ब्‍लॉगर

आइसबर्ग का टूटना यानी धरती के अस्तित्व को खतरा

रंजना मिश्रा
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि आइसबर्ग का टूटना एक प्राकृतिक बात है, समय-समय पर बर्फ के बने बड़े-बड़े आइसबर्ग अक्सर टूटते रहते हैं, वहीं अधिकतर वैज्ञानिक इसे ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा मानते हैं। तेजी से पिघलते ग्लेशियर पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को समाप्त भी कर सकते हैं अतः यह खतरा बहुत बड़ा और गंभीर है। दुनिया पर इस समय बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है, न सिर्फ महामारी कहर बरपा रही है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह वक्त भी करीब आता जा रहा है, जब एक समय पृथ्वी पानी में समा जाएगी, क्योंकि ऐसा लगता है कि भविष्य में दुनिया के खत्म होने का एक बहुत बड़ा कारण ग्लेशियर हो सकते हैं।
पूरी दुनिया में क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिक लोग अक्सर शोध और सेमिनार करते रहते हैं। इन सेमिनारों में कुछ देर के लिए इस विषय पर चर्चा होती है, लेकिन इस पर कोई ठोस एक्शन नहीं लिया जाता। परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया में अपना कहर दिखाना शुरू कर दिया है और अब दुनिया के लिए रेड अलार्म भी बज गया है। दरअसल अंटार्कटिका में दुनिया का सबसे बड़ा आइसबर्ग टूटा है, जिसका आकार दिल्ली से 3 गुना ज्यादा बताया जा रहा है। अगर ऐसे ही आकार के आइसबर्ग टूटेंगे तो इस धरती पर तबाही आना तय है। लगातार बर्फ पिघल रही है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, लेकिन इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा जितना कि लेना चाहिए।
यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने बताया है कि दुनिया का सबसे बड़ा आइसबर्ग ए-76 टूटने के बाद अब वेडेल सागर में तैर रहा है। वैज्ञानिकों के लिए ये एक बहुत बड़ी चिंता का विषय है, क्योंकि इन ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है ग्लोबल वार्मिंग। यदि पूरी दुनिया के ग्लेशियर पिघल गए तो पृथ्वी का तापमान लगभग 60° सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा, इतने अधिक तापमान में इंसानों का रहना मुश्किल हो जाएगा, वो आसानी से इस गर्मी को झेल नहीं पाएंगे। इसका दूसरा परिणाम यह होगा कि दुनिया में शुद्ध पीने के पानी का संकट उत्पन्न हो जाएगा। शुद्ध पानी का स्टॉक खत्म हो जाने से इंसानों को पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। क्योंकि जल ही जीवन है, इसलिए जल समाप्त तो जीवन समाप्त।

हमारे स्वास्थ्य की सुरक्षा जितनी जरूरी है, पृथ्वी का स्वस्थ रहना भी उतना ही आवश्यक है। पृथ्वी पर इस समय करीब दो लाख ग्लेशियर हैं, ये प्राचीन काल से पृथ्वी पर बर्फ का एक विशाल भंडार बने हुए हैं, ऐसे में ग्लेशियरों के पिघलने से जमीन पर रहने वाले दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ता है, जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत हैं, जैसे हिमालय के ग्लेशियर, आसपास की घाटियों में रहने वाले 25 करोड़ लोगों को उन नदियों का पानी देते हैं, जो आगे जाकर करीब 165 करोड़ लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया बनती हैं।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में एक रिसर्च के हवाले से चेतावनी दी गई है कि एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो सकते हैं और यह स्थिति तब होगी जब इंसान ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में कामयाब हो जाएगा और दुनिया के तापमान की बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाएगा, यानी दुनिया का बढ़ता यही तापमान ग्लोबल वार्मिंग है। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड और क्लोरोफ्लोरोकार्बन के बढ़ने से पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है, इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन भी होता है।
नेचर में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक वर्ष 1980 के बाद से समुद्र का जलस्तर औसतन 9 इंच बढ़ गया है और इस वृद्धि का लगभग एक चौथाई हिस्सा ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण हुआ है। अंटार्कटिका में जितनी बर्फ मौजूद है, यदि वो पिघल जाए तो समुद्रों का जलस्तर 200 फुट तक बढ़ सकता है। इसकी बड़ी वजह है ग्लोबल वार्मिंग, जिससे आइसबर्ग पिघलते हैं और फिर टूटकर समुद्र में गिर जाते हैं। पोस्टडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च का कहना है कि पिछले 100 वर्षों में दुनिया के समुद्र तल में 35% की बढ़ोतरी ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुई है और यह सिलसिला आगे भी जारी है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि भविष्य में ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का बढ़ना 30 से 50 सेंटीमीटर तक सीमित रहेगा, क्योंकि अब इन ग्लेशियरों के पास कम ही बर्फ बची है, इसकी तुलना अगर ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादर से करें तो इनके पिघलने से समुद्र तल कई दर्जन मीटर तक बढ़ सकता है, दूसरे शब्दों में तेजी से पिघलते ग्लेशियरों और टूटते आइस सेल्फ पृथ्वी के बिगड़ते स्वास्थ्य का एक बहुत बड़ा लक्षण हैं और इसके लिए जरूरी है कि दुनिया इस विषय को सिर्फ सेमिनार और गोष्ठियों तक ही सीमित न रखे बल्कि इसका विस्तार आम लोगों के बीच होना चाहिए।
इस समय दुनिया के सभी देश इस बात के लिए प्रतिबद्ध हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी आनी चाहिए। कार्बन उत्सर्जन का मतलब है, पृथ्वी के वातावरण में मौजूद अधिक कार्बन डाइऑक्साइड, यह इसलिए खतरनाक है क्योंकि ये ग्रीनहाउस गैस है जो वातावरण में मौजूद गर्मी को रोककर रखती है फिर इससे ही पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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