ब्‍लॉगर

संस्कृत है जीवन-संजीवनी !

– गिरीश्वर मिश्र

मनुष्य जीवन में वाक शक्ति या वाणी की उपस्थिति कितना क्रांतिकारी परिवर्तन ला देती है यह बात मानवेतर प्राणियों के साथ शक्ति, संभावना और उपलब्धि की तुलना करते हुए सरलता से समझ में आ जाती है। ध्वनियां और उनसे बने अक्षर तथा शब्द भौतिक जगत में विलक्षण महत्व रखते हैं। भाषा और उसके शब्द किसी वस्तु के प्रतीक के रूप में हमें उस वस्तु के अभाव में भी उसके उपयोग को संभव बनाते हैं। दूसरी तरह कहें तो भाषा हमें कई तरह के बंधनों स्वतंत्र करती चलती है, वह हमारे लिए विकल्प भी उपलब्ध कराती है और रचने-रचाने की अपरिमित संभावनाएं भी उपस्थित करती है।

यह भाषा ही है जो हमारे अनुभव के देशकाल को स्मृति के सहारे एक ओर अतीत से जोड़ती है तो दूसरी ओर अनागत भविष्य को गढ़ने का अवसर देती है। यानी भाषा मूर्त और अमूर्त के भेद को पाटती है और हमारे अस्तित्व को विस्तृत करती है। आंख की तरह भाषा हमें एक नया जगत दृश्यमान उपलब्ध कराती है। इसके साथ अनुभवों, वस्तुओं और खुद संप्रत्ययों की कोटियां और श्रेणियां बनती-बिगड़ती रहती हैं। हमारी सुख-दुख, हर्ष-विषाद, राग-द्वेष, क्रोध-प्रेम, उद्दरता-संकोच और सहयोग-घृणा आदि की भावनाएं भी शब्दों में व्यक्त होती हैं। वस्तुत: अनुभव की सत्ता शब्द की सत्ता के साथ इस तरह जुड़ती जाती है कि हम शब्द के माध्यम से अनुभव की यात्रा करते हैं। शब्दों और उनके अनुभवों से जुड़ कर हम स्वयं भी बदलते जाते हैं। यही सोच कर शब्द ब्रह्म और अक्षर जगत (जो जीर्ण-शीर्ण न होता हो !) की सत्ता स्वीकार की गई। भाषा मनुष्य की अर्जित ज्ञान-राशि को सुरक्षित रखते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाती रहती है बशर्ते उसे व्यवहार में स्थान दिया जाय। भाषा के उपयोग के इतने रूप और स्तर हैं कि उसके अध्ययन के लिए आज अनेक शास्त्र विकसित हो चुके हैं। सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी में तेजी से हो रहे बदलाव भाषा के उपयोग की नई-नई संभावनाओं को जन्म दे रहे हैं।

भाषा को व्यवस्थित कर सभ्य समाज में संचार और संवाद के लिए एक ऐसा शक्तिशाली उपकरण और संसाधन उपलब्ध हो गया है जिसका कोई विकल्प नहीं है। उसका महत्व हमारी अस्मिता को रेखांकित करने में दिखता है। इसी तर्क को लेकर भाषाओं के वर्चस्व को लेकर प्रतिस्पर्धा और कदाचित प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संघर्ष आज भी विश्व में जारी हैं। शक्ति और भाषा का मेल क्या कुछ कर सकता है यह देखने-समझने के लिए भारतवर्ष का भाषाई अनुभव एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है। संस्कृत भाषा की उपस्थिति न केवल अति प्राचीन है बल्कि उसमें विपुल ज्ञान-राशि भी विद्यमान है जो अनेक विषयों में हजारों वर्षों के सतत विचार, गहन अनुसंधान, गंभीर प्रयोग और उत्कृष्ट सिद्धांत-निर्माण का प्रतिफल है। भाषा के रूप में संस्कृत की रचना, प्रयोग और वैज्ञानिकता असंदिग्ध है। संस्कृत का उपयोग सामान्य जीवन में भी रहा है और उसकी गूंज आज भी सुनाई पड़ती है। संस्कृत अनेक भारतीय भाषाओं की जननी है और संस्कृत के शब्द भंडार की ऋणी हैं।

आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत में उपलब्ध सिद्धांत जीवन से जुड़े अधिकांश विषयों का समावेश करते हैं और उनमें उपलब्ध विवेचन बड़े मुक्त मन से बिना किसी तरह के दुराग्रह के किया गया है। जिस खुलेपन के साथ विमर्श, वाद-विवाद और शास्त्रार्थ की समृद्ध परम्परा संस्कृत में जीवित रही है उसी का परिणाम है कि इस विचार-सरणि में विचारों और दृष्टियों की व्यापक विविधता है। उदाहरण के लिए भारतीय दर्शनों को देखें तो वेदान्त, मीमांसा, सांख्य, न्याय, जैन, बौद्ध, तथा चार्वाक आदि अनेक दृष्टियां विकसित हुई हैं। यही नहीं सिर्फ वेदान्त के क्षेत्र में ही द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत और भेदाभेद के विविधवर्णी विचार विद्यमान हैं। इनकी चर्चाएं अनुभव और तर्क के आधार पर मत स्थिर करती हैं। वेदों में आध्यात्मिक और अन्य प्रकार का ज्ञान, योग में चेतना, आयुर्वेद में स्वास्थ, उपनिषदों में आत्म-विचार तथा व्याकरण में भाषा-व्यवहार की गहराई और व्यापकता अध्येताओं के लिए स्पृहणीय है। ऐसे ही पुराणों और स्मृतियों के साथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, चाणक्य का अर्थशास्त्र, ज्योतिष और गणित के ग्रन्थ, महाभारत, रामायण और समृद्ध काव्य-साहित्य ऐसी विरासत का निर्माण करते हैं जो न केवल देश-गौरव का माध्यम है बल्कि जीवनोपयोगी है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांत प्राय: किसी धर्म, जाति या क्षेत्र विशेष के पक्षधर नहीं हैं।

दुर्भाग्य से अंग्रेजी राज की शिक्षा के क्रम में ज्ञान के इस स्रोत को ऐसे ढंग से अप्रासंगिक, अनावश्यक और अनुपयोगी बना दिया गया कि यह उपेक्षित होती गई और उसका उपयोग एक भार बन गया जिससे मुक्त होने में ही कल्याण समझा गया। अंग्रेजी के आकर्षण की दुरभिसंधि कुछ इस तरह की हुई कि उदार, सृष्टि की पक्षधर तथा जीवनोन्मुखी संस्कृत को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। आज जिस तरह एक प्रकार के सांस्कृतिक क्षरण का अनुभव हो रहा है उसमें सामाजिक जीवन में मूल्यों की गिरावट और प्रकृति-पर्यावरण के प्रति संवेदनहीनता बढ़ रही है। संस्कृत से अपरिचय के साथ भारतीय संस्कृति में प्रवेश कठिन हो जाता है और हम पराधीन होने लगते हैं। अब जब स्वराज, आत्मनिर्भरता, स्वाधीनता और स्वदेशी के स्वर मुखर हो रहे हैं और हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो भारत को आत्मचेतस भी होना पड़ेगा जिसके लिए संस्कृत के निकट जाना आवश्यक है। देश की प्रस्तावित शिक्षा नीति में इसका सम्यक प्रावधान होना चाहिए ।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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