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    समाचार पत्रः आज भी विश्वसनीय

  • November 02, 2020

    – ऋतुपर्ण दवे

    कुछ साल पहले ‘मैच फिक्सिंग’ शब्द काफी चर्चा में रहा था। हाल में टीआरपी को लेकर जिस तरह एकाएक कई सच उजागर हुए उसके बाद मानना पड़ेगा कि टीवी देखने वाले आँखों देखी ठगी का शिकार होते हैं। यहां मैच फिक्सिंग भी और टीआरपी फिक्सिंग भी। ऐसे शिकारों का दर्द भी दोहरा होता है। एक तो पैसे देकर अपने मुताबिक प्रोग्राम की सूची बनवाते हैं, दूसरा इन्हें देखते हुए कब ठगी, झूठ का शिकार हो जाते हैं पता नहीं चलता।

    देश की आबादी लगभग 136 करोड़ है, वहीं कुल टीवी सेट्स की संख्या 20 करोड़ और दिखने वाले विभिन्न भाषाई चैनलों की संख्या 900 के लगभग है। स्वाभाविक है चैनलों की आपसी होड़ नियम, नियमावली और करार से ज्यादा विज्ञापनों पर केन्द्रित होती है। विज्ञापन के लिए लोकप्रियता का पैमाना तय करने के लिए तकनीकी रूप से टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइण्टस पर एक उपकरण फिक्स होता है जो वहाँ देखे जा रहे चैनल, कार्यक्रम आदि का डेटा कलेक्ट कर साप्ताहिक रेटिंग जारी करते हैं। यह चैनलों की लोकप्रियता का क्रम बताता है।

    सुशान्त मामले पर सुर्खियाँ बटोरने और टीआरपी में बने रहने की होड़ में कई खबरिया चैनलों ने कंटेन्ट की प्रमाणिकता और विश्वनीयता की बची-खुची आत्मा को ही मार दिया। चौबीसों घण्टे, सातों दिन हफ्तों चले इंसाफ की दुहाई में विश्व में दूसरे क्रम की जनसंख्या वाले देश में तमाम मुद्दे गौण हो गए। कोरोना तक पीछे हो गया। आरोपी, फरियादी, वकील और जज की भूमिका निभाते चैनलों की चीख-चिल्लाहट के बीच आज सुशान्त का मामला वहीं दिख रहा है जहाँ देश के तमाम इस तरह के मामले हैं।

    दरअसल, टीवी कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर उंगलियाँ तो काफी पहले से उठ रहीं थीं लेकिन हाल के टीआरपी घोटाले के बाद यह साफ हो गया है कि यहाँ भी खेल फिक्सिंग का है। टीआरपी घोटाला एकाएक सामने आया और लोगों में चैनलों के प्रति गुस्सा भी दिखा। फिक्सिंग का खेल यहाँ भी चल रहा था। चैनलों में प्रसारित होने वाली सामग्रियाँ जनसरोकारों से दूर होती जा रही हैं। विज्ञापन बटोरने के लिए काला-पीला करने वाला फिक्सिंग का खेल यहाँ भी खेला जा रहा था। कुल 40 हजार घरों में फिक्स टेलीविजन रेटिंग प्वाइण्ट्स बैरोमीटर लगे थे। यूँ तो ये गुप्त होते हैं लेकिन सच यह निकला कि तय घरों में तय चैनलों को देखने के लिए फिक्स थे। खुलासा मुंबई में हुआ जिसपर भी खूब हो हल्ला मचा और टीआरपी के हमाम में आरोपित या संदेही चैनलों ने भी एक-दूसरे की इज्जत तार-तार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

    चैनलों की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे। बीते महीने आईएएनएस और सी वोटर मीडिया ट्रैकर सर्वे से पता चला कि 63.1% लोगों ने माना कि कोरोना के बाद पाठकों के लिए समाचार-पत्र अधिक भरोसेमंद हो गए। जबकि 31.2% इससे असहमत थे। वहीं 75.5% ने कहा कि समाचार-पत्रों में समाचार और घटनाक्रम सही ढंग से दिए जाते हैं जबकि 12.5% ऐसा नहीं मानते हैं। सर्वे में 72.90% लोगों ने माना कि टीवी न्यूज चैनलों की बहस से ज्यादा अच्छी जानकारी समाचार-पत्रों से मिलती है। वहीं 21.50% इससे असहमत थे। इसी तरह 65% लोगों ने माना कि समाचार-पत्रों के विज्ञापन ज्यादा उपयोगी होते हैं। वहीं 76.5% लोगों का मानना था कि वे टीवी चैनलों के विज्ञापन से चीजें नहीं खरीदते हैं जबकि 18.5% ने इससे असहमति जताई।

    निश्चित रूप से आज भी प्रिन्ट मीडिया की साख और धाक को कोई चुनौती नहीं है। इसकी वजह साफ है कि यह एक दस्तावेज के रूप में सहेजे जा सकते हैं और कंटेंट का चयन बेहद संजीदगी व सावधानी से किया जाता है। टीवी कार्यक्रम बार-बार न तो रिपीट होते हैं और न ही इन्हें नियमित रूप से सहेज पाना हर किसी के बस में है। शायद यही कारण है कि टीवी चाहे वह मनोरंजन चैनल हों या खबरिया महज एक अलग नजरिए से देखे और भुला दिए जाते हैं।

    भारत में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों जिनमें दैनिक, पाक्षिक एवं साप्ताहिक भी शामिल हैं, उनकी संख्या लगभग 1 लाख 15 हजार है.।जिनमें 98 हजार के लगभग पत्र-पत्रिकाओं की श्रेणी के हैं। वहीं इनके प्रसार के दावों को देखा जाए तो यह 50 करोड़ के आसपास पहुँचता है। समझा जा सकता है कि पहुँच, प्रभाव और प्रसार की दृष्टि से भी समाचार पत्रों की होड़ टीवी चैनलों से नहीं हो सकती। टीआरपी का असली-नकली खेल कुछ भी हो, पत्र-पत्रिकाओं की साख और विश्वनीयता से टीवी चैनलों तुलना ठीक नहीं। शायद इसीलिए सर्वे में भी यही सच सामने आया है।

    क्या टीवी चैनल इतना सच व सबकुछ जानने के बाद भी अक्सर अपने चौंका देने वाले तेवरों और तेज आवाज में भड़काऊ तर्ज पर चीखने-चिल्लाने वाली अदाओं से समाचार-पत्र, पत्रिकाओं की तुलना में काफी पीछे होकर भी आगे होने का भरम तोड़ पाएंगे? दर्शक हों या पाठक उन्हें परोसे जाने वाली सामग्री की विश्वनीयता और उससे भी बढ़कर नैतिकता की कसौटी पर कब खरे उतरेंगे? काश संप्रेषण के सारे माध्यम इसी जनभावना को समझते ताकि विश्व गुरू बनने को अग्रसर भारत का सूचना जगत भी अपनी जिम्मेदारी को गुरूतर भावना से निभा पाता।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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