीरांगना ऊदा देवी ने अकेले ही अंग्रेजी सेना के विरुद्ध युद्ध करते हुए लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया था। अंत में वीरांगना ऊदा देवी कैप्टन वेल्स की गोली का शिकार हो गईं। इसी प्रकार एक वीरांगना आशा देवी 8 मई 1857 को अंग्रेजी सेना का मुकाबला करते हुए शहीद हुई थीं।

बेगम हजरत महल के बाद अवध के मुक्ति संग्राम में तुलसीपुर के राजा दृगनाथ सिंह की रानी ईश्वर कुमारी ने होप ग्राण्ट के सैनिक दस्तों से जमकर लोहा लिया। अवध की बेगम आलिया ने भी अपने अद्भुत कारनामों से अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी थी। कानपुर की नर्तकी अजीजन बेगम ने देशभक्ति की भावना के चलते नर्तकी के जीवन का परित्याग कर क्रांतिकारियों की सहायता की, उसने मस्तानी टोली के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनाई, जो मर्दाना भेष में घायल सिपाहियों की मरहम पट्टी करतीं और उनकी सेवा सुश्रुषा करती थीं। अंग्रेजों ने जब कानपुर पर अधिकार कर लिया तो अजीजन बेगम भी पकड़ी गईं और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई।

पेशवा बाजीराव की फौज के साथ बिठूर आने वाली मस्तानी बाई ने भी कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुजफ्फरनगर के मुंडभर की महावीरी देवी ने 1857 के संग्राम में 22 महिलाओं के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला किया था। अनूप शहर की चौहान रानी ने भी अंग्रेजी सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अनूप शहर के थाने पर लगे यूनियन जैक को उतारकर हरा राष्ट्रीय झंडा फहराया था।

मध्यप्रदेश में रामगढ़ रियासत (मंडला जिले में) की रानी अवंतीबाई लोधी ने 1857 के संग्राम में पूरी शक्ति के साथ अंग्रेजों का विरोध किया, उन्होंने अपने सैनिकों व सरदारों से कहा था कि, “भाइयों! जब भारत मां गुलामी की जंजीरों से बंधी हो, तब हमें सुख से जीने का कोई हक नहीं, मां को मुक्त करवाने के लिए ऐशो-आराम को तिलांजलि देनी होगी, खून देकर ही आप अपने देश को आजाद करा सकते हैं।” रानी अवंतीबाई ने अपने सैनिकों के साथ अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया और बाद में आत्मसमर्पण करने की बजाय खुद को समाप्त कर लिया।

असम की रहने वाली कनक लता बरूआ महज 17 साल की उम्र में पुलिस स्टेशन में तिरंगा फहराने की कोशिश के दौरान पुलिस की गोली का शिकार बन गईं। ऊषा मेहता, दुर्गाबाई देशमुख, अरूणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, विजय लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरू, कस्तूरबा गांधी, डॉ लक्ष्मी सहगल, सरोजिनी नायडू, एनी बेसेन्ट, मैडम भीकाजी कामा आदि अनेकों नारी शक्तियों ने अपने सक्रिय योगदान व साहस के द्वारा भारत को आजाद कराने में एक अहम् भूमिका अदा की है। इतिहास इनके योगदान को कभी भी भुला नहीं सकता।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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