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मजरूह सुल्तानपुरी के बेटे अंदलीब ने किया कथित फाल्के पुरस्कारों का विरोध


मुंबई। दादा साहब फाल्के (Dada Saheb Phalke) के नाम पर मुंबई में हर साल रेवड़ियों की तरह बंटने वाले पुरस्कारों के खिलाफ अब भारत सरकार (Indian government) की तरफ से मिलने वाले दादा साहब फाल्के पुरस्कार विजेताओं के परिजन भी खड़े होने लगे। भारत सरकार की तरफ से मिलने वाला दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के बेटे अंदलीब (Andleeb, son of lyricist Majrooh Sultanpuri) ने इस बारे में सोशल मीडिया पर असली दादा साहब फाल्के पुरस्कार का प्रमाण पत्र और अपने पिता मजरूह सुल्तानपुरी की भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के साथ फोटो साझा की है। साथ ही, उन लोगों को लानत भेजी है जो हाल ही में ट्विटर पर ‘द’ लेजेंड दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाकर इतराते दिख रहे थे।
गौरतलब है कि देश में सिनेमा में योगदान के लिए दिया जाने वाला सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान भारत सरकार हर साल किसी एक शख्स को देती है, इनका एलान राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के साथ होता है। और, ये पुरस्कार भारत के राष्ट्रपति की तरफ से ही दिया जाता है। लेकिन, पिछले कुछ साल से मुंबई की कुछ संस्थाएं इनसे मिलते जुलते नामों वाले पुरस्कारों के नाम पर लाखों का कारोबार शुरू कर चुकी हैं।



देश में सिनेमा का ये सर्वोच्च सम्मान दिए जाने की परंपरा भारत सरकार ने 1969 से शुरू की थी और पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार देविका रानी (First Dadasaheb Phalke Award Devika Rani) को दिया गया था। उसके बाद से अब तक ये पुरस्कार 52 लोगों को दिया जा चुका है। अब तक साल 2019 तक के दादा साहब फाल्के पुरस्कार घोषित हो चुके हैं। आखिरी पुरस्कार अभिनेता रजनीकांत को उनके सिनेमा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिए दिया गया था।
गीतकारों में ये पुरस्कार सबसे पहले मजरूह सुल्तानपुरी को साल 1993 में मिला, उसके बाद ये पुरस्कार सिर्फ दो और गीतकारों कवि प्रदीप को साल 1997 में और गुलज़ार को साल 2013 में मिला है। मुंबई में हाल ही में ‘द’ लेजेंड दादा साहब फाल्के पुरस्कार आयोजित किए गए और इन पुरस्कारों को सोशल मीडया पर शेयर करने को लेकर गजेंद्र चौहान जैसे अभिनेता खूब ट्रोल भी हुए।
सिनेमा में खास दिलचस्पी रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा है कि साल 2015 में पुणे के फ़िल्म-टेलीविज़न इंस्टीट्यूट में गजेंद्र चौहान को प्रमुख बनाए जाने के विरुद्ध छात्रों का बड़ा आंदोलन चला था। उस आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण कुछ छात्रों पर पुलिस केस हुआ था, स्कॉलरशिप रोक दी गयी और विदेशी संस्थानों में एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत जाने पर पाबंदी लगा दी गयी थी। उनको बाहर के प्रोजेक्ट लेने से रोकने के प्रयास भी संस्थान के प्रशासन ने किया। यह सिलसिला दो-तीन साल तक चला था। इन छात्रों में पायल कपाड़िया भी थीं। इस साल दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फ़ेस्टिवल कान फ़िल्म समारोह के एक सेक्शन में पायल कपाड़िया की फ़िल्म को बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म का पुरस्कार मिला है। गजेंद्र चौहान अब एक ट्रोल हैं और कुछ दिन पहले एक ‘फ़र्ज़ी’ दादासाहेब फाल्के अवार्ड लेकर इतरा रहे थे।
जिस कथित फ़र्ज़ी दादासाहेब फाल्के अवार्ड की तरफ रे ने इशारा किया है, उसी अवार्ड को लेकर मजरूह सुल्तानपुरी के बेटे अंदलीब ने भी सोशल मीडिया पर गुस्सा जाहिर किया है। उन्होंने अपने पिता को मिले दादा साहब फाल्के पुरस्कार का प्रमाण पत्र साझा करते हुए लिखा कि वह ये इसलिए कर रहे हैं ताकि लोगों को समझ आ सके कि असली दादा साहब फाल्के पुरस्कार कैसा होता है। उन्होंने इस बात पर भी लानत भेजी कि कुछ लोग हाल ही में ट्विटर पर ऐस पुरस्कार लेकर इतराते दिखे थे, जिन्हें न तो अभिनय के बारे में कुछ पता है और न ही भारत सरकार की तरफ से मिलने वाले पुरस्कारों के बारे में।
अंदलीब ने ये भी लिखा कि ये गैर कानूनी है और इस तरह की हरकतें बौद्धिक संपदा अधिकारों का उल्लंघन है। ट्रेडमार्क कानून भी इस पर लागू होता है। आयोजक ये पुरस्कार इस तरह दे रहे है जैसे कि ये भारत सरकार वाला ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार हो। अंदलीब की इस पोस्ट पर लोगों ने भारत सरकार का ध्यान इस तरफ आकृष्ट करते हुए लिखा कि सरकार को इस बारे में कुछ करना चाहिए।

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