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रक्षाबंधन: महकती रहें यह राखियां सदा

– योगेश कुमार गोयल

रक्षाबंधन का पर्व रक्षा के तात्पर्य से बांधने वाला एक ऐसा सूत्र है, जिसमें बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाकर जीवन के हर संघर्ष तथा मोर्चे पर उनके सफल होने तथा निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहने की ईश्वर से प्रार्थना करती हैं तथा उनके सुखद जीवन के लिए मंगलकामना करती हैं। भाई इस कच्चे धागे के बदले अपनी बहनों की हर प्रकार की विपत्ति से रक्षा करने का वचन देते हैं और उनके शील एवं मर्यादा की रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। वास्तव में भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक पर्व रक्षाबंधन स्नेह, सौहार्द एवं सद्भावना का एक ऐसा पर्व है, जो उन्हें अटूट एकता के सूत्र में बांध देता है। रक्षाबंधन पर्व इस वर्ष 30 अगस्त को मनाया जा रहा है। श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले रक्षाबंधन पर्व की भारतीय समाज और संस्कृति में कितनी महत्ता है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बहनों के हाथ अपने भाइयों यों की कलाइयों पर राखियां बांधने के लिए मचल उठते हैं और कलाई पर बांधे जाने वाले मामूली से दिखने वाले इन्हीं कच्चे धागों से पक्के रिश्ते बनते हैं। पवित्रता तथा स्नेह का सूचक यह पर्व भाई-बहन को पवित्र स्नेह के बंधन में बांधने का पवित्र एवं यादगार दिवस है। इस पर्व को भारत के कई हिस्सों में श्रावणी के नाम से जाना जाता है। पश्चिम बंगाल में ‘गुरु महापूर्णिमा’, दक्षिण भारत में ‘नारियल पूर्णिमा’ तथा नेपाल में इसे ‘जनेऊ पूर्णिमा’ के नाम से जाना जाता है।

रक्षाबंधन का पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि जब देवराज इन्द्र बार-बार राक्षसों से परास्त होते रहे और हर बार राक्षसों के हाथों देवताओं की हार से निराश हो गए तो इन्द्राणी ने बहुत कठिन तपस्या की और अपने तपोबल से एक रक्षासूत्र तैयार किया। यह रक्षासूत्र इन्द्राणी ने देवराज इन्द्र की कलाई पर बांधा। तपोबल से युक्त इस रक्षासूत्र के प्रभाव से देवराज इन्द्र राक्षसों को परास्त करने में सफल हुए। तभी से रक्षाबंधन पर्व की शुरुआत हुई। एक उल्लेख यह भी मिलता है कि जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया, तब उन्होंने एक ब्राह्मण वेश धारण कर अपनी दानशील प्रवृत्ति के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्ध राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी और बलि द्वारा उनकी मांग स्वीकार कर लिए जाने पर भगवान वामन ने अपने पग से सम्पूर्ण पृथ्वी को नापते हुए बलि को पाताल लोक भेज दिया। कहा जाता है कि उसी की याद में रक्षाबंधन पर्व मनाया गया।


रक्षाबंधन पर्व से कई ऐतिहासिक प्रसंग भी जुड़े हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस पर्व की शुरुआत मध्यकालीन युग से मानी जाती है। भारतीय इतिहास ऐसे प्रसंगों से भरा पड़ा है, जब राजपूत योद्धा अपनी जान की बाजी लगाकर युद्ध के मैदान में जाते थे तो उनके देश की बेटियां उन वीर सैनिकों की आरती उतारकर उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा करती थी तथा वीर रस के गीत गाकर उनकी हौसला आफजाई करते हुए उनसे राष्ट्र की रक्षा का प्रण भी कराती थी। कहा जाता है कि उस जमाने में अधिकांश मुस्लिम शासक हिन्दू युवतियों का बलपूर्वक अपहरण करके उन्हें अपने हरम की शोभा बनाने का प्रयास किया करते थे और ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए राजपूत कन्याओं ने बलशाली राजाओं को राखियां भेजकर उनके साथ भ्रातृत्व संबंध स्थापित कर अपने शील की रक्षा करनी आरंभ कर दी थी। उसी परम्परा ने बाद में रक्षाबंधन पर्व का रूप ले लिया।

चितौड़ की महारानी कर्मावती का प्रसंग तो इस संबंध में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कहते हैं जब गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चितौड़ पर आक्रमण कर दिया तो चितौड़ की महारानी कर्मावती घबरा गई। उन्हें चितौड़ के साथ-साथ स्वयं की तथा चितौड़ की अन्य राजपूत बालाओं की सुरक्षा का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। कोई उपाय न सूझने पर रानी कर्मावती ने बादशाह हुमायूं को राखी के धागे में रक्षा का पैगाम भेजा और हुमायूं को अपना भाई मानते हुए उनसे अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की। बादशाह हुमायूं महारानी कर्मावती का यह रक्षासूत्र और संदेश पाकर भाव विभोर हो गए और अपनी इस अनदेखी बहन के प्रति अपना कर्तव्य निभाने तुरन्त अपनी विशाल सेना लेकर चितौड़ की ओर रवाना हो गए लेकिन जब तक वह चितौड़ पहुंचे, तब तक महारानी कर्मावती और चितौड़ की हजारों वीरांगनाएं अपने शील की रक्षा हेतु अपने शरीर की अग्नि में आहुति दे चुकी थीं। उसके बाद हुमायूं ने महारानी कर्मावती की चिता की राख से अपने माथे पर तिलक लगाकर बहन के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए जो कुछ किया, वह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया तथा इसी के साथ रक्षाबंधन पर्व के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय भी जुड़ गया। इस ऐतिहासिक घटना के बाद ही यह परम्परा बनी कि कोई भी महिला या युवती जब किसी व्यक्ति को राखी बांधती है तो वह व्यक्ति उसका भाई माना जाता है।

समय के साथ-साथ रक्षाबंधन पर्व के स्वरूप और मूल उद्देश्य में बहुत बदलाव आया है। तेजी से आधुनिकता की ओर अग्रसर आज के इस भागदौड़ भरे और स्वार्थपरक जमाने में जहां बहनों के लिए अब राखी का अर्थ भाई से महंगे उपहार तथा नकदी इत्यादि पाना हो गया है, वहीं भाई भी अपनी निजी जिन्दगी की व्यस्तता के चलते बहनों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन सही ढंग से नहीं कर पाते। ऐसे में यह पवित्र पर्व अब रुपये-पैसे तथा साड़ी, आभूषण व अन्य कीमती उपहारों इत्यादि के लेन-देन का पर्व बनता जा रहा है और भाई-बहन के बीच राखी का मोलभाव होने की वजह से धीरे-धीरे इस पर्व की मूल भावनाएं सिकुड़ रही हैं। कच्चे धागों की जगह रेशम के धागों ने ले ली और अब इन धागों की अहमियत कम होती जा रही है। रक्षाबंधन महज कलाई पर एक धागा बांधने की रस्म नहीं है बल्कि यह भाई-बहन के अटूट स्नेह, पवित्रता और सद्भावना का पर्व है। यह पर्व रिश्तों की पवित्रता और वचनबद्धता का प्रतीक है। इसलिए रक्षाबंधन पर्व को चंद रुपयों या कीमती उपहारों से तोलकर देखना इस पर्व के अंतस में विद्यमान पवित्र भावना का अपमान है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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