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हाइपरसोनिक मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में भारत की बड़ी छलांग

– प्रमोद भार्गव

भारत ने हाइपरसोनिक मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी हासिल की है। देश ने स्वदेशी हाइपरसोनिक प्रौद्योगिकी प्रदर्शक यान, यानी हाइपरसोनिक तकनीक डिमांस्ट्रेटर व्हीकल (एचएसटीडीवी) का सफल परीक्षण किया है। इस सफलता से भारत अगली पीढ़ी के हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल विकसित करने की तकनीक हासिल करने वाला चौथा देश बन गया है। अभीतक अमेरिका, रूस और चीन के पास यह तकनीक थी। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने इस मिसाइल को तैयार किया है, जो हाइपरसोनिक प्रणोदक तकनीक पर आधारित है। इसका परीक्षण ओडिशा के डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम परिसर से किया गया है।

डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. जी सतीश रेड्डी ने बताया कि ‘यह मिसाइल आवाज से 6 गुना अधिक तेज गति, यानी 2 किमी प्रति सेकेंड की रफ्तार से निशाना साधती है। इसकी सहायता से लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल प्रणाली विकसित की जा सकती है। इस तकनीक की मदद से कम लागत पर अंतरिक्ष में उपग्रह भी स्थापित किया जा सकता है।’ इससे विकसित मिसाइल दुनिया के किसी भी कोने में दुश्मन के ठिकानों को घंटे भर के भीतर तबाह कर सकती है। इसकी एक अन्य विलक्षणता यह भी है कि इसकी गति अधिक होने के चलते दुश्मन देश के वायु रक्षा प्रणाली इसके गुजरने की भनक तक नहीं लगा पाती। जबकि अन्य मिसाइलें बैलिस्टिक ट्रेजरी पर काम करती हैं। जिसका मतलब है कि उनके रास्ते का सरलता से पता लगाया जा सकता है। जबकि हाइपरसोनिक मिसाइल तय मार्ग पर नहीं चलती, इसलिए इसकी टोह लेना मुश्किल होता है। इस सफल परीक्षण के बाद अब इसी पीढ़ी की अगली मिसाइल ब्रह्मोस-2 तैयार करने में सहायता मिलेगी। इसे रूस के साथ मिलकर बनाया गया है।

इसके पहले सफलता की महागाथाएं लिखते हुए भारत परमाणु क्षमता से युक्त अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें अग्नि-1,2,3,4,5 तक का सफल परीक्षण कर चुका है। अग्नि-पांच 5000 से 8000 किमी से भी अधिक दूरी पर स्थित लक्ष्य को भेदने में सक्षम है। इसके साथ ही भारत 5 हजार से 55 हजार किमी की दूरी तक मार करने की मिसाइल क्षमता वाले वैश्विक समूह में शामिल हो गया था। इसके पहले यह ताकत रूस, अमेरिका, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के पास थी। यह अपने साथ एक टन भार का विस्फोटक ले जाने में समर्थ है। भारत मिसाइल के क्षेत्र में अमेरिका, रूस, चीन और फ्रांस के साथ इंटर कांटिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल के क्लब में भी शामिल है। इन मिसाइलों की खास बात यह है कि ये सभी स्वदेश में ही विकसित की गई तकनीकों से आविष्कृत की गई हैं। इससे जाहिर होता है कि हमारे वैज्ञानिकों को प्रयोग के उचित अवसर और वातावरण दिए जाएं तो वे अपनी मेधा का उपयोग कर वैज्ञानिक आविष्कारों के क्षेत्र में क्रांति ला सकते हैं।

हमें ये कामयाबियां आशंकाओं के उस संक्रमण काल में मिली हैं, जब भारत चीन से पिछड़ रहा था और देश की सुरक्षा संबंधी नीतियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने के उद्देश्य से बनाई जा रही थीं। इन प्रयोगों से साबित हुआ है कि वैज्ञानिक अनुसाधनों में नवोन्मेष के लिए पूंजीपतियों की शरण में जाने की जरूरत नहीं है। मसलन शोध केंद्रों में निजी पूंजी निवेश जरूरी है, ऐसी विरोधाभासी अटकलों में स्वदेशी तकनीक से निर्मित हाइपरसोनिक का परीक्षण यह उम्मीद जताता है कि हम देशज ज्ञान, स्थानीय संसाधन और बिना किसी बाहरी पूंजी के वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल करने में सक्षम हैं। वैसे भी पश्चिमी देशों ने भारत को मिसाइल तकनीक देने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। इस लिहाज से यह उपलब्धि पश्चिमी देशों के लिए भी आईना दिखाना है। सामरिक महत्व के हथियार यदि हम अपने ही बूते बनाएगे तो हमारी गोपनीयता भंग होने का खतरा भी नहीं रहेगा।

भारत में रक्षा उपकरणों की उपलब्धता की दृष्टि से प्रक्षेपास्त्र श्रृंखला प्रणाली की अहम भूमिका है। अबतक इस कड़ी में देश के पास पृथ्वी से वायु में और समुद्री सतह से दागी जा सकने वाली मिसाइलें उपलब्ध थीं। अग्नि 5 ऐसी अद्भुत मिसाइल हैं, जो सड़क और रेलमार्ग पर चलते हुए भी दुश्मन पर हमला बोल सकती है। भारत अंतरिक्ष में खराब हुए उपग्रह नष्ट करने की मिसाइल भी बना चुका है। मसलन भारत ने मिसाइल से संबंधित लगभग सभी क्षेत्रों में कामयाबी हासिल कर ली है।

दरअसल भारत से चीन की 3488 किमी लंबी सीमा जुड़ी है, जो अधिकांश जगह विवादित है। वर्तमान में लद्दाख से लेकर सिक्किम तक चीन से सीमा पर विवाद चल रहा है। ऐसे में भारतीय मिसाइलों की जद में चीन समेत संपूर्ण एशिया और अफ्रीका महाद्वीप के साथ यूरोप का भी बड़ा हिस्सा आ गया है। यह मिसाइल एकबार छोड़ने के बाद रोकी नहीं जा सकती है। इस मिसाइल की खूबी यह है कि इसे दुश्मन के उपग्रह नहीं पकड़ सकते। इन मिसाइलों के आविष्कार के बाद हम चीन की दंडपेंग मिसाइल का जवाब देने में भी सक्षम हैं। हालांकि हमारा जन्मजात दुश्मन देश पाकिस्तान भी मिसाइल निर्माण के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहा है। उसके पास शाहीन-एक, 700 किमी, शाहीन-दो, 2000 किमी और शाहीन-तीन, 2750 किमी मारक क्षमता की मिसाइलें तैयार हैं। वह तैमूर नाम से 5000 किमी तक की मारक क्षमता वाली मिसाइल तैयार करने में भी लगा है।

हमारे मिसाइल परिक्षण पर चीन व पाकिस्तान समेत कई विकसित देश यह आशंका जताते रहे हैं कि इन परीक्षणों से एशियाई परिक्षेत्र में हथियारों का भण्डारण करने की होड़ लगेगी। हालांकि यह सच्चाई नहीं है। पाकिस्तान, ईरान व कोरिया पहले से ही मिसाइलों के निर्माण और उनके परीक्षण में लगे हैं। विकसित व घातक हथियारों के कारोबार में लगे देश भी अपने हथियारों को बेचने के लिए कई देशों को उकसाने में लगे रहते हैं। आज पूरी दुनिया के लिए भस्मासुर साबित हो रहे इस्लामिक आंतकवादियों को हथियार मुहैया कराने का काम यूरोपीय देशों ने अपने हथियार खपाने के लिए ही किया था। कश्मीर में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद और ओड़ीसा व छत्तीसगढ़ में पसरा चीन पोषित माओवादी उग्रवाद ऐसी ही बदनीयति का विस्तार है। हालांकि भारत के मिसाइल क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के बाद कई देशों की सामारिक रणनीति में बदलाव देखने को मिल रहा है।

भारत में एकीकृत विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1983 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुई थी। इसका मुख्य रूप से उद्देश्य देशज तकनीक व स्थानीय संसाधनों के आधार पर मिसाइल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करना था। इस परियोजना के अंतर्गत ही अग्नि, पृथ्वी, आकाश और त्रिशूल मिसाइलों का निर्माण किया गया। टैंकों को नष्ट करने वाली मिसाइल नाग भी इसी कार्यक्रम का हिस्सा है। पश्चिमी देशों को चुनौती देते हुए यह देशज तकनीक भारतीय वैज्ञानिकों ने इंदिरा गांधी के प्रोत्साहन से इसलिए विकसित की थी, क्योंकि सभी यूरोपीय देशों ने भारत को मिसाइल तकनीक देने से इनकार कर दिया था। भारत द्वारा पोखरण में किए गए पहले परमाणु विस्फोट के बाद रूस ने भी उस आरएलजी तकनीक को देने से मना कर दिया था, जो एक समय तक मिलती रही थी। किंतु एपीजे अब्दुल कलाम की प्रतिभा और सतत सक्रियता से हम मिसाइल क्षेत्र में मजबूती से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैज्ञानिक संस्थानों को इंदिरा गांधी के बाद सबसे ज्यादा प्रोत्साहित करने का काम किया है।

अब्दुल कलाम के बाद से इस काम को महिला वैज्ञानिक टीसी थॉमस ने गति दी हुई है। श्रीमती थॉमस आईजीएमडीपी में अग्नि 5 अनुसंधान की परियोजना निदेशक हैं। उन्हें भारतीय प्रक्षेपास्त्र परियोजना की पहली महिला निदेशक होने का भी श्रेय हासिल है। 30 साल पहले टीसी थॉंमस ने एक वैज्ञानिक की हैसियत से इस परियोजना में नौकरी की शुरूआत की थी। अग्नि 5 से पहले उनका सुरक्षा के क्षेत्र में प्रमुख अनुसांधन ’री एंट्री व्हीकल सिस्टम’ विकसित करना था। इस प्रणाली की विशिष्टता है कि जब मिसाइल वायुमण्डल में दोबारा प्रवेश करती है तो अत्याधिक तापमान 3000 डिग्री सेल्सियस तक पैदा हो जाता है। इस तापमान को मिसाइल सहन नहीं कर पाती और वह लक्ष्य भेदने से पहले ही जलकर खाक हो जाती है। आरवीएस तकनीक बढ़ते तापमान को नियंत्रण में रखती हैं, फलस्वरूप मिसाइल बीच में नष्ट नहीं होती। इस उपलब्धि को हसिल करने के बाद से ही टीसी थॉमस को ’मिसाइल लेडी’ अर्थात् ’अग्नि-पुत्री’ कहा जाने लगा। श्रीमती थॉमस को रक्षा उपकारणों के अनुसंधान पर इतना नाज है कि उन्होंने अपने बेटे तक का नाम लड़ाकू विमान ’तेजस’ के नाम पर तेजस थॉमस रखा है। बहरहाल हाइपरसोनिक मिसाइल के निर्माण के बाद भारत मिसाइल क्षेत्र में संपूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो गया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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