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विजय दशमी की प्रासंगिकता

– गिरीश जोशी

क्या हमारे पूर्वजों ने विजय दशमी उत्सव को शस्त्र और शास्त्र का पूजन करने भगवान राम की विजय का स्मरण कर रावण के पुतले का दहन करने की परंपरा का पालन करने के लिए हमारी जीवन पद्धति में शामिल किया था या इस उत्सव के कुछ ओर निहितार्थ रहे हैं। आज इस उत्सव की क्या प्रासंगिकता है ऐसे अनेक सवाल विशेषकर युवाओं के मन में उठते है । एक ओर इस उत्सव को सत्य की असत्य पर विजय,अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में मनाने की परंपरा हजारों वर्षों से हमारे देश में चल रही है। दूसरी ओर देश में आमतौर पर समाज की मानसिकता में विजिगीषु वृत्ति (विजयी भाव) दिखाई नहीं पड़ती है। विजिगीषु वृत्ति वाला समाज दासभाव से भरी निराशाजनक मानसिकता से ऊपर उठकर प्रत्येक कार्य सफल होने के लिए, हर संघर्ष में विजय होने की भावना से ही मैदान में उतरता है। लेकिन समान्यतः देश में पराक्रमी उद्यमशीलता,कर्मशीलता तथा साहस से जोखिम उठाकर कुछ नया कर दिखाने की चाह के प्रति उदासीनता दिखाई देती है। अधिकांश युवा भी उद्यमशील होने के स्थान पर कोई भी नौकरी पाने को ही जीवन का बड़ा लक्ष्य मानते हैं।

समाज की यह मनोवृत्ति क्यों बनी, इसे जानने के लिए अतीत के झरोखे से झांकते है। भारत में सन 1818 में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित किया। इसके साथ ही देशवासियों का उनके साथ लंबा संघर्ष शुरू हुआ। इस कड़ी में बड़ा व देशव्यापी संघर्ष सन 1857 में हुआ। इसे कुचलने के लिए अंग्रेजों ने हर प्रकार के तौर तरीके अपनाए। भविष्य में इस प्रकार का विद्रोह खड़ा न हो सके, वे देश पर हमेशा राज कर सके इस उद्देश्य से भारत के मूल समाज का मनोबल को तोड़ने, उसे आत्महीनता के भाव से ग्रसित करने,आत्मसम्मान भुला देने के लिए हर आयाम पर दीर्घकालीन योजना बनाकर करना शुरू किया।

इस योजना के तहत अंग्रेजों ने समाज में फुट डालने के लिए देश के सामाजिक ताने-बाने को भंग किया, भारतीय परंपरागत ज्ञान व कौशल आधारित शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर दास मानसिकता बनाने के लिए की अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था स्थापित की, देश के वास्तविक इतिहास को विकृत कर, तोड़-मरोड़ कर बताया, सिखाया। हमारी संस्कृति को दकियानूसी और पुरातन शास्त्रों को कपोल कल्पना बताया। उन्होंने भारतीय युवाओं के मन मस्तिष्क में ये धारणा स्थापित करने का प्रयास पुरजोर तरीके से किया कि भारत हमेशा पिछड़ा देश ही रहा है, यहां जो भी कुछ अच्छे काम हुए वे सब बाहर से आए लोगों ने किए है। पाश्चात्य संस्कृति क्षेष्ठ है,भारत की संस्कृति पिछड़ी है।भारतीय युवाओं को आत्मगौरव के भाव से विहीन कर उनके भीतर प्रतिकार की भावना और संघर्ष की क्षमता को समाप्त करना उनका मुख्य उद्देश्य था। इस वजह से अंग्रेजी संस्कारों, शिक्षा व राज्य व्यवस्था में पली-बढ़ी अनेको पीढ़ियां भारत में हुई जो अपने स्वर्णिम अतीत को भुला बैठी।

युवाओं के एक आयाम से अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझने की कोशिश करते हैं। हमारे देश की संस्कृत में लिखी ग्रंथ सम्पदा जो दुनिया का सबसे प्राचीन साहित्य माना जाता है उसमें बेरोजगारी अथवा Unemployment शब्द नही मिलता है। यहां तक की लोकभाषा अथवा बोली में लिखे साहित्य जैसे रामचरित मानस आदि में भी बेरोजगारी शब्द नहीं दिखाई देता क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था में बेरोजगारी का कोई अस्तित्व ही नही था। तत्कालीन समाज में विशेषकर युवा उद्यमशील थे। लेकिन अंग्रेजों ने हमारे परंपरागत कौशल आधारित उद्योगों व ज्ञान को नष्ट किया। अंग्रेजों की चाकरी को श्रेष्ठ कार्य के रूप में स्थापित किया गया जिससे युवाओं के मन में अंग्रेजों की नौकरी पाना तत्कालीन युवाओं का मुख्य ध्येय बन गया। जो स्वाधीनता के बाद सरकारी या निजी नौकरी को पाने की अभिलाषा में बदल गया। जब चाकर बनना स्वप्न बन जाए तो पराक्रम के साथ उद्यम खड़ा करने की और अपने काम में विजयी होने की भावना कहां से आएगी।

आज अंग्रेजों द्वारा थोपी गई दीनता व हीनता से भरी मानसिकता से ऊपर उठकर आगे बढने की जरूरत है। अंग्रेजियत को भारतीय समाज व्यवस्था के हर आयाम से निर्मूल कर सम्पूर्ण भारतीय व्यवस्था यानि स्वाधीन होने के बाद सही मायने में स्वतंत्रता स्थापित करने व भारत की खोई हुई विजिगीषु वृत्ति को पुनः स्थापित करने का समय आ गया है। राम-रावण का युद्ध जब शुरू होने वाला था तब रावण अपने अमोघ अस्त्र-शस्त्र से लैस होकर दिव्य रथ पर सवार होकर युद्ध के मैदान में आया। रघुवीर तो वल्कल वस्त्र में,बिना पैर में कुछ पहने खड़े थे। ये दृश्य देख कर विभीषण के मन में भगवान की विजय को लेकर शंका उत्पन्न हुई । उसे भगवान से पूछा-‘नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना। अर्थात हे नाथ! आपके पास न तो रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न ही अपने पैरों में कुछ पहना हैं। ऐसे में वह बलवान वीर रावण से आप किस प्रकार जीत सकते हैं।’ आज भी जब हमारा सामना किसी बलशाली व सामर्थ्य संपन्न आंतरिक अथवा बाहरी शत्रु से होता है तब लगभग यही मन:स्थिति हमारी होती है ।

भगवान ने विभीषण को जो उत्तर दिया है वो भारत का सार्वकालिक पथप्रदर्शक है। भगवान ने कहा- ‘सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।’ हे मित्र सुनो,जिस रथ से विजय मिलती है,वह रथ दूसरा ही है। उस रथ का वर्णन करते हुए प्रभु ने कहा-‘ सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका। बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे। अर्थात शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों पर नियंत्रण ) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जुते हुए हैं। आगे भगवान बोले-‘ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म संतोष कृपाना। दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा। ईश्वर का भजन/स्मरण ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है।दान, फरसा है,बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है,श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। ये ऐसे अस्त्र है जिनको कोई भी व्यक्ति सतत साधना के द्वारा अर्जित कर सकता है।

आगे प्रभु बोले- ‘अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा”।यानी निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना),(अहिंसादि) यम और नियम- ये बहुत से बाण हैं। विप्रजनों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है।’ सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।’ हे मित्र ! ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो उसे कोई शत्रु कभी पराजित नहीं कर सकता है। आगे भगवान बोले- ‘महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।’ जिसके पास ऐसा मजबूत रथ हो,वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महादुर्जय शत्रु को भी पराजित कर सकता है रावण की तो बात ही क्या है।

भगवान राम इस राष्ट्र के आराध्य हैं। विजय दशमी का अवसर उनकी दी हुई इस सीख को अपने आचरण में उतारने, अपना स्वभाव इस प्रकार बनाने का संकल्प लेने का दिन हैं। यदि भगवान राम की अपेक्षानुसार भारत का हर नागरिक अपना जीवन नित्य साधना के द्वारा गढ़ने लगेगा तो एक संगठित व विजयशाली शक्ति का उदय होगा जो देश के भीतर व बाहर से देश को नुकसान पहुंचाने का मंसूबा रखने वाले बलशाली, अपने जैसा सबको बनाने का जानलेवा दुराग्रह रखने वाली तथा सब कुछ हड़प लेने की मानसिकता रखने वाली रावणरूपी आसुरी शक्तियों को परास्त कर भारत को विश्व में अजेय बनाकर उसे परम वैभव के शिखर पर विराजित करेगी। आज विजयदशमी की यही प्रासंगिकता है ।

(लेखक, संस्कृति अध्येता एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि में अकादमिक प्रशासक हैं।)

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