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तुलसी जयंतीः जिन्होंने धर्म को सहज, सरल और सरस बना दिया

– ओमप्रकाश श्रीवास्तव

संसार और परमात्मा दो ऐसे शब्द हैं जो पूरक भी हैं और विरोधी भी प्रतीत होते हैं। संसार अर्थात् प्रकृति, जैसे – आकाश, हवा, पानी, सूर्य, तारे, पहाड़, समुद्र आदि – जिसे हम अपने चारों ओर देखते हैं, एक सार्वभौमिक पूर्वनिर्धारित तरीके से व्यवहार करते हैं। इस व्यवस्था के नियमों की खोज ही विज्ञान है। प्रकृति के नियम बिना अपवाद के काम करते हैं। इसलिए विज्ञान के आविष्कार सभी के लिए होते हैं। जैसे, गुरुत्वाकर्षण प्रकृति का नियम है । वायु के घनत्व और यान की गति को आधार बनाकर हवाई जहाज गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध उड़ सकता है। यह खोज लम्बे समय तक अनेक लोगों के प्रयासों का परिणाम है, परंतु जब एक बार हवाई जहाज बन गया तो वह सबके लिए सुलभ हो गया, भले ही उसमें बैठने वाला व्यक्ति उस विज्ञान को जानता हो या नहीं।

धर्म के मामले में स्थिति अलग है। यह आंतरिक अनुभव पर आधारित है। अनुभव व्यक्तिगत होता है। अनुभूतियों को व्यक्त करना मुश्किल होता है क्योंकि सुनने वाले के पास उक्त अनुभव नहीं है। इसलिए अनुभूति को दूसरे को बताने के लिए शब्दों का चयन अत्यंत कठिन है। कई बार शब्द ही नहीं मिल पाते, कई बार नए शब्द गढ़ने पड़ते हैं। अनुभूति का वर्णन तो दूर की बात है, संसार में ही कई चीजों के वर्णन में भाषा कठिन से कठिनतर हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि हम बैलगाड़ी का वर्णन करें तो सरल भाषा में काम चल जाएगा परंतु अंतरिक्ष यान की संरचना का वर्णन करें तो भाषा अत्यंत दुरुह हो जाएगी। यान जितना परिष्कृत होगा, उसकी संरचना उतनी की जटिल होगी और उसका वर्णन करना उतना ही कठिन होता जाएगा । कितनी अद्भुत बात है कि आध्यात्मिक अनुभव अत्यंत परिष्कृत, सरल और आनंदमय है। इसलिए उसे व्यक्त करना उतना ही कठिन है। अध्यात्म के जो ग्रंथ कठिन और विद्वतापूर्ण हैं, वे ग्रंथालयों की शोभा तो बन सकते हैं परंतु जनसामान्य के हृदय में स्थान नहीं बना सकते। भाषा की कठिनाई ही अध्यात्म की सबसे बड़ी समस्या है।

सनातनधर्म, जिसे अब हिन्दू धर्म कहते हैं, का प्रारंभ वेदों से हुआ। वेदों को श्रुति कहा जाता है। श्रुति का अर्थ है जो सुना गया। ऋषियों को ध्यान की गहन अवस्था में जो अनुभूतियां हुईं या यूं कहें कि उन्होंने आत्मा की जो आवाज सुनी, उन्हें वेदों की ऋचाओं के रूप में व्यक्त किया गया। ऋचाएं, अनुभूतियों को सूत्र रूप में व्यक्त करती हैं, इसलिए कठिन हैं। उन्हें सरल बनाने के लिए उनकी विशद् विवेचना उपनिषदों के रूप में की गई। इसके बाद पुराणों और इतिहास ग्रंथों, जैसे महाभारत और वाल्मीकि रामायण, की रचना हुई जिनमें कथाओं, इतिहास की घटनाओं और रोजमर्रा के सांसारिक उदाहरणों के माध्यम से आध्यात्मिक तत्वों को समझाया गया। यह कथाएं मात्र उपदेश नहीं हैं, बल्कि ऐसे जीवन मूल्यों से आच्छादित हैं, जिनके प्रभाव से जनसामान्य कठिन आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझे बगैर ही आचरण के माध्यम से उनकी अनुभूति कर सकता है। यह आचरण के माध्यम से जनसामान्य के जीवन को आध्यात्मिक बनाने का प्रयास है और इसका मूल है धर्म को सहज-सरल बनाकर प्रस्तुत करना।

इसके बाद भी धर्म को सहज सरल तरीके से प्रस्तुत कर जनसामान्य को ग्राह्य बनाने के प्रयास समय-समय पर अनेक महापुरुष करते रहे। इसका सबसे बड़ा प्रयास गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में किया, जिनमें रामचरितमानस प्रमुख है। उन्होंने सभी वेद, पुराण, निगम, आगम से सार तत्त्व निकालकर सामान्य भाषा में रख दिया -‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्’। वे कहते हैं कि रचना सरल हो व उसमें सार्थकता हो, उससे लाभ मिले तभी लोग उसका आदर करेंगे – ‘सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।’ उन्होंने अपने काव्य को इतना सरल और सहज बनाया कि वह आसानी से समझ में तो आए ही, साथ ही उसकी लय आनन्द दे। इसीलिए मानस का अर्थ न समझने वाले लोग भी उसका पाठ करके आनन्द सागर में डूब जाते हैं।

गूढ़ सिद्धांतों को सरल और कम शब्दों में कैसे कहा जाए, इसके तो तुलसीदास जी चितेरे हैं। आत्मा अनादि, अनित्य, सनातन है और शरीर मरणशील, इस बात को राम, बाली की पत्नी तारा से कितने सीधे सरल शब्दों में कहते हैं- ‘प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।’ हम अपने अनुभव यथावत् वर्णन नहीं कर सकते, इसे समझाने के लिए तुलसी उदाहरण देते हैं कि सीता जी की सखी कहती है कि वह राम लक्ष्मण की सुंदरता का वर्णन नहीं कर सकती क्योंकि जिन ऑखों ने उन्हें देखा उनके वाणी नहीं है और जिस वाणी से कहना है उसके पास ऑंखें नहीं हैं-‘स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।’ ऐसे ही कितने ही आध्यात्मिक सिद्धांत तुलसी की रचनाओं में बिखरे पड़े हैं।

धर्म को सहज-सरल-सरस रूप में प्रस्तुत करने के साथ ही साथ तुलसीदास ने विभिन्न मतों का समन्वय किया। वैदिक काल से ही शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर और गाणपत्य मुख्य संप्रदाय थे। तुलसी के समय तक प्रथम तीन ही प्रमुख रह गये थे। उन्होंने शिव और विष्णु के अवतार राम को एक-दूसरे का पूज्य बना दिया और शक्ति को सीता के रूप में राम की अर्द्धांगिनी बनाकर इनके बीच का द्वंद सदैव के लिए समाप्त कर दिया। इनमें कोई कम या ज्यादा नहीं है। राम कहते हैं – ‘सिव द्रोही मम भगत कहावा, सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा।’ वहीं शिव राम को परमात्मा कहते हैं – ‘राम सो परमातमा भवानी’ । और रातदिन राम राम जपते हैं – ‘तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती।’ राम की अर्द्धांगिनी आदिशक्ति की अवतार सीता भी साधारण नहीं हैं। उनकी भृकुटि के विलास अर्थात् कम्पन्न मात्र से (इशारा करना तो दूर की बात है, मात्र कम्पन्न से) सृष्टि की उत्पत्ति हो जाती है -‘भृकुटि विलास जासु जग होई, राम बाम दिसि सीता सोई।’ इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता की नींब तुलसी ने रख दी । आज यदि एक ही मंदिर में एक ही लोटे से शिव, विष्णु और शक्ति को जल चढ़ा देते हैं तो इस समन्वय का श्रेय बहुत हद तक तुलसीदास जी को जाता है। निर्गुण और सगुण उपासना के तरीके भले ही भिन्न हों पर तुलसी ने दोनों को एक ही ब्रह्म का स्वरूप बताकर झगड़ा समाप्त कर दिया -‘अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।’ एक अन्य प्रसंग में तुलसी कहते हैं -‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।’

तुलसी की तुलना का कोई भी कवि इतिहास में नहीं हुआ। किसी भी रचना का शरीर तो शब्द हैं परंतु उसकी आत्मा उन शब्दों से प्रदर्शित भाव है। कवि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह भाव के अनुरूप शब्द खोजे। जब तुलसीदास जी कहते हैं कि उनकी कबिता नदी की तरह बिना प्रयास के चल पड़ी, तब शब्द देखिए -‘चली सुगभ कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो।’ यह शब्द आपके मुँह से बिना प्रयास फिसलते जाते हैं जैसे नदी वह रही हो। वहीं युद्ध की विभीषिका के शब्द देखिए -‘बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं।’ इन शब्दों को समझ न पाऍं तब भी उनका गठन, उच्चारण की कठिनता आपके चित्त पर युद्ध दृश्य उकेर देती है।

तुलसी ने भाषा में लिखकर और उसमें अरबी, फारसी, अवधी, ब्रजी, संस्कृत के शब्द अपना कर सांस्कृतिक सम्मिलन किया और पंडित वर्ग को अपनी हेठी और अहम्मन्यता त्यागकर जनभाषा की ओर आने के लिए विवश कर दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो तुलसीदास जी ने धर्म को भाषायी क्लिष्टता और पांडित्य के अहम् से मुक्त कराकर जनसामान्य को सहज, सरल और सरस रूप में उपलब्ध करा दिया।

तुलसीदास जी की प्रमाणिक जानकारी का स्रोत उनके शिष्य वेनीमाधवदास द्वारा रचित मूल गोसाईं चरति है। इसमें तुलसी की समाज और धर्म को महान देन को संक्षिप्त में इस प्रकार कहा गया है –

बेदमत सोधि-सोधि कै पुरान सबै , संत औ असंतन को भेद को बतावतो ।

कपटी कुराही कूर कलिके कुचाली जीव, कौन रामनामहू की चरचा चलावतो ॥

बेनी कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह , पाहन-हिये में कौन प्रेम उपजावतो ।

भारी भवसागर उतारतो कवन पार, जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो ॥

भारत का समाज, धर्म, दर्शन और संस्कृति तुलसी की सदैव ऋणी रहेगी। तुलसी जयंती पर रामभक्ति के शलाका पुरुष संत तुलसीदास को शत-शत नमन।

( भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी लेखक धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं)

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