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पुतिन की देखादेखी कहीं शी जिनपिंग की नीयत न हो जाए खराब, इस चाल से चीन को मात दे सकते हैं मोदी

नई दिल्ली। 21वीं सदी में युद्ध नहीं हो सकता, रूस-यूक्रेन के बीच जारी जंग ने यह धारणा ध्वस्त कर दी है। अब आशंका जताई जाने लगी है कि सिलसिला यहीं थमने वाला नहीं और निकट भविष्य में कभी भी पारंपरिक हथियारों से युद्ध लड़े जा सकते हैं। दरअसल, दुनिया में कई मोर्चे खुले हैं जहां दो या दो से अधिक देश एक-दूसरे के खिलाफ पूरी तैयारी में हैं, बस जरूरत है तो रूस की तरह किसी एक तरफ से मन बनाने की और विनाशलीला शुरू।

दुनिया में युद्ध के जो बड़े मोर्चे मुंह बाए खड़े हैं, उनमें भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान भी प्रमुख हैं। खासकर, चीन के आक्रामणकारी मिजाज को देखते हुए पूरी दुनिया की चिंता बढ़ गई है। स्वाभाविक है कि भारत की अपनी चिंताएं हैं। रिटायर्ड एयर वाइस मार्शल अर्जुन सुब्रमण्यन ने हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख के जरिए बताया है कि चीन से मुकाबला करने के लिए भारत को सैन्य शक्ति के अलावा और किन-किन मोर्चों को मजबूत करने की दरकार है।

सिर्फ पारंपरिक हथियारों से नहीं लड़े जा सकते युद्ध
अर्जुन सुब्रमण्यम ने व्हार्टन स्कूल ऑफ बिजनस के सबसे लोकप्रिय प्रफेसर एडम ग्रांट और भारत के पूर्व विदेश सचिव और चीनी मामलों के विशेषज्ञ विजय गोखले के हवाले से कहा कि आप कौन हैं और खुद को निकट एवं दूरस्थ भविष्य में आप क्या बनना चाहते हैं, इस पर बार-बार विचार करें और निश्चित जवाब मिल जाए तो दृढ़ता से कदम आगे बढ़ा दें। दूसरी बात यह कि मौजूदा दौर में युद्ध के हथियार सिर्फ मिसाइलें और गोला-बारूद ही नहीं हो सकते बल्कि नैरेटिव गढ़ने वाले माध्यमों की भूमिका कहीं ज्यादा अहम होती जा रही है।

रास्ता बदलने में ही होशियारी
वो लिखते हैं, ‘अफगानिस्तान और यूक्रेन को देखिए। दोनों ने भारत के सामरिक नेतृत्वकर्ताओं के सामने महत्वपूर्ण चुनौती पेश की है। हालांकि, अभी जजमेंटल होना जल्दबाजी होगी लेकिन कुछ चूके हुए मौकों से सीखकर रास्ता बदल लेने में ही समझदारी होती है। भारत भय, प्रतिष्ठा, हित, हेकड़ी और ताकत के प्रदर्शन की भावना जैसे मुद्दों को समझता है जिन्होंने यूक्रेन के खिलाफ पुतिन को प्रेरित किया होगा क्योंकि इनमें से कई मुद्दे भारत-चीन के रिश्तों को भी प्रभावित कर रहे हैं।’

आइडिएशन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण
उनके मुताबिक, ‘यूक्रेन से सीखना चाहिए कि रणनीति तौर पर आगे बढ़ने और क्षमता विस्तार से पहले सोच-विचार और आइडिएशन बहुत जरूरी होता है। भारत में सामरिक मामलों पर योजना बनाने वालों को इसका आकलन करना होगा कि क्या रूस का दुस्साहस चीन का मनोबल और बढ़ाएगा जिससे विश्व व्यस्था को बनाए रखने की चुनौतियां बढ़ जाएंगी। इस आकलन के लिए हमारे वरिष्ठ रणनीतिकारों और सैन्य नेतृत्वकर्ताओं को काफी गहराई में उतरना होगा और खूब माथा-पच्ची करनी होगी। उन्हें समय रहते टैलेंट नर्चर करने होंगे, साथ ही अनुशासन के अधीन रहकर बहस-मुबाहिसों को बढ़ावा देने के लिए विश्वास का माहौल कायम करना होगा।’


चीन से मुकाबला करना हो तो…
लेखक इन बातों को उदाहरण देकर समझाते हैं। वो कहते हैं, ‘चीनी सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी के दो कर्नल कियाओ लियांग (Qiao Liang) और वांग शियांगसुई (Wang Xiangsui) ने 1999 में एक किताब प्रकाशित की- Unrestricted Warfare: China’s Master Plan to Destroy America जो सार्वजनिक रूप से सुलभ है। दोनों ने देंग शियाओपिंग (Deng Xiaoping) की Hide Your Strength And Bid Your Time (अपनी क्षमता छिपाकर रखो और सही वक्त की प्रतीक्षा करो) की नीति के तहत इस विचार पर सोचना संभवतः 1990 के दशक के शुरुआती सालों में ही शुरू किया होगा। उस वक्त लेखकों ने शायद ही यह सोचा होगा कि उनके विचार हालिया वर्षों में जापान, ताइवान, भारत जैसे दूसरी श्रेणी के दुश्मनों के खिलाफ चीन के उभरते ग्रे जोन और हाइब्रिड वॉरफेयर टेक्टिक्स की आधारशिला रखेंगे।’

टैलेंट्स को तवज्जो देकर ही बन सकती है रणनीति
वो आगे कहते हैं, ‘तानाशाही चाइनीज कम्यूनिस्ट पार्टी (CCP) अपने आगे-पीछे डोलते इंटेलेक्चुअल माइंड्स से विचार लेकर उन्हें चीन के चरित्र और जरूरतों के मुताबिक ढाल रही है। इससे इतर, एकेडमी ऑफ मिलिट्री साइंसेज है जो एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज जैसे सिविलियन थिंकटैंक्स की मदद से व्यापक राष्ट्रीय ताकत (Comprehensive National Power) की रूपरेखा तैयार करता है। यह सोवियत संघ के पतन के बाद राष्ट्र शक्ति की स्थापित पश्चिमी अवधारणा के बरक्स खड़ा किया गया।’

चीन की चतुराई के सामने भारत कहां
उनका सवाल है, ‘भारत की स्ट्रैटिजिक इस्टेब्लिशमेंट, इसके सुरक्षा बलों और रक्षा उद्योग से जुड़े लोगों की तरफ से भी क्या इसी तरह के बड़े-बड़े विचार मिल रहे हैं?’ फिर कहते हैं, ‘मुझे लगता है- बहुत कम।’ वो कहते हैं कि इस तरह की आखिरी मिसाल जनरल सुंदरजी और के. सुब्रमण्यम की तरफ से पेश की गई थी जिन्होंने बेहतरीन नीतिगत विचार पेश करते हुए लिखा था कि भारत को अपना परमाणु शस्त्रागार सक्रिय करना पड़े, इससे पहले उसे परमाणु प्रतिरोध क्षमता हासिल कर लेना चाहिए। इस विचार ने परमाणु प्रतिरोध क्षमता हासिल करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय के बीच आपसी तालमेल बढ़ा। वह एक बड़े सामरिक लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में भारत की स्ट्रैटिजिक कम्यूनिटी की एकजुटता का बेजोड़ उदाहरण था। जैसा है, चलने दो (यथास्थितिवादी) की सोच वाले कहेंगे कि आज भी बहुत से आइडियाज हैं लेकिन उन पर तब आगे बढ़ा जाएगा जब इसकी जरूरत पड़ेगी।

बीते 7 वर्षों में बदल गई भारत की रणनीति
वो कहते हैं कि भारत पिछले सात वर्षों से धीरे-धीरे संकेत दे रहा है कि वह अब प्रतिरोध की ज्यादा सशक्त और आक्रामक नीति पर आगे बढ़ेगा। जम्मू-कश्मीर में कठोर राजनीतिक कार्रवाई के असर से भारत विरोधियों में तहलका मचा दिया। इन सबसे लगने लगा है कि भारत विभिन्न परिस्थितियों से निपटने के लिए रणनीतिक रूप से तैयार है।

लेखक ने कहा, ‘शुरुआती दौर में आयोजित होने वाले मिलिट्री कमांडरों के सम्मेलनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सामरिक और सैन्य शक्ति के बीच तालमेल और उनके स्तर से आइडिएशन की जरूरत पर बहुत जोर दिया करते थे, लेकिन बाद में यह कमजोर पड़ता दिखा। वरिष्ठ नेतृत्वकर्ताओं को मौजूदा मुद्दों पर सारी ऊर्जा खपाने की जगह भविष्य की चिंताओं पर सोच-विचार के लिए ज्यादा वक्त निकालना चाहिए। उन्हें नॉलेज सोसायटी को संपूर्णता में स्वीकार करना चाहिए। उन्हें तरह-तरह के विचारों का स्वागत करके और सहयोगियों को बेहतर विचारों के साथ आने को प्रेरित करके खुद को विश्वास, उत्सुकता और विनम्रता के कॉकटेल से खुद को ऊर्जान्वित करते रहना चाहिए।’

जिम्मेदारी तो लेनी होगी
पूर्व वायुसेना अधिकारी के मुताबिक, अतीत के अनुभवों पर आधारित और अपनी सभ्यता के अनुकूल आने वाले विचार रणनीतिक निर्णय प्रक्रिया की दृष्टि से काफी मत्वपूर्ण होते हैं। उनका कहना है कि आखिर में हम वही बनते हैं जो हम बनना चाहते हैं- एक उभरती ताकत, एक अग्रणी ताकत या फिर एक मध्यम दर्जे की क्षमता वाला देश। असफलता का दोष लोगों पर मढ़ना तो आसान है, लेकिन असल जिम्मेदारी तो सामरिक नेतृत्वकर्ताओं की ही होती है।

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