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‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ बड़ा विचार-बड़ा सुधार

– मुकुंद

देश में गंभीर तार्किक एवं अन्य चुनौतियों के बावजूद लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का विचार दशकों से चर्चा के केंद्र में है। इसका मकसद भारतीय चुनाव चक्र की अनावश्यक पुनरावृत्ति को रोकना है। हालांकि वर्ष 1967 तक ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा के तहत देश में चुनाव हुए हैं, लेकिन कार्यकाल समाप्त होने से पहले राज्यों की विधानसभा और लोकसभा के बार-बार भंग होने के कारण यह सिलसिला थम गया। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव के साथ कुछ राज्यों मसलन आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम के विधानसभा चुनाव अभी भी साथ होते हैं। आज ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा कुछ कारणों से अपरिहार्य हो गई है। केंद्र सरकार कुछ समय पहले इस संबंध में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति का गठन कर चुकी है। यह समिति इस संबंध में व्यापक मंथन कर रही है।


इस अवधारणा पर अगस्त 2018 में जारी विधि आयोग की एक मसौदा रिपोर्ट बेहद महत्वपूर्ण है। इस रिपोर्ट के अनुसार, ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के अभ्यास से सार्वजनिक धन की बचत होगी। प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले तनाव को कम किया जा सकेगा। इससे सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन संभव होगा। चुनाव प्रचार के बजाय विकास गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न प्रशासनिक सुधार किए जा सकेंगे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि संविधान के अनुच्छेद 83(2) और अनुच्छेद 172 में कहा गया है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा।

इसमें जरूरी यह है कि यदि इन्हें पहले भंग न किया जाए। मगर अनुच्छेद 356 के तहत ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हो सकती हैं जिसमें विधानसभाएं पहले भी भंग की जा सकती हैं। इसलिए कार्यकाल पूरा होने से पहले केंद्र अथवा राज्य सरकार के गिरने की स्थिति में इस योजना की व्यवहार्यता सबसे अहम प्रश्न है। चुनाव विशेषज्ञ मानते हैं कि इस बदलाव के लिए संविधान में संशोधन करने से न केवल विभिन्न स्थितियों और प्रावधानों पर व्यापक तौर पर विचार करने की आवश्यकता होगी, बल्कि ऐसे बदलाव भविष्य में किसी प्रकार के संवैधानिक संशोधनों के लिए एक मिसाल भी साबित हो सकते हैं। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि बार-बार होने वाले चुनाव के वर्तमान स्वरूप को लोकतंत्र में अधिक लाभकारी के तौर पर देखा जा सकता है, क्योंकि यह मतदाताओं की आवाज को बुलंद करता है। केंद्र और राज्यों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। इसलिए वर्तमान ढांचा अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करता है।

माना जा रहा है कि एक साथ चुनाव के लिए लगभग 30 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों की आवश्यकता होगी। भारत निर्वाचन आयोग वर्ष 2015 में सरकार को एक व्यवहार्यता रिपोर्ट सौंप चुका है। इसमें संविधान और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन का सुझाव दिया जा चुका है। आयोग ने रिपोर्ट में कहा कि एक साथ चुनाव कराने के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता होगी। यही नहीं, 15 वर्ष बाद मशीनों को बदलने की अतिरिक्त लागत के साथ ईवीएम और वीवीपीएटी की खरीद के लिए लगभग 9,284.15 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी।

मशीनों की भंडारण लागत में भी वृद्धि होगी। इस अवधारणा पर कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि यह मतदाताओं के व्यवहार को इस तरह से प्रभावित कर सकता है कि मतदाता राज्य चुनाव के लिए भी राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र में रखकर मतदान करेंगे। इससे बड़े राष्ट्रीय दल, राज्य विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव में जीत हासिल कर सकते हैं और इस तरह क्षेत्रीय दलों के हाशिये पर चले जाने की संभावना बढ़ जाएगी। यहां यह जानना जरूरी है कि कई देशों में इसी अवधारणा के तहत चुनाव होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतों की विधानसभा के चुनाव पांच साल के लिए एक साथ होते हैं। स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिका और स्थानीय निकाय चुनाव चार साल के लिए एक निश्चित तिथि यानी सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं। लेकिन अधिकांश अन्य बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक साथ चुनाव की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।

ब्रिटेन में ब्रिटिश संसद और उसके कार्यकाल को स्थिरता प्रदान करने के लिए निश्चित अवधि संसद अधिनियम, 2011 पारित किया गया था। इसमें प्रावधान था कि पहला चुनाव सात मई, 2015 को और उसके बाद हर पांचवें वर्ष मई के पहले गुरुवार को होगा। देश में ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ वक्त की फौरी जरूरत है। इसलिए सभी राजनीतिक दलों को कम से कम इस मुद्दे पर विचार-विमर्श में सहयोग करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केंद्र सरकार तो अपना धर्म निभा चुकी है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में गठित उच्च स्तरीय समिति ने विचार-विमर्श शुरू कर दिया है।

कोविन्द और समिति के सदस्यों एनके सिंह, डॉ. सुभाष कश्यप और संजय कोठारी ने कल (14 फरवरी, 2024) देश के कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों से मुलाकात कर विचार-विमर्श किया। 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. एनके सिंह और आईएमएफ के सिस्टमिक डिवीजन इश्यूज की प्रमुख डॉ. प्राची मिश्रा ने “मेक्रोइकोनॉमिक्स इम्पैक्ट ऑफ हार्मोनाइजिंग इलेक्ट्रोरल साइकल्स” शीर्षक से तैयार एक पेपर कुछ अरसा पहले इस समिति के समक्ष प्रस्तुत किया था। इसमें कहा गया है कि खर्चों के अलावा, दोहराए जाने वाले खर्चों के व्यापक आर्थिक प्रभाव भी होते हैं। इनमें निवेशकों और अन्य सामाजिक हितधारकों के मन की अनिश्चितता के अलावा जीडीपी वृद्धि, निवेश, विस्तारित सार्वजनिक व्यय, राजकोषीय घाटा, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी निष्कर्ष और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दे शामिल हैं। समिति ने इस पेपर पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की प्रतिक्रिया जानने के लिए विचार-मंथन सत्र का आयोजन किया।

इस मंथन में आर्थिक विकास संस्थान के निदेशक प्रो. चेतन घाटे, भारतीय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद के निदेशक डॉ. दीपक मिश्रा, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च की अनिवासी मानद प्रतिष्ठित फेलो प्रो. इंदिरा राजारमन, नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की महानिदेशक डॉ. पूनम गुप्ता, एमेरिटस के अध्यक्ष और सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. राकेश मोहन, सीआईआई के नामित अध्यक्ष संजीव पुरी, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य डॉ. शमिका रवि और डॉ. सुरजीत एस. भल्ला, टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक सिद्धार्थ, इंडियन एक्सप्रेस के संपादक वैद्यनाथन अय्यर, सीआईआई के उप महानिदेशक मारुत सेन गुप्ता और सुश्री अमिता सरकार के अलावा सीआईआई के कार्यकारी निदेशक बिनॉय जॉब ने हिस्सा लिया। इस समिति ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन के अध्यक्ष और संसद सदस्य असदुद्दीन ओवैसी से बातचीत कर उनकी पार्टी का पक्ष जाना। समिति ने राज्य चुनाव आयुक्तों के साथ परामर्श का क्रम जारी रखते हुए गुजरात के चुनाव आयुक्त संजय प्रसाद से भी चर्चा की। प्रसाद ने राज्य विधानसभा और लोकसभा के साथ-साथ स्थानीय निकाय चुनाव कराने के लिए आवश्यक विधायी आवश्यकता को रेखांकित किया। उम्मीद की जानी चाहिए यह समिति जल्द ही अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंप देगी।

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