ब्‍लॉगर

स्वामी सहजानंद सरस्वतीः युग धर्म के अवतार

सहजानंद सरस्वती की पुण्यतिथि (26 जून) पर विशेष
सुरेन्द्र किशोरी
26 जून 1950 का वह काला दिन किसान आज भी नहीं भूले हैं, जब विरोधियों के बीच दुर्वासा और परशुराम के नाम से चर्चित स्वामी सहजानंद सरस्वती की मुजफ्फरपुर में मौत हो गई थी। मौत की जानकारी मिलते ही एक सन्नाटा खिंच गया था। गरीब किसानों ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके रहनुमा सहजानंद सरस्वती आंदोलन की धधकती आग के बीच इतनी जल्दी छोड़कर सबको छोड़कर हमेशा के लिए आंखें बंद कर लेंगे। खासकर देश के सबसे पहले जमींदारी मुक्त गांव बने रामदिरी और आसपास के किसानों के लिए तो कुछ दिन के लिए ही सही सभी रास्ते ही बंद हो गए थे। हो भी क्यों नहीं, 22 फरवरी 1889 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला स्थित देवा गांव में जुझौटिया ब्राह्मण बेनी राय के घर जब अचानक सोहर गूंजने लगी तो किसी को कहां पता था कि बेनी राय का यह पुत्र ना केवल देश में किसान आंदोलन की शुरुआत करेगा। बल्कि मां भारती को अंग्रेजों की बेड़ी से मुक्त करने में भी अपना अमूल्य योगदान देगा।
नौ साल की उम्र में जलालाबाद मदरसा से अपना विद्यारंभ करने वाले इस छोटे से बालक ने आदि गुरु शंकराचार्य को अपना गुरु बनाया और स्वामी सहजानंद सरस्वती के रूप में अपना नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षर से दर्ज करवा लिया। आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के दसनामी संन्यासी अखाड़ा के दण्डी संन्यासी स्वामी सहजानन्द सरस्वती ना केवल भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। बल्कि वे भारत में किसान आन्दोलन के जनक, बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी और इतिहासकार थे। युग-धर्म के अवतार, समय के पदचाप के आकुल पहचान, किसान विस्फोट के प्रतीक और पर्यायवाची तथा किसान आंदोलन के जनक एवं संचालक, राष्ट्रवादी वामपंथ के अग्रणी सिद्धांतकार, सूत्रकार एवं संघर्षकार, सामाजिक न्याय के प्रथम उद्घोषक, वेदांत और मीमांसा के महान पंडित, मार्क्सवाद के ठेठ देसी संस्करण, जिनकी वाणी में आग एवं क्रिया में विद्रोह, उत्पीड़न के खिलाफ दुर्वासा और परशुराम, आजादी के सवाल पर समझौताविहीन संघर्षरत योद्धा स्वामी सहजानंद सरस्वती ने पूरे जीवन में कभी भी असत्य से समझौता नहीं किया।
इसी का प्रतिफल था कि सुभाषचंद्र बोस और योगेंद्र शुक्ला ऐसे राष्ट्रवादी क्रांतिकारी इनके चरण चूमते थे। रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, महाश्वेता देवी, मन्मथनाथ गुप्त, शिवकुमार मिश्र एवं केशव प्रसाद शर्मा जैसे अपने समय के महान कई अन्य साहित्यकारों ने इन्हें अपनी रचना के केंद्र में रखा था। भारत में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है। दण्डी संन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। स्वामी जी ने नारा दिया था ‘जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब जो कानून बनायेगा, ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलायेगा।’ गाजीपुर के जर्मन मिशन स्कूल से शास्त्रीय ढ़ंग, स्वाध्याय और स्वयं के जीवन संघर्ष से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अट्ठारह वर्ष की उम्र में संन्यास ले लिया और वेदान्तों के विचारों को दैनिक जीवन में प्रचलित किया था।
उन्होंने गीताधर्म के अंतर्गत मार्क्स, इस्लाम, ईसाई सभी को पर्याप्त जगह दी थी। वेदांतो के अर्थ के अनुसार धर्म, कार्य, मोक्ष में मार्क्स के अर्थ को प्रथम स्थान दिया और इसी कारण उन्होंने राजनीति को आर्थिक कसौटी के रूप में अपनाया, जबकि इसके विपरीत दूसरे लोग राजनीति को आर्थिक नीति के रूप में देखते थे। इसके कारण स्वामी जी ने उग्र अर्थवाद, वर्ग संघर्ष, किसान के हितों के प्रति लड़ने के लिए क्रांति जैसे रास्ते को अपनाया। संन्यासी बन कर ईश्‍वर और सच्चे योगी की खोज में हिमालय, विंध्यांचल, जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं की यात्रा की। काशी और दरभंगा के विशिष्ट विद्वानों के साथ वेदान्त, मीमांसा और न्याय शास्त्र का गहन अध्ययन किया। 1919 में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद राजनीति की ओर अग्रसर हुए और तिलक स्वराज्य फंड के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया। 1920 में पटना में मजहरुल हक के आवास पर महात्मा गांधी से मिले तथा कांग्रेस में शामिल होने का निश्चय किया। 
कांग्रेस में रहते हुए भी उन्होंने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त करवाने के लिए अभियान जारी रखा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ा तो स्वामी सहजानंद उसके केन्द्र में थे। उन्होंने घूम-घूमकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। इस दौरान उन्हें अजूबा अनुभव हुआ कि किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है। जिसे देखकर युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ और किसानों को एकजुट करने की मुहिम में लग गए। 1927 में पश्‍चिमी किसान सभा की नींव रखी तथा शोषितों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया और ‘मेरा जीवन संघर्ष’ लिखी। 1928 में बेगूसराय समेत बिहार के अन्य जगहों पर स्वामी सहजानंद सरस्वती और डॉ. श्रीकृष्ण सिंह समेत अन्य किसान हितेषियों ने किसान सभा का सदस्य बनाने और संगठन खड़ा करने का काम शुरू किया तथा पूरे बिहार में किसानों को एकजुट करना शुरू कर दिया।
1929 में सोनपुर मेला के दौरान बिहार प्रान्तीय किसान सभा की नींव रखी तथा स्वामी सहजानंद सरस्वती सभापति और डॉ श्रीकृष्ण सिंह सचिव बनाए गए। 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तो स्वामीजी ने डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को साथ लेकर राहत और पुनर्वास कार्य में काफी सक्रियता सेे भाग लिया। इसी दौरान पटना में महात्मा गांधी से मुलाकात कर जनता का हाल सुनाया तो गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए जरूरी अन्न का बंदोबस्त करने की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने गांधी जी को चैलेंज करते हुए रास्ता अलग कर लिया। बिहार प्रान्तीय किसान सभा को विस्तारित करते हुए 11 अप्रैल 1936 को अखिल भारतीय किसान सभा को पुनर्गठित किया तथा कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई, जिसमें स्वामी सहजानंद सरस्वती को पहला अध्यक्ष चुना गया। 
इसकेे बाद उन्होंने किसानों को हक दिलाने के लिए जीवन का लक्ष्य घोषित किया और नारा दिया ‘कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा जिंदाबाद।’ इसकेे बाद उन्होंने पूरे बिहार में दो सौ से भी अधिक जगहों पर किसान सभा किया, किसानों को एकत्रित और जागरूक किया। 1938 में बेगूसराय जिला के बलिया में जमींदारों केे विरुद्ध किसान आंदोलन शुरू हुआ तो जमींदार ने लाठी चलवाना शुरु कर दिया था बात काफी आगे बढ़ गई तो जमींदार के लठैतों ने जमकर लाठियां चलाई और यहीं से जमींदार के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। साहेबपुर कमाल से बछवाड़ा तक गांव-गांव में किसान आंदोलन छिड़ गई। स्थिति गंभीर हो गई तो किसान सभा ने जमींदार को स्थिर रहने की सलाह दिया। स्वामी सहजानंद सरस्वती बलिया आए तथा उन्होंने बलिया, तेघड़ा और बेगूसराय में युवक सम्मेलन कर अपना ओजस्वी भाषण दिया।
1938 में ही तेघड़ा थाना के बछवाड़ा गांव में कांग्रेस के विरोध के बाद भी यदुनंदन शर्मा के सभापतित्व में बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन हुआ और इसमें स्वामी सहजानंद सरस्वती, जयप्रकाश नारायण, गंगा शरण सिंह, डॉ कयूम अंसारी, कार्यानंद शर्मा, ब्रजमोहन शर्मा समेत किसान नेताओं ने किसानों की समस्या पर बढ़-चढ़कर बातें की। कांग्रेस की ओर से सुरेश चंद्र मिश्र ने गांव-गांव घूमकर लोगों को सभा में नहीं जाने का अनुरोध किया था। इसके बावजूद सभा में इतनी भीड़ जुट गई, इतने लोग एकजुट हो गए कि पंडाल में जगह नहीं मिली थी और एक ही समय में दो अलग-अलग सभा करनी पड़ी। जिसमें एक का नेतृत्व रामवृक्ष बेनीपुरी कर रहे थे तो दूसरे में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भाषण दिया था। इन्हीं सब आंदोलनों का असर था कि बिहार में जब डॉ श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी तो देश में सबसे पहले यहां जमीदारी उन्मूलन कानून बनाया गया।
राजा चंद्रचूड़ देव द्वारा नीलाम की गई रामदिरी की जमींदारी रद्द कर यह देश का सबसे पहला जमींदार मुक्त गांव बना और देश में एक नई मिसाल कायम किया। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को जमीदारी उन्मूलन कानून बनाना पड़ा था। 1949 में महाशिवरात्रि के दिन स्वामी सहजानंद सरस्वती ने पटना के बिहटा में सीताराम आश्रम स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केन्द्र बना तथा यहीं से वह पूरे आंदोलन को संचालित करते थे।जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून 1950 को मुजफ्फरपुर में हाई ब्लड प्रेशर के कारण स्वर्ग सिधार गए। उनके निधन पर देश और बिहार के साथ बेगूसराय भी खूब रोया था। जिसका प्रतीक है कि उनके नाम पर स्वतंत्रा सेनानी ब्रजमोहन शर्मा ने बेगूसराय में सर्वोदय नगर और सहजानंद नगर की स्थापना की तथा आज भी यहां लोग स्वामी सहजानंद सरस्वती को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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