ब्‍लॉगर

भारतीय रक्षा क्षेत्र को मजबूत करेगी चैफ तकनीक

– रंजना मिश्रा

रक्षा क्षेत्र ने देश में एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन यानी डीआरडीओ एक ऐसी एंटी रडार तकनीक विकसित कर रहा है, जिसके जरिए लड़ाकू विमानों को मिसाइल के हमलों से बचाया जा सकेगा। भारतीय लड़ाकू विमानों को धराशाई करने की हसरत न तो अब चीन की पूरी होने वाली है और ना ही पाकिस्तान जैसे मुल्क की, क्योंकि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डीआरडीओ ने रडार और मिसाइलों को चकमा देने वाली वो तकनीक विकसित कर ली है, जिस तकनीक को लड़ाकू विमानों का सबसे बड़ा रक्षा कवच माना जा रहा है। एडवांस्ड चैफ टेक्नोलॉजी का विकास डीआरडीओ की जोधपुर की रक्षा प्रयोगशाला (डिफेंस लैबोरेट्री ऑफ जोधपुर) और पुणे की उच्च ऊर्जा सामग्री अनुसंधान प्रयोगशाला (हाई एनर्जी मेटेरियल्स रिसर्च लेबोरेटरी एच ई एम आर एल) ने मिलकर किया है। ये चैफ तकनीक लड़ाकू विमानों को दुश्मन के रडार से बचाएगी। सबसे पहले इस तकनीक का इस्तेमाल जगुआर जैसे लड़ाकू विमानों पर किया जाएगा, क्योंकि जगुआर विमानों पर ही इसका ट्रायल पूरा किया गया है। वायु सेना से हरी झंडी मिलने के बाद मिराज, सुखोई समेत दूसरे लड़ाकू विमानों में इसका इस्तेमाल किया जाएगा।

दुनिया में ब्रिटेन की तीन कंपनियां ही चैफ तैयार कर रही हैं। डीआरडीओ चैफ के निर्माण के लिए इस तकनीक को स्वदेशी कंपनियों को ट्रांसफर करेगा। खास बात यह है कि डीआरडीओ की ओर से विकसित चैफ कार्टिलेज दुनिया में सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इससे पहले दुनिया में विकसित चैफ को रडार बेस मिसाइलें भेद भी सकती हैं, लेकिन भारत के चैफ को नहीं, यानी इस चैफ तकनीक के जरिए भारत के लड़ाकू विमान दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हो जाएंगे।

चैफ फाइटर विमानों में लगने वाला काउंटर मेजर डिस्पेंडिंग यानी दुश्मन के रडार आधारित मिसाइल से बचाने वाला उपकरण होता है, ये विमान को इंफ्रारेड और एंटी रडार से बचाता है। इसकी मदद से युद्ध को जीतना आसान हो जाता है, ये इस तकनीक की बहुत बड़ी खूबी है, ये एक रक्षा कवच का काम करता है जो जहाजों को दुश्मन की मिसाइल से बचाएगा।

असल में यह चैफ फाइबर होता है, बाल से भी पतले इस फाइबर की मोटाई महज 25 माइक्रोन होती है। डीआरडीओ ने इन करोड़ों फाइबर से एक 20 से 50 ग्राम का कार्टिलेज तैयार किया है। चैफ को विमान के पिछले हिस्से में लगाया जाता है। जैसे ही लड़ाकू विमान के पायलट को दुश्मन मिसाइल से लॉक होने का सिग्नल मिलता है, तब उसे चैफ कार्टिलेज को हवा में फायर करना पड़ता है। सेकेण्ड के दसवें हिस्से में इससे करोड़ों फाइबर निकलकर हवा में अदृश्य बादल बना देते हैं और मिसाइल लड़ाकू विमान को छोड़कर इसे अपना टारगेट समझ कर हमला कर देती है और विमान बच निकलता है। चैफ के इस्तेमाल के लिए पायलट को आधा सेकेंड से भी कम समय मिलता है। ऐसे में पायलट को विशेष प्रशिक्षण की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए वर्चुअल सिस्टम तैयार किया जा रहा है, ताकि पायलट सीधे विमान में जाने से पहले प्रशिक्षित हो जाए। डीआरडीओ ने चैफ को विकसित करने के लिए चार साल की समय सीमा निर्धारित की थी, लेकिन महज ढाई साल में ही डीआरडीओ ने इसे विकसित कर लिया।

इस स्वदेशी तकनीक का निर्माण भारत की ही दो कंपनियां करेंगी। डीआरडीओ ये तकनीक इन स्वदेशी कंपनियों को ट्रांसफर करेगा, वायु सेना इस तकनीक को इन कंपनियों से खरीदेगी। अभी तक एयर फोर्स को करीब 100 करोड़ सालाना इस तकनीक के आयात पर खर्च करने पड़ रहे हैं। अब न सिर्फ इसके आधे दामों में वायु सेना को ये तकनीक मिलेगी, बल्कि भारत अपने मित्र देशों को निर्यात करने पर भी विचार कर सकता है।

डीआरडीओ ने इसी साल अप्रैल में नौसेना के जहाजों के लिए भी इसी तरह की तकनीक विकसित की थी। इस तकनीक से भारतीय नौसेना के जहाजों को भी सुरक्षित रखा जा सकेगा और उन्हें मिसाइल हमलों से बचाया जा सकेगा। डीआरडीओ द्वारा विकसित इस एडवांस्ड चैफ टेक्नोलॉजी के तीन प्रकार हैं- पहला कम दूरी की मारक क्षमता वाला चैफ रॉकेट जिसे एसआरसीआर कहते हैं, दूसरा मध्यम रेंज चैफ रॉकेट एमआरसीआर और तीसरा लंबी दूरी की मारक क्षमता वाला चैफ रॉकेट एलआरसीआर। हाल ही में भारतीय नौसेना ने अरब सागर में भारतीय नौसैनिक जहाजों से इन तीनों प्रकार के रॉकेटों का प्रायोगिक परीक्षण किया, जिसमें इस तकनीक का प्रदर्शन अच्छा रहा।

सेना के विभिन्न अंगों को बदलते वक्त की चुनौतियों का सामना करने के लिए आधुनिक हथियारों और तकनीकों से लैस करना जरूरी हो जाता है। यही कारण है कि रक्षा मंत्रालय स्वदेश में निर्मित हथियारों और टेक्नोलॉजी के विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और इस कार्य को बढ़ावा दिया जा रहा है। वर्तमान इलेक्ट्रॉनिक युग में शत्रु के आधुनिक रडारों से अपने लड़ाकू विमानों को बचाना चिंता का विषय है। लड़ाकू विमान या कोई भी उड़ती हुई वस्तु रडार की नजर में आ जाती है। रडार माइक्रोवेव तरंगें छोड़ता है, जो वस्तु की दिशा व स्थिति बता देती हैं। चैफ टेक्नोलॉजी में रडार को भ्रमित किया जाता है। चैफ टेक्नोलॉजी का विकास आत्मनिर्भर भारत के लिए भी बड़ी उपलब्धि है। स्वदेश में निर्मित इस तरह की तकनीक भारत को सामरिक रूप से सफल बनाती है, साथ ही यह आत्मविश्वास भी पैदा होता है कि विश्व मानकों के अनुरूप टेक्नोलॉजी का विकास करने में भारत भी सक्षम है। बड़ी मात्रा में इसका उत्पादन करने के लिए अब इस प्रौद्योगिकी को उद्योग में स्थानांतरित कर दिया गया है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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