ब्‍लॉगर

चिकित्सा शिक्षा में परिवर्तन का समय

– डॉ.अजय खेमरिया

चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में हाल ही में दो महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव हुए हैं।पहला देश भर में यूजी यानी एमबीबीएस प्रवेश के लिए कॉमन काउंसिलिंग होगी। दूसरा मध्य प्रदेश सरकार ने पीजी कर रहे डॉक्टरों के लिए तीन महीने ग्रामीण क्षेत्रों में एक तरह की इंटर्नशिप को अनिवार्य बना दिया है। दोनों ही निर्णय चिकित्सा शिक्षा को समावेशी बनाने में सहायक होंगे लेकिन भारत में अभी भी यह क्षेत्र कुछ बड़े निर्णय के इंतजार में है। बेशक मौजूदा केंद्र सरकार ने चिकित्सा शिक्षा के ढांचे में ऐतिहासिक बदलाव सुनिश्चित किए हैं जिसके चलते अब डॉक्टरी पेशा अभिजात्य श्रेणी से निकलकर आम भारतीय की पहुंच में आया है लेकिन जनस्वास्थ्य के मोर्चे पर आज भी देश की आबादी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच भरोसे का अपेक्षित रिश्ता विकसित नही है।

देश में एमबीबीएस सीट की संख्या पिछले नौ सालों में 51348 से बढ़कर 101043 एवं पीजी सीटों की संख्या 31185 से बढ़ाकर करीब 65 हजार की जा चुकी हैं। देश में इस समय 654 मेडिकल कॉलेज हैं जो 2014 में 387 ही थे और सरकार एक जिला एक मेडिकल कॉलेज की परियोजना पर भी तेजी से काम कर रही है। इस बुनियादी सुधार के बाबजूद समग्र रूप में सार्वजनिक क्षेत्र की जनस्वास्थ्य सेवाओं के प्रति आम आदमी का भरोसा कमजोर ही बना हुआ है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की पिछली रिपोर्ट बताती है कि देश के 50 फीसद लोग बीमार होने पर सरकारी अस्पतालों में नही जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सार्वजनिक अस्पताल विशेषज्ञ चिकित्सको की भारी कमी से जूझ रहे हैं।

बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पंजाब,उत्तराखंड, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की स्थिति इस मामले में सर्वाधिक खराब है। बिहार में तो 80 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 75 प्रतिशत लोग अपने इलाज के लिए निजी डॉक्टरों या अस्पताल में जाने को विवश हैं। सवाल यह है कि आखिर सार्वजनिक सेवाओं को जनोन्मुखी कैसे बनाया जाए? इसके लिए सबसे बेहतर तरीका यही है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता को सार्वजनिक अस्पतालों में बढ़ाना होगा। इसके लिए हमें इंग्लैंड की स्वास्थ्य सेवाओं का अध्ययन करना चाहिए जहां पीजी की पढ़ाई भारत की तरह केवल मेडिकल कॉलेजों में नहीं होती है।


वहां सभी पीजी डॉक्टरों को सबंधित स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात किया जाता है और केवल थ्योरी क्लास के लिए मेडिकल कॉलेज जाना होता है। नतीजतन इंग्लैंड के सरकारी अस्पतालों में हर समय चिकित्सक उपलब्ध रहते हैं। भारत में भी इस प्रयोग को किया जाना बेहद सरल है। देश के सभी मेडिकल कॉलेजों के पीजी विद्यार्थियों को डिग्री समाप्त होने तक ग्रामीण, कस्बाई या जिला अस्पतालों में पदस्थ किया जा सकता है। इसके दो फायदे होंगे। पहला सरकारी अस्पतालों में हर समय विशेषज्ञ डॉक्टर मिल सकेंगे और पीजी डॉक्टरों को भी बेहतर अनुभव हासिल होगा। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकीय रिपोर्ट 2022 कहती है कि देश के 6064 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र यानी सीएचसी में सर्जन के 83 प्रतिशत, गायनिक 74 प्रतिशत, पीडियाट्रिक्स 81.6 और जनरल ड्यूटी वाले 79.1 फीसद चिकित्सक उपलब्ध ही नहीं।

हालांकि यह भी तथ्य है कि 2005 की तुलना में पांच फीसदी विशेषज्ञ एवं 20 प्रतिशत जनरल ड्यूटी यानी एमबीबीएस डॉक्टर सीएचसी में बढ़े हैं लेकिन अकेले केंद्र के अधीन चलने वाले अस्पताल जिनमें 22 नए एम्स भी शामिल हैं वहां तीन हजार डॉक्टरों एवं 21 हजार पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी भी चिंतित करने वाला पक्ष है। हमारे देश में सरकारी अस्पताल आज भी एलोपैथी डॉक्टरों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि करीब 12 लाख कुल पंजीकृत डॉक्टरों में से मात्र 1.5 लाख डॉक्टर ही समग्र सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं। इसमें भी आधे डॉक्टर तो आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में पंजीकृत हैं यह राज्य पहले से ही स्वास्थ्य मानकों पर उत्तर भारत से बहुत आगे हैं। वस्तुतः मेडिकल शिक्षा का मौजूदा ढांचा अभी भी भारत में आबादी के साथ न्याय नहीं करता है।

इन चार राज्यों में सर्वाधिक निजी मेडिकल कॉलेज भी हैं। जाहिर है यहां से निकलने वाले डॉक्टरों की प्राथमिकता में सरकारी सेवाएं स्वाभाविक ही नहीं रहती हैं। बेहतर होगा मेडिकल कॉलेजों की संख्या हिंदी बेल्ट में तेजी के साथ बढ़ाई जाए। मध्य प्रदेश सरकार के तीन महीने के पीजी इंटर्नशिप कार्यक्रम को तीन साल बढ़ाकर नीतिगत रूप से सार्वजनिक अस्पतालों के साथ देश भर में जोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा करीब डेढ़ लाख एमबीबीएस डॉक्टर हर साल पीजी डिग्री के लिए नीट की परीक्षा देते हैं लेकिन इनमें से एक लाख फैल हो जाते हैं। इसके बाद वे फिर परीक्षा की तैयारियों में जुट जाते हैंष लिहाजा उनके चिकित्सकीय कौशल का देश को कोई फायदा नहीं होता। सरकार इन सभी को सार्वजनिक अस्पताल के साथ जोड़कर अगले चरण में पीजी वेटेज दे सकती है।

हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने देश के शीर्ष निजी अस्पतालों के साथ बैठक कर उनसे एमबीबीएस और पीजी सीटों के साथ पढ़ाई कराने का आग्रह किया है, सरकार इस मामले में सख्ती के साथ विनियमन पर आगे बढ़ सकती है। यह भी डॉक्टरों की कमी को पूरा करने का एक बेहतर रास्ता हो सकता है। देशभर में अभी प्रायः हर राज्य का अपना मेडिकल परीक्षा तंत्र है जो सरकारी ढर्रे पर चल रहा है। किसी भी राज्य में समय पर मेडिकल कॉलेजों में परीक्षा नहीं हो पाती हैं। कुछ राज्यों में तो एक से डेढ़ साल तक सेमेस्टर बिलंब से चलते हैं। यह स्थिति भी अंततः देश के लिए नुकसानदेह ही है।

अब समय आ गया है कि देश में एकीकृत चिकित्सा पाठ्यक्रम हो और नीट की तर्ज पर एक साथ कॉलेजों में परीक्षा का आयोजन हो ताकि समय पर डॉक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। इस दिशा में एक देश-एक परीक्षा और एक पाठ्यक्रम की नीति को राज्यों के साथ मिलकर अपनाया जाना चाहिए। एकसाथ परीक्षा से समय पर नतीजे घोषित होंगे और डॉक्टरों की उपलब्धता समाज मे सुनिश्चित होगी। अभी पाठ्यक्रम के स्तर पर भी विविधता है जबकि होना यह चाहिए कि देश के सभी मेडिकल कॉलेजों में एक समान पाठ्यक्रम में पढ़ाई हो। भाषा के स्तर पर स्थानीयता का ध्यान रखा जा सकता है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता में भी इजाफा होगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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