ब्‍लॉगर

काबुल में गुरुद्वारे पर हमले के निहितार्थ

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

काबुल के कार्ते परवान गुरुद्वारा साहिब पर हुए हमले ने अफगान सिखों को हिलाकर रख दिया है। जिस अफगानिस्तान के शहरों और गांवों में लाखों सिख रहा करते थे, वहां अब मुश्किल से डेढ़-दो सौ परिवार बचे हुए हैं। उनमें से भी 111 सिखों को भारत सरकार ने इस हमले के बाद तुरंत वीजा दे दिया है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं काबुल विश्वविद्यालय में अपना शोधकार्य किया करता था, तब मैं देखता था कि काबुल, कंधार, हेरात और जलालाबाद के सिख सिर्फ मालदार व्यापारी ही नहीं हुआ करते थे, काफी शानदार और सुरक्षित जीवन बिताया करते थे। औसत पठान, ताजिक, उजबेक और हजारा लोग सिखों को बहुत ही सम्मान की नजर से देखते थे। सिखों को भी अपने अफगान होने पर बड़ा नाज हुआ करता था।

गजनी ने एक वयोवृद्ध सिख से मैंने पूछा था कि आप कब से यहां रहते हैं तो उन्होंने तपाक से कहा कि जब से अफगानिस्तान बना, तभी से! ऐसे देशभक्त सिखों को अफगानिस्तान से भागना पड़ गया है, यह क्या शर्म की बात नहीं है? लेकिन यह संतोष और आश्चर्य का विषय है कि जिन तालिबान को अत्यंत कट्टरपंथी माना जाता है, उनकी पुलिस तो उस गुरुद्वारे की रक्षा कर रही थी लेकिन खुरासानी इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी गुरुद्वारे पर हमला कर रहे थे। हमले में एक सिख और एक तालिबान सिपाही मारा गया।

इसके पहले जलालाबाद और हर राई साहब के गुरुद्वारों पर हुए हमलों में दर्जनों लोग मारे गए थे। तालिबान सरकार ने उक्त हमले में मृतकों के परिवारों को एक-एक लाख रुपये और गुरुद्वारे के पुनरोद्धार के लिए डेढ़ लाख रुपये दिए हैं। ये तथ्य बहुत ही गौर करने लायक हैं। क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों को भी यही नहीं करना चाहिए? इससे यह भी जाहिर होता है कि भारत के प्रति तालिबान शासन के मन में कितनी सद्भावना है। भारत सरकार ने भी तालिबान शासन के दौरान अफगान जनता की मदद के लिए हजारों टन गेहूं और दवाइयां काबुल भिजवाईं।

भारत सरकार ने अपना एक प्रतिनिधिमंडल विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जेपी सिंह के नेतृत्व में काबुल भेजा था ताकि अन्य 13 राष्ट्रों के राजदूतावासों की तरह हमारा राजदूतावास भी दुबारा सक्रिय हो सके लेकिन अब इस दुर्घटना के बाद भारत को जरा ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा। गुरुद्वारे पर यह जो हमला हुआ है, वह भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान के बहाने हुआ है लेकिन 2018 और 2020 के हमलों के वक्त तो ऐसा कुछ नहीं था।

इसके पहले भी काबुल के शहरे-नव में स्थित हमारे राजदूतावास और जरंज-दिलाराम सड़क पर काम कर रहे हमारे मजदूरों पर जानलेवा हमले हुए हैं। इन हमलों के पीछे असली गुनाहगार कौन है, यह हमें पाकिस्तान ही बता सकता है और वह ही इन्हें रोक भी सकता है। ये हमलावर इस्लाम को कलंकित कर रहे हैं। ये हमलावर भारत और तालिबान के बीच संबंधों के सहज होने से शायद घबरा गए हैं।

(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)

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