ब्‍लॉगर

आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति

– रमेश सर्राफ धमोरा

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं। जिनमें से 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। हमारे देश में शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्य सामाजिक दुश्वारियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों। देश में हर चार मिनट में एक आत्महत्या की जाती है।

2018 में पारित मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 के तहत भारत में आत्महत्या के अपराधीकरण का कानून खत्म करते हुए मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों को मुफ्त मदद का प्रावधान किया गया है। इस नए कानून के तहत आत्महत्या का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मदद पहुंचाना, इलाज करवाना और पुनर्वास देना सरकार की जिम्मेदारी होगी।

भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में मानसिक स्वास्थ से जूझ रहे लोगों की संख्या बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। हालांकि इस मामले में अभीतक विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से कोई ठोस बयान जारी नहीं किया गया है। लेकिन विश्व के अलग-अलग हिस्सों में आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर तुरंत संज्ञान लेने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट खुलासा करती है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लोग अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि विकसित देशों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में आत्महत्या की दर अधिक है। परन्तु विकासशील देशों में महिलाओं की आत्महत्या की दर अधिक पाई गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े यह भी खुलासा करते हैं कि आत्महत्या के मामले में भारत की स्थिति भी चिंताजनक है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है। भारत में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में एक लाख लोगों पर 2.5 फीसद की वृद्धि हुई है। आज भारत में 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसद तक बढ़ी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2019 में आत्महत्या करने से रोजाना 381 मौतें हुईं व पूरे साल में कुल 1लाख 39 हजार 123 लोग मरे। 2018 में 1लाख 34 हजार 516 और 2017 एक लाख 29 हजार 887 लोगों ने आत्महत्या की थी। 2018 की तुलना में 2019 के दौरान देश में आत्महत्याओं में 3 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। पिछले वर्ष देश में फांसी लगाकर आत्महत्या करने वाले 53.6 प्रतिशत लोग थे। वहीं जहर खाकर 25 प्रतिशत, पानी में डूब कर 5.2 प्रतिशत लागो ने आत्महत्या की थी। आत्महत्या करने वालों में 70.2 प्रतिशत पुरुष और 29 प्रतिशत महिलाएं थी।

देश में सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में 18 हजार 916 लोगों द्वारा आत्महत्याओं की गयी थी। इसके बाद तमिलनाडु में 13,493, पश्चिम बंगाल में 12,665, मध्य प्रदेश में 12,457 और कर्नाटक में 11,288 लोगों ने आत्महत्या की थी। देश में दर्ज कुल आत्महत्याओं का 49.5 प्रतिशत हिस्सा इन पांच राज्यों में था। शेष 50.5 प्रतिशत आत्महत्या की रिपोर्ट देश के अन्य सभी प्रदेशों की थी।

देश के कई हिस्सों में गरीब किसानों के द्वारा की जाने वाली खुदकुशी की घटनाएं भी किसी से छिपी नहीं हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तो इसके लिए कुख्यात है। देश के अन्य हिस्सों में कर्ज में डूबे गरीब व निर्धन किसान भी आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। असलियत तो यह है कि देश में किसी भी व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या इस सामाजिक व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है। देश के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। बीते वर्ष खुदकुशी के कारण देश ने 3 हजार किसानों को खोया था।

पिछले 20 सालों में हजारों किसानों ने अपना जीवन त्याग दिया। किसान जो अन्नदाता हैं। अपनी मेहनत से देश की 130 करोड़ जनसंख्या के पेट की आग बुझाता हैं। वही आज अपने पेट की आग नहीं बुझा पा रहे हैं। प्राकृतिक प्रकोप और ऊपर से सरकारी उदासीनता के कारण अन्नदाता दाने-दाने को मोहताज नजर आ रहे हैं। ऐसे में जब हालात बद से बदतर हो जाते हैं तब वे मजबूरन आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं।

भारत में अवसाद की बीमारी भी तेजी से पांव पसार रही है। आंकड़े बताते हैं कि विगत दशकों में बदलते परिवेश, आधुनिक जीवन-शैली, तात्कालिक विफलता और बढ़ती बेरोजगारी के कारण ग्रामीण भारत के युवाओं में अवसाद के कारण आत्महत्या करने की प्रवृति बढ़ी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2019 में कुल 1,39,123 लोगों ने आत्महत्या की थी। जिसमें बेरोजगारों की संख्या 14,019 थी। जो 2018 की तुलना में 8.37 प्रतिशत अधिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में करीब 23 लाख लोगों को तात्कालिक तौर पर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की जरूरत है। जबकि देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। देश में 130 करोड़ आबादी के लिए मात्र 5 हजार मानसिक रोग चिकित्सक हैं।

बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य को एक वैश्विक चुनौती करार देते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के हर देश को मेंटल हेल्थ पर गंभीर कदम उठाने की सलाह दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रिवेंशन के मुताबिक व्यक्ति को समय रहते भावनात्मक संबल मिल जाना ही आत्महत्या से बचाव का सबसे कारगर उपाय है। दुनिया के अनेक मनोविज्ञानियों ने अभिभावकों के लिए सलाह जारी की है। बच्चों से प्रतिदिन सहज संवाद को सबसे कारगर बताया गया है। बच्चों को यह सिखाया जाना जरूरी है कि खतरा क्या है और संभावित किसी भी परिस्थिति का सामना वे कैसे करें। वे अभिभावकों के साथ रोजमर्रा की छोटी से छोटी बात की जानकारी साझा करें। ताकि समय रहते सावधानी बरती जा सके।

सरकार को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की गहराई से पड़ताल करनी चाहिये और अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी के तौर पर ऐसे उपाय करे कि लोग अपनी जीवनलीला समाप्त करने का विचार ही दिमाग में न लाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में सरकारों को सलाह दी गई है कि आत्महत्या का मीडिया ट्रायल नहीं हो। देश में अल्कोहल को लेकर ठोस नीति बनाई जाए। आत्महत्या के संसाधनों पर रोक लगाते हुए आत्महत्या का प्रयास करने वालों की उचित देखभाल की जाए। समाज में सफल लोगों की असफलताओं से सीख लेकर भी आत्महत्या के बढ़ते रुझान पर काबू पाया जा सकता है।

मनोचिकित्सकों के मुताबिक आर्थिक परिवेश, सामाजिक परिवेश के साथ ही कई और भी कारण है। जिसके चलते अक्सर लोग निराश होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण परिवारिक समस्याओं का सामने आ रहा है। इसके बाद दूसरा बड़ा कारण असाध्य बीमारियों का है। जिसके चलते जीवन से निराश होकर लोग आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या के मामलों के अध्ययन के बाद सरकार और गैर-सामाजिक संगठनों को मिल कर एक ठोस पहल करनी होगी। इसके लिए जागरुकता अभियान चलाने के अलावा हेल्पलाइन नंबरों के प्रचार-प्रसार पर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही समाज में लोगों को अपने आसपास ऐसे लोगों पर निगाह रखनी होगी जिनमें आत्महत्या या अवसाद का कोई संकेत मिलता है। सबको मिलकर आगे बढ़ना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो यह आंकड़े साल दर साल बढ़ते ही रहेंगे। ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने की ठोस रणनीति व पहल के बिना देश में बढ़ती आत्महत्याओं पर रोक लगाना मुश्किल होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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