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नलिनीबाला देवी: एक साहित्यकर्मी स्वतंत्रता सेनानी

– प्रतिभा कुशवाहा

जीवन के सभी क्षेत्रों की महिलाओं ने भारत को ब्रिटिश शासन के चंगुल से मुक्त कराने लिए बहुत ही बहादुरी से लड़ाई लड़ी। साहित्य जगत की बहुत-सी हस्तियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए योगदान दिया। अपनी साहित्यिक रचनाओं के द्वारा आजादी की अलख जगाई। गोवाहाटी, असम की प्रसिद्ध साहित्यकार और स्वतंत्रता सेनानी कर्मवीर नबीनचंद्र बोरदोलोई की संतान नलिनीबाला देवी स्वयं अपने पिता के समान साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं।

वे बचपन से ही साहित्यानुरागी प्रकृति की थीं। जब वे केवल दस वर्ष की थीं तभी उन्होंने ‘पिता’ शीर्षक से कविता लिखी थी। इसी बात से उनके पिता को समझ आ गया था कि वे एक असाधारण प्रतिभा की धनी हैं। इसलिए उनके पिता ने उनकी शिक्षा की विशेष व्यवस्था की। उन्हें अच्छी शिक्षा देने के लिए स्वयं कोलकाता में रहने लगे। कोलकाता के साहित्य-संस्कृति और राजनीतिक माहौल ने नलिनीबाला को अपनी जिंदगी का लक्ष्य चुनने का अवसर दिया। उनके पिता उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करते रहे। यही कारण था कि उनके अंदर आत्मविश्वास और दृढ़विश्वास की कमी नहीं रही।

नलिनीबाला के अंदर अच्छी शिक्षा और प्रोत्साहन से ही साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति अनुराग पैदा हुआ। जिस समय देश का स्वतंत्रता आंदोलन जन-जन में व्याप्त हो रहा था उस समय असम में भी स्वतंत्रता संघर्ष की यही आग फैली हुई थी। उस समय तक असम की ही कनकलता बरूआ, भोगेस्वरी फुकनोन जैसी महिलाएं आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर चुकी थीं। नलिनीबाला भी इन सब चीजों से अंजान नहीं थीं। वे न केवल महात्मा गांधी से प्रभावित हुईं, बल्कि उनके बताए हुए कार्यों को अंजाम भी देने लगीं। इसी क्रम में उनकी लेखनी से राष्ट्रवादी भावनाएं उनकी मातृभाषा असमिया में अवतरित होने लगी। बहुत जल्द उन्होंने असमिया साहित्य में अपनी जगह बना ली।

1898 में जन्मी नलिनीबाला का विवाह उनके पिता ने बाल्यावस्था में ही जीवेश्वर चंगकाकोती से कर दिया था, पर दुर्भाग्य से बहुत जल्द वे विधवा हो गईं। साथ ही यह भी दुर्भाग्य उनके साथ जुड़ गया कि उनके दोनों बेटों की मृत्यु भी बहुत जल्दी हो गई। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने बहुत सा दुख सहन कर लिया था। वे टूटी नहीं, पर दुखत घटनाओं को भुलाने के लिए वे और अधिक लिखने के काम में डूब गई। उन्होंने दुख में डूबी, भावनाओं से भरी, देशभक्ति से परिपर्ण ढेरों कविताएं लिखीं। जेल में बंद अपने पिता को खूब पत्र लिखे। उनका पहला संग्रह ‘संधियार सुर’ 1928 में आ गया था और दूसरा 1935 में।

देश में चल रहे स्वदेशी आंदोलन और असहयोग आंदोलन के दौरान नलिनीबाला ने गुनेस्वरी देवी और हेमंत कुमारी देवी के साथ मिलकर एक स्कूल खोला। इस आंदोलन के दौरान असम में महात्मा गांधी के समर्थन में बहुत कम महिलाएं सामने आई थीं, उनमें नलिनीबाला शामिल थीं। इस दौरान इन तीनों ने मिलकर गोवाहाटी में एक बुनाई ट्रेनिंग सेंटर खोला जिससे खादी का उत्पादन किया जा सके। आंदोलन से प्रभावित बहुत सी महिलाएं इस सेंटर से जुड़ गईं और अंग्रेजों के विरुद्ध खादी को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया। आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी असम के दौरे पर आए तो इस खादी से 500 बनी हुई टोपियां कांग्रेस वर्कर के बीच बांटी गईं।

नलिनीबाला ने महिलाओं के बीच जाकर काम किया। अपने साहित्य कर्म के द्वारा वे महिलाओं से संबंधित मुद्दे उठाती रहीं। अपनी विचारात्मक कविताओं में महिलाओं को सम्बोधित करती रहीं। नलिनीबाला की सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में अलकानंद, सोपुनार सुर, पोरोश मोनी, युग देवता, शेष पूजा पारिजातोर अभिषेक, मेघदूत, सुरवी, रूपरेखा, शेषोर सुर आदि शामिल है। उन्होंने सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ-साथ अपने पिता की जीवनी ‘स्मृति तीरथ’ लिखी, साथ ही आत्मकथा ‘इरी उहा दिनबूर’ भी लिखी।

1950 में उन्होंने बच्चों की एक संस्था सादू असोम पारिजात कानन की स्थापना की, जो आगे जाकर मोइना पारिजात के नाम से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने बच्चों के लिए भी साहित्य रचनाएं कीं। उन्हें साहित्यिक योगदान के लिए 1957 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन्हें ‘अलकनंदा’ के लिए 1968 में साहित्य अकादमी भी मिला। इतना विपुल साहित्यकर्म रचते हुए 77 वर्ष की आयु में 1977 में वे इस संसार से विदा हो गईं।

(लेखिका हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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