ब्‍लॉगर

आचार की मजबूरी और विचार की लाचारी

– गिरीश्वर मिश्र

आजकल निजी पारिवारिक जीवन और सार्वजनिक सामाजिक जीवन के तेजी से बदलते परिवेश में जिस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है वे भयावह हैं और निःसंदेह मनुष्य होने के मूल भाव को ही तिरस्कृत तथा अपमानित करने वाले जैसे लग रहे हैं। पिछले दिनों प्यार करना, लिव इन में रहना और फिर उसी प्रियजन की बर्बर हत्या की घटनाएं देश के कई कोनों से आईं। ऐसे ही पत्नी द्वारा प्रेमी की सहायता से पति की जान लेने जैसी भयानक वारदात की खबरें भी आती रही हैं। दुष्कर्म में व्यक्ति और समूह के स्तर पर लिप्त होने की भी घटनाएँ बढ़ रही हैं। ये सभी अंधे-अधूरे स्वार्थ के लिए रिश्तों की गहराती टूटन और आपसी भरोसे को कलंकित करने वाली घटनाएँ हैं। चिंता की बात यह है इस तरह की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। वे बार-बार और जगह-जगह हो रही हैं। इन सबके बीच आज हमारा सामाजिक ताना-बाना असहज होता जा रहा है और उसमें गाँठें पड़ रही हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति देश के सार्वजनिक जीवन में भी घटित होती दिख रही है। देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जो दिल दहला देने वाली हैं।

ज्यादा दिन नहीं हुए पश्चिम बंगाल से विभिन्न मौकों पर आहटें आ रही थीं कि किस तरह तात्कालिक राजनैतिक हित की खातिर द्वेष की आग में लोग झुलस रहे थे। ऐसे ही जंगलराज की ओर वापसी की खबरें बिहार से भी आ रही थीं। छत्तीसगढ़ में भी इस तरह की घटनाएँ हो रही थीं। प्रकट राजनैतिक हित के आगे सामाजिक सद्भाव, आपसी समझदारी और भरोसा बनाए रखने की ज़रूरत को भरसक नजर अन्दाज किया जाता रहा है। पूर्वोत्तर भारत के कला-संस्कृति से सम्पन्न ‘मणिपुर’ में हुई ताजी हिंसा और दुराचार की अमानवीय घटनाओं की जो जानकारी सामने आ रही है वह समाज और सरकार दोनों में गहरे पैठी जड़ता, अविश्वास और घोर निष्क्रियता को उजागर कर रही है। इस घटना की जितनी भी निंदा और भर्त्सना की जाए वह कम होगी । इन जटिल परिस्थितियों के बीच मणिपुर की कानून व्यवस्था चरमरा गई और आम जनों में भय और दहशत की स्थिति व्याप्त होती गई।


गौरतलब है कि मैतेयी और कुकी दोनों समुदायों की अस्मिता (या पहचान) और उससे जुड़े हितों को न समझना और उपेक्षा करना खतरनाक साबित हुआ। नए ज्ञान-विज्ञान, उद्योग, बाजार और तकनीक से लैस करती आधुनिकता की सबसे बड़ी सौग़ात अकेली अपनी अस्मिता का आविष्कार करना है। इसके असर में मनुष्य अब अधिकाधिक अस्मिताजीवी होता जा रहा है और एक जैसी अस्मिताएँ यदि आपस में जोड़ती हैं तो दूसरे समुदायों या ‘ग़ैर’ से तोड़ती भी हैं। हम अपने समुदाय को श्रेष्ठ और दूसरे को खराब साबित करने में जुट जाते हैं। इस दौड़ के अगले पड़ाव में दोनों अस्मिताओं वाले लोग एक दूसरे के दुश्मन होने लगते हैं। वे उन बड़ी (और शायद पुरानी पड़ती) अस्मिताओं जैसे- मनुष्य होना या भारतीय होना को भूलने लगते हैं। बड़ी अस्मिताओं के साथ जुड़ना और अपने को पहचानना साझेदारी पर टिकी होती हैं और उनमें परस्पर निर्भरता और पूरकता का रिश्ता होता है। ऐसे में सहयोग तथा संवाद का जरिया बन जाता है पर अलग और खास होती अस्मिताएँ तकरार का कारण बनती हैं।

मणिपुर की स्थिति निश्चय ही जटिल है और उसके कई कारण हैं। अस्मिताओं और उनसे जुड़ी आकांक्षाओं और प्रेरणाओं के साथ बगल के देश म्यांमार के साथ अंतरराष्ट्रीय आवागमन की व्यवस्था के (कु)प्रबंधन और नशीले पदार्थों की तस्करी की पृष्ठभूमि भी एक कारण है जो इस स्थिति को पैदा करने में सहायक हुई है । समय रहते इन सभी पक्षों पर ध्यान न देने की नीति की परिणति अच्छी नहीं हुई और जो कुछ घटित हुआ वह सबको शर्मसार करने वाला हो रहा है। इसलिए मणिपुर की समस्या को वहाँ के भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ में समझना होगा। साथ ही इस पूरे घटनाक्रम का राजनैतिक संदर्भ में भी देखना ज़रूरी होगा । हमें उस उभरते माहौल को नजर अन्दाज नहीं कर सकते जो विभिन्न प्रदेशों में दिख रहा है जिसमें संवाद की जगह हिंसा को तरजीह मिल रही है। यह दुर्भाग्य है कि अब हिंसा का राजनैतिक इस्तेमाल नैतिकता की हदें पार करता जा रहा है। मोटी खाल ओढ़े इसके प्रति बेहद उदासीन बने राजनेता उसका फायदा उठाने से कभी भी नहीं चूकते।

पिछले महीनों में मैतेयी और कुकी जनजातियों के बीच मणिपुर में आरक्षण के मुद्दे से जो मनमुटाव शुरू हुआ वह हत्या, बलात्कार, दरिंदगी, आगजनी, बमबाजी, दंगा-फसाद और हिंसा की होने वाली जघन्य वारदातों की श्रृखला में परिणत होता गया। प्रदेश की सरकार इस पूरे मामले को सँभालने और सामाजिक सद्भाव बनाए रखने में नाकामयाब रही। इस मामले को लेकर हर किसी को गम्भीर चर्चा और कार्रवाई की दरकार है। मणिपुर के इस मामले की गूंज संसद में कैसे गूंजे और उस गूंज का श्रेय कैसे लिया जाय अब यह मुख्य राजनैतिक प्रश्न बन गया है। देश और समाज की किस्मत ऐसी कि प्रभावित लोगों के दुःख-दर्द, पीड़ा और मुश्किलों को कैसे कम किया जाय, सामान्य जनजीवन कैसे बहाल हो और लोग इधर-उधर शिविरों को छोड़ अपने-अपने घरों को वापस जाएँ ये सारे प्रश्न गौण हो चले हैं।

राजनीति के रणनीतिकारों के आकलन के अपने आधार होते हैं जिनका सरोकार अगले चुनाव के लिए सिर्फ वोट बटोरने तक से सीमित होता है। इस बातूनी देश में बतकही की बड़ी पुरानी प्रथा है। लोग बात करने से कभी नहीं थकते। बतरस सभी रसों से ऊपर होता है और सभी इसका आस्वादन करते नहीं अघाते। मीडिया के तीव्र प्रसार के साथ बतियाने का स्वभाव और दायरा और ज्यादा बढ़ गया है। संसद में बतंगड़ी बात-वीरों की छवि निराली है। वे चिल्ला-चिल्ला कर बात करने की धूम मचाते रहते हैं। उनके शोर-शराबे में सिवाय बात करने के वे सबकुछ कर रहे होते हैं। इस माहौल में भारतीय संसद का मौजूदा मानसून सत्र हंगामे के बीच चल रहा है। इसका पूरे एक सप्ताह का कीमती समय देश के माननीयों द्वारा बात करने की बात पर असंयत ढंग से बात करते हुए बिताया गया ।

गौरतलब है कि बात की गम्भीरताओं को पक्ष तथा विपक्ष दोनों के द्वारा स्वीकार की गयी । ऐसा किए जाने पर भी बात करने पर बात नहीं हो सकी । बातचीत से बात बनती नहीं दिख रही और वेबात की बात करने में अपनी चतुराई दिखाने में हम लोग आगे चल रहे हैं । इसलिए बात को और बात पर बात करने के काम को हम सब बड़ी गम्भीरता से लेते हैं, चाहे काम की बात हो या न हो । यह याद करने लायक बात है कि बात करने के लिए विपक्ष द्वारा जितना समय माँगा जा रहा था उससे काफी ज्यादा समय बिना बात किए बिताया जा चुका है।

मणिपुर की घटनाओं को लेकर संसद का हरकत में आना स्वाभाविक है। अब पक्ष और प्रतिपक्ष नियमों और कायदे कानूनों का सहारा लेकर अपनी-अपनी बढ़त सुनिश्चित करने की कोशिश में लगा हुआ है। चूँकि हंगामा और कार्यवाही में गतिरोध पैदा करना संसद का स्थायी स्वर होता जा रहा है इस बार भी सार्थक चर्चा कम और हंगामा अधिक हो रहा है। इस पूरी मुहिम में तीव्र नाटकीयता का उपयोग तो है ही अभद्र भाषा के उपयोग से भी अब किसी को गुरेज नहीं दिख रहा। आए दिन संसद के कार्य की हानि के साथ जनता की गाढ़ी कमाई का करोड़ों रुपया इस पंचायती उपद्रव की भेंट चढ़ रहा है। इन सबसे लगता यही है कि आर्थिक विकास और भौतिक सुख-सुविधा की बढ़त के साथ रिश्तों में सहिष्णुता, पारदर्शिता और भरोसा की जो परिपक्वता आनी चाहिए वह नहीं आ पा रही है। हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी चूकती नजर आ रही है और हमारा मूल्यबोध धुंधला पड़ रहा है।

देश ने अमृतकाल में आगे बढ़ने का बड़ा संकल्प लिया है। आर्थिक मोर्चे पर एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने को तैयार हो रहा है। ऐसे में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास की आंतरिक चुनौती हमें आचार और विचार दोनों ही दृष्टियों से आत्मावलोकन के लिए आवाज दे रही है। मनुष्यता, सामाजिकता और स्वतंत्रता के मूल्य हमसे कुछ दायित्वों की भी अपेक्षा करते हैं जिनके अभाव में हम आगे कदम नहीं बढ़ा सकते। विचारों की लाचारी और आचार की मजबूरी के बीच हमें रास्ता ढूँढ़ना होगा।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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