ब्‍लॉगर

इस विरोध का अर्द्धसत्य

– डॉ. रविन्द्र प्रताप सिंह

जब से एनसीईआरटी ने इतिहास विषय में एक्सपर्ट कमेटी के सलाह पर बदलाव करने का फैसला किया है तब से वामपंथ और कांग्रेस विचारधारा से प्रभावित अकादमिक गुट सक्रिय हो गया है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है।ऐसा ही माहौल तब भी तैयार किया गया था जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकासमंत्री थे। इस समय इतिहास विषय में भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन को आतंकवादी आंदोलन के नाम से पढ़ाया जा रहा था। डॉ. जोशी के कार्यकाल में एनसीईआरटी ने इतिहास से आतंकवादी शब्द को हटाने का निर्णय लिया था।

इसके साथ ही बहुत से भ्रामक तथ्य जानबूझकर गलत तरीके से इतिहास विषय के रूप में बच्चों को पढ़ाए जा रहे थे। इसका एकमात्र उद्देश्य यह था कि नई पीढ़ी हमेशा कांग्रेस और गांधी को देश की आजादी के आंदोलन का अगुवा और मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को साम्प्रदायिक शक्तियों के रूप में समझे। एनडीए प्रथम सरकार के कार्यकाल में एनसीईआरटी के इतिहास पाठ्यक्रम में बदलाव भी किया गया। इसके बाद दुर्भाग्यवश एनडीए सरकार सत्ता में वापसी नहीं कर पाई और कांग्रेस समर्थित सरकार ने सत्ता में आते ही उसी पुराने इतिहास के सिलेबस को फिर से लागू कर दिया।


महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि देश में एक खिचड़ी गठबंधन सरकार ने अपने अधिकारों के प्रयोग कर पूर्ववर्ती सरकार के फैसले को बदला तो एक पूर्ण बहुमत की सरकार जिसको देश ने दोबारा प्रचंड बहुमत दिया है उसने एक्सपर्ट कमेटी की सलाह पर अगर कुछ बदलाव किए भी हैं तो इसपर इतना हंगामा खड़ा क्यों किया जा रहा है। वास्तव में जैसे-जैसे इतिहास विषय में नये शोध के माध्यम से नई-नई जानकारियां निकल कर आ रही हैं उससे वामपंथी इतिहासकारों और कांग्रेस शासन के गठजोड़ की कूटरचित इतिहास की परतें खुलती जा रही हैं। इससे भारत विभाजन में कांग्रेस की साम्प्रदायिक राजनीति का काला अध्याय और वामपंथियों के सोवियत संघ समर्थित राजनीति की असलियत सामने भी आने लगी है।

वास्तव में यह विरोध इतिहास विषय से कुछ चैप्टर को हटाने से कहीं ज्यादा देश के ऊपर थोपे गए तथ्यहीन इतिहास पर कठघरे में खड़ा होने से बचने का है। प्रोफेसर ई.एच. कार ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास क्या है’ में लिखा है कि इतिहास की व्याख्या समय के साथ उद्घाटित होने वाले तथ्यों और सूचनाओं के आलोक में परिवर्तनशील है। जैसे-जैसे नये तथ्य एवं जानकारियां जुड़ते जाएंगे वैसे-वैसे ही इतिहास की व्याख्या और विषयवस्तु में परिवर्तन होता रहेगा। प्रोफेसर बिपन चन्द्रा ने भी स्वीकार किया है कि कोई भी इतिहासकार अपने इतिहास लेखन को सार्वभौमिक होने का दावा नहीं कर सकता।

प्रोफेसर कालिंगवुड ने अपनी पुस्तक ‘आइडिया ऑफ हिस्ट्री’ में लिखा है कि सम्पूर्ण इतिहास किसी भी इतिहासकार के वैचारिक अभिव्यक्ति का इतिहास है जो यह दर्शाता है कि वह इतिहास को और उसके तथ्यों को किस रूप में देखता है। लेकिन जब कोई विद्वान किसी राजनीतिक दल और विचारधारा के समर्थक के रूप में कार्य करने लगता है तो फिर वह जानबूझकर लोगों को अपने अकादमिक आभामंडल के प्रभाव से विचलित करने का प्रयास करता है।

दुनिया भर का नैसर्गिक प्राचीन इतिहास कबीलों से शुरू होता है। यूरोपीय देश खासकर यूनानी आज भी मैग्नास्पार्टा को अपने इतिहास को राष्ट्रीय धरोहर मानते हैं, लेकिन भारत का प्राचीन इतिहास सिन्धु नदी घाटी की विश्वप्रसिद्ध नगरीय सभ्यता से आरंभ होकर आर्यों के कबीलाई इतिहास की ओर बढ़ता है। क्या यह किसी भी मानव सभ्यता के इतिहास का शुरुआती चरण हो सकता है जो गांव और कबीलों के बसने से पहले नगरीय सभ्यता बन गई हो ? बिलकुल भी नहीं और न ही दुनिया के किसी भी इतिहास में कोई एक भी उदाहरण उपलब्ध है।

सिलेबस के बदलने का विरोध कर रहे लोगों के पास इस तथ्य का कोई जवाब नहीं है कि जब कोई सभ्यता बिना ग्रामीण सभ्यता से गुजरे सीधे नगरीय सभ्यता नहीं बन सकती तो अंग्रेजों द्वारा थोपा गया झूठा इतिहास क्यों नही बदला गया ? इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि आज भी ये अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम है और दूसरा यह कि ये लोग भारत में रहते हुए अंग्रेजो द्वारा निर्मित इतिहास की वैधता को संरक्षित रखना चाहते हैं ताकि भारत में यह इतिहास जातिवाद और साम्प्रदायिकता का पोषण करता रहे।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के एक भाग में पढ़ाया जाता है कि बरनी, अफीफ, सिराज, बदायुनी, अबुल फजल जैसे राजाश्रय प्राप्त लेखकों की कृतियां मध्यकालीन भारत के इतिहास को लिखने के प्रमुख स्रोत हैं। कमोबेश भारत का मध्यकालीन इतिहास इनकी लिखीं किताबों का ट्रांसलेशन मात्र है। लेकिन उसी दौर में लिखा गया चंद्रबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, हम्मीरमद मर्दन, पृथ्वीराज विजय जैसे अनेक ग्रंथों को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि यह दरबारी इतिहासकारों ने राजा की चाटुकारिता में लिखे हैं जिनके तथ्यों पर विश्वास करना कठिन है। लेकिन यही तर्क वह इन मुस्लिम दरबारी इतिहासकारों पर लगाने से मुकर जाते हैं। इन्हें बरनी की यह लाइन लिखने में ऐतिहासिक तथ्य दिखाई पड़ता है कि मुहम्मद तुगलक राजधानी परिवर्तन के समय दिल्ली में छिपे एक अंधे और एक विकलांग को घोड़ों से बांधकर दौलताबाद ले गया लेकिन चंद्रबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में उल्लिखित “चार अंश चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता बैठा सुल्तान है अब न चुक चौहान” अतिशयोक्ति और तथ्यहीन लगता है।

इनके अनुसार बरनी का यह कथन तर्कपूर्ण लगता है की मुहम्मद तुगलक द्वारा सांकेतिक मुद्रा के रूप में तांबे के सिक्के का प्रचलन होने पर हर हिन्दू का घर टकसाल बन गया और मुस्लिम बिलकुल साफ पाक थे। तथ्य यह है की हल्दीघाटी का युद्ध दो राजपूत सेनाओं क्रमशः महाराणा प्रताप और मानसिंह के बीच लड़ा गया जिसमे मानसिंह की मदद मुगल सेना ने की लेकिन महाराणा प्रताप को अकबर से पराजित दिखाया गया I तथ्य यह भी है कि हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने कई युद्धों में मुगल सेना को न केवल पराजित किया बल्कि अपने हारे हुए समस्त भू-भाग का अधिकांश हिस्सा पुनः वापस जीत लिया।क्या एनसीईआरटी के इतिहास में उन युद्धों का जिक्र है ? अगर नहीं है तो क्यों नहीं है, इसका जवाब क्या यह विरोध करने वाले देंगे ?

आधुनिक भारत का इतिहास भारत का इतिहास होने के बजाय कांग्रेस की स्थापना और उसके द्वारा विफल आंदोलनों का इतिहास भर क्यों है ? कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ पैक्ट के बाद लीग का भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान गायब क्यों कर दिया गया ? भारत में खिलाफत आंदोलन को सांप्रदायिक आन्दोलन कहते हुए जिन्ना ने गांधी को इस आंदोलन को समर्थन नहीं देने का सुझाव दिया था जिसको गांधी ने हाकिम अजमल खान के प्रभाव में मानने से इंकार कर दिया था। सवाल यह है कि इस तथ्य को भारत के इतिहास से क्यों हटाया गया ?

वीर सावरकर की एक चिट्ठी मात्र से उनके भारत के लिए किए गए बलिदान और दोहरे आजीवन कारावास हेतु काले पानी की सजा को इतिहास के पन्नों से मिटाकर उन्हें देशद्रोही और अंग्रेजी शासन का भक्त कहने वाले यह इतिहासकार इस बात का कोई भी सुबूत देने से पीछे हट जाते हैं कि मोहनदास करमचंद गांधी ने एक गुजराती व्यापारी के मुकदमे को छोड़कर अपने जीवन में ऐसे कौन से मुकदमे अंग्रेजी शासन से भारतीयों के लिए जीते थे जिससे उनकी प्रसिद्धि पूरे भारत में पहुंच गई?

मसलन जहां तक तथ्यों की बात है उस समय तक न तो आज की तरह सोशल मीडिया था, न टीवी समाचार चैनल था और न ही देश की साक्षरता दर इतनी थी कि उस समय अंग्रेजी और हिंदी की पत्रिकाओं में लिखे जा रहे लेखों को आम जनमानस पढ़ सके। फिर दक्षिण अफ्रीका से लौटने से पहले ही गांधी पूरे भारत में एक नायक के रूप स्थापित कैसे हो गए। प्रथम विश्व युद्ध में बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रीय नेता भारतीयों को विश्व युद्ध में शामिल करने के विरुद्ध थे। वह इस मौके को भारत को आजाद कराने के अवसर के रूप में देख रहे थे ठीक उसी समय गोपाल कृष्ण गोखले के सहयोग से मोहन दास करमचंद गांधी भारतीय युवाओं को अंग्रेजी सेना में शामिल होने के लिए अभियान चला रहे थे और लोगों से अंग्रेजी शासन को मदद करने की अपील कर रहे थे । उनकी इस सेवा से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “सार्जेंट ऑफ इंडिया” की उपाधि दी, जिसको गांधी ने सहर्ष स्वीकार किया।

क्या किसी इतिहासकार ने देश को यह बताया कि गांधी ने अंग्रेजी शासन का साथ देकर एवं उनका सेनानायक बनने की उपाधि लेकर कौन सा देशहित का काम किया था? क्या किसी इतिहासकार ने यह लिखा कि हिन्दू परिवारों की लाशों पर खड़े होकर हिन्दू जमींदारों के घरों की महिलाओं और लड़कियों का बलात्कार कर खड़ा किया गया मालाबार का मोपला विद्रोह जिसका नारा था कि “हम केवल और केवल ब्रिटिश महारानी की रैयत रहना चाहते हैं” जिसको अंग्रेजी शासन सहयोग कर रहा था उसे गांधी और कांग्रेस ने समर्थन देकर कौन सा देशहित का कार्य किया था और गांधी की अहिंसा की नीति इस हिंसात्मक विरोध पर मौन क्यों थी।

ऐसी अनेक घटनाएं हैं जिनके रहस्योद्घाटन का समय आ गया है और उसे किसी भी प्रकार के गिरोहबंद विरोध से रोका नहीं जा सकता। देश की वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी को यह जानने का पूरा अधिकार है कि जिनको हम देश का बड़ा इतिहासकार मानते आ रहे हैं वह वास्तव में वह कितने बड़े राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा रहे हैं।

(लेखक, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली में शोध सहायक हैं।)

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