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वीरांगना दुर्गावती के बलिदान को हमेशा याद करेगा जमाना!

– डॉ. रमेश ठाकुर

गुजरे समय की महान वीरांगना ‘महारानी दुर्गावती’ के बलिदान को आज (24 जून) याद करने का दिन है। उनके अदम्य साहस को कोई नहीं भूल सकता। भूलना चाहिए भी नहीं और आने वाली पीढ़ी को भी बताते रहना चाहिए। उनके साहसी कहानी हमेशा जिंदा रहे, इसलिए सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट जारी है और जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर ‘रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय’ किया गया है। इसके अलावा कई संग्रहालय भी उनके नाम पर रखे गए हैं। मध्य प्रदेश का मंडला शासकीय महाविद्यालय भी अब रानी दुर्गावती के नाम से जाना जाता है। कई जिलों में उनकी प्रतिमाएं भी लगाई गई हैं और कई शासकीय इमारतों के नाम भी उन्हीं पर रखने का निर्णय हुआ है। हुकूमतों के ऐसे निर्णय वास्तव में सर्वमान्य और सराहनीय होते हैं। क्योंकि ऐसा करके आने वाली पीढ़ियों के ज्ञान में भी बढ़ोतरी होती है। ताकि उनको पता चले कि देश और समाज की रक्षा के लिए किन-किन योद्धाओं ने क्या-क्या किया था? गूगल और व्हाट्स ऐप युग में ऐसे वीर-वीरांगनाओं के संबंध में बताया बहुत जरूरी होता जा रहा है। गूगल-मोबाइल युग में लोग इतिहास को भूलते जा रहे हैं।


रानी दुर्गावती वीरता की ऐसी मिसाल थीं जिसने विरोधियों के न सिर्फ छक्के छुड़ाए थे, बल्कि अपने अदम्य साहस से उन्हें मैदान-ए-जंग में पराजित भी किया। मुसलमान शासक बाजबहादुर ने उन पर कई मर्तबा हमला किया। पर, हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। महिला वीरांगनाओं की जब भी बातें होंगी, तब-तब मुगल साम्राज्य के खिलाफ बिगुल बजाने के लिए रानी दुर्गावती को याद किया जाएगा। महारानी के साहस के प्रेरणादायक किस्से पढ़कर युवा पीढ़ी हमेशा प्रेरित होती रहेगी। दुर्गावती, मध्य प्रदेश के जबलपुर गढ़ा साम्राज्य की महारानी थीं। उनका शासनकाल 1550 से लेकर 1564 ईस्वी तक रहा। उन्हें हिंदुस्तान की प्रसिद्ध चंदेल क्षत्राणी में गिना जाता था। विरोधी भी उनकी वीरांगना के कायल थे। वीरता की इस त्रिमूर्ति को जन्म दुर्गाष्टमी के दिन पांच अक्टूबर 1524 को कालिंजर के राजा कीर्तिवर्मन चंदेल (द्वितीय) के घर हुआ था।

मुगल साम्राज्य के खिलाफ अपने राज्य की रक्षा के तौर पर महारानी को सदैव याद किया जाएगा। उनके द्वारा लड़ी प्रमुख लड़ाइयों की बात करें, तो मंडावी गोंडो के सुख-संपन्न क्षेत्र पर मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला बोला। उसके अलावा मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारंभ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी और उनके विश्वस्त वजीर आधार सिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने ठुकरा दिया। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना साम्राज्य पर हमला करवाया। तब हजारों आदिवासी भीलों, गौर और बंजारा समुदाय के लोगों ने रानी दुर्गावती की रक्षा की। कइयों ने अपनी जान गंवाई, लेकिन रानी को कुछ नहीं होने दिया। महारानी ने आसफ खां को पराजित करके अपने क्षेत्र से खदेड़ा। उसके बाद अकबर खुद दुगनी सेना लेकर अचानक दुर्गावती पर हमलावर हुआ। तब महारानी के पास बहुत कम सैनिक थे, बावजूद इसके हार नहीं मानी। युद्ध में करीब तीन हजार मुगल सैनिक मारे गए थे। उस युद्ध में महारानी ने किसी तरह अपनी जान बचाई।

अकबर की खूब किरकिरी हुई, लोग उसका मजाक बनाने लगे, कि एक महिला को नहीं हरा पाया? खुन्नस में आकर करीब साल भर बाद फिर से हमला किया। तब महारानी का पक्ष बहुत दुर्बल था। युद्ध छिड़ चुका था, तभी रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। एक दिन लड़ते-लड़ते एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरा तीर उनकी आंख को जा घुसा। रानी ने उसे भी निकाल फेंका। तभी, एक तीसरे तीर ने उनकी गर्दन को काफी नुकसान पहुंचाया। बस नहीं चला तो रानी ने अंत समय में अपने वजीर आधार सिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे। पर, वह तैयार नहीं हुआ। अंत में रानी ने खुद अपनी कटार से अपनी गर्दन को धड़ से अलग कर आत्म बलिदानी हो गई और आज ही के दिन यानी 24 जून 1564 को वीरगति को प्राप्त हुईं। मरते मर गईं, लेकिन किसी के समक्ष झुकना पसंद नहीं किया। आजादी और स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों को अर्पित करने वाली महान वीरांगना योद्धा की आज पुण्यतिथि पर बारंबार प्रणाम।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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