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यादें बंटवारे की: शरणार्थी कैसे उठे राख के ढेर से

– आरके सिन्हा

भारत अपनी स्वाधीनता के 75 साल पूरे कर रहा है। सारे देश में उत्साह और उल्लास का वातावरण बन गया है। लेकिन, भारत को आजादी की बड़ी कीमत देश के बंटवारे के रूप में अदा करनी पड़ी थी। यह भी एक कटु सत्य है। हजारों निर्दोषों ने अपनी जानें गंवाई। लाखों लोगों को अपने घरों से दूर जाकर अपनी नई दुनिया बसानी पड़ी थी। आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तो हमें उन पंजाबी और बंगाली शरणार्थियों को अवश्य याद रखना होगा, जिन्होंने कठिन और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने हिस्से का आसमान छुआ। पंजाब से आये शरणार्थियों ने कारोबारी दुनिया में अपनी कड़ी मेहनत और जीवटता से अभूतपूर्व सफलता हासिल की।

अगर आप राजधानी दिल्ली में रहते हैं या फिर वहां पर आते-जाते रहते हैं तो आपने वहां लोकप्रिय बंगाली मार्केट के पास तानसेन मार्ग के कोने पर स्थित फेडरेशन ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) का भवन देखा होगा। फिक्की की बिल्डिंग में उसके तमाम पूर्व अध्यक्षों की फोटो लगी हैं। उनमें अपोलो टायर्स के चेयरमेन रौनक सिंह की भी फोटो है। वे सन 1989 में फिक्की के अध्यक्ष थे। वे देश के बंटवारे के वक्त लाहौर से दिल्ली आये थे। वे लाहौर में एक दुकान में काम करते थे। रौनक सिंह ने 85 नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज के दफ्तर से बिजनेस के संसार में दस्तक दी थी। उन्होंने अजमेरी गेट की एक स्टील पाइप की दुकान में भी काम किया। आज भले ही वे संसार में नहीं हैं, पर उनका अपोलो टायर्स संसार की सबसे बड़ी टायर निर्माता कंपनियों में से एक है।

फिक्की में ही डॉ. ज्योत्सना सूरी का भी चित्र लगा है। वो ललित सूरी की पत्नी हैं। वो ललित होटल की चेयरपर्सन हैं। उनके ससुर सन 1947 में रावलपिंडी से खाली हाथ भारत आये थे। भारत आकर सूरी परिवार ने कसकर मेहनत की और आज इनके देशभर में कई लक्जरी होटल चल रहे हैं, जिनमें हजारों मुलाजिम काम करते हैं।
हम सबने एमडीएच मसाले वाले वयोवृद्ध महाशय धर्मपाल गुलाटी को अपनी कंपनी के ब्रांड एंबेसडर के रूप में सालों विज्ञापनों में देखा है। वो जम्मू के पास स्योलकोट शहर से सपरिवार दिल्ली आये थे। पक्के आर्य समाजी महाशय जी ने दिल्ली में टांगा भी चलाया था और पिता की मसाले की दुकान में बैठकर काम भी किया। वे जब राजधानी के करोलबाग में होते थे तो जूते-चप्पल पहनकर नहीं घूमते थे। वे कहते थे, “इसी करोलबाग में खाली हाथ आया था। यहां पर रहते हुए ही मेरा कारोबार में सफल हुआ। इसलिये ये सारा क्षेत्र मेरे लिये मंदिर के समान है।”

दरअसल देश के विभाजन ने पंजाब के सैकड़ों नौजवानों को उद्यमी बनाया। उनके पास कुछ अपना कारोबार करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था। बेशक, महाशय धर्मपाल गुलाटी का जीवन मिसाल है, उन सभी के लिए जो जीवन में अपने लिए नई इबारत लिखना चाहते हैं। एक शरणार्थी किस तरह से जीवन में अपने लिये जगह बनाता है, उसकी बेहतरीन मिसाल थे, महाशय जी।

बेशक, कोई भी समाज जो कठिन दौर से गुजरता है, संघर्ष करता है, वह आगे चलकर तरक्की करता ही है। मारवाड़ियों को ही लें। ये राजस्थान-गुजरात की ड्राई धरती और मरुस्थल में पैदा हुए। अब देश के अधिकांश बड़े उद्योगपति मारवाड़ी समाज से ही आते हैं। पारसियों को देखिए जो ईरान से आए, सिंधी जो सिंध से आए। इन सबने विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष किया और संपन्न बने। देश विभाजन ने हजारों नौजवानों को आंत्रप्योनर बनाया था। पाकिस्तान से सन 1947 में भारत आ गए अनेक नौजवानों ने नए-नए कारोबार चालू करके अपने लिए जगह बनाई थी। विपरीत हालात में इन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। इनमें से ही कई आगे चलकर ब्रजमोहन मुंजाल (हीरो ग्रुप) और एच.सी नंदा ( एस्कोर्ट्स) सरीखे उद्योगपति बने। इन्होंने साबित किया कि वे विपरीत हालात में भी लड़ेंगे। अब दलितों का समय है, दलित व्यापार में अपनी क्षमताओं से भरपूर ढंग से आगे बढ़ रहे हैं।

बंटवारे के वक्त खुखरायण पंजाबियों को भी भारत आना पड़ा था। इनके सरनेम होते हैं आनंद, कोहली, सूरी, सब्बरवाल, साहनी वगैरह। खुशवंत सिंह कहते थे कि “खुखरायण पंजाबी खत्रियों का एक जाति समूह है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर भी कोहली ही हैं। इनके अलावा इसमें घई, चंडोक, चड्ढा, भसीन, खन्ना व भाटिया ऐसी अन्य जातियां व उपजातियां शामिल हैं, जो एक-दूसरे से वैवाहिक रिश्ते कायम करने को प्राथमिकता देती हैं। खुखरायण समाज में हिन्दू और सिख दोनों हैं। खुखरायण मुख्य रूप से पाकिस्तान के रावलपिंडी, झेलम और कैमलपुर जैसे स्थानों से भारत आये थे। ये लगभग सभी बिजनेस ही करते हैं। इनमें नौकरी करने वाले मात्र गिनती के ही होंगे। आपको खुखरायण धर्मशालाएं हरिद्वार, बनारस, दिल्ली में भरपूर मिलेंगी।

बेशक, बंटवारे का एक सकारात्मक पक्ष यह रहा था कि इसने भारत के विभिन्न शहरों की आबादी को समावेशी बना दिया। बंटवारे के चलते पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से नामधारी सिख भी भारत आये। इन्हें आप तुरंत पहचान लेते हैं, इनकी एक खास तरह की वेषभूषा के कारण। ये सफेद कुर्ता, चूड़ीदार पायजामा और सफेद ही पगड़ी पहनते हैं। इनकी पगड़ी को कहते हैं सीधी पगड़ी। देश के विभाजन से पहले ये सभी पंजाब में ही थे। ये बंटवारे के बाद बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र वगैरह में चले गये।

इनके भी खून में कारोबार करना ही है। ये शुरू में टेंट का बिजनेस खूब करते थे। इनके संरक्षक सरदार सेवासिंह चावला रहे हैं। वे दशकों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद से भी जुड़े रहे थे। नामधारी बिरादरी के बारे में कहा जाता है कि ये नौकरी करने से बचते हैं। शायद ही कोई हो जो कहीं नौकरी कर रहा हो। ये अपना बिजनेस करना पसंद करते हैं। हां, पहले बिहार और फिर झारखंड के शिखर नेता इन्दर सिंह नामधारी ने अपने लिये बिजनेस के अलावा समाजसेवा का रास्ता भी चुना।
नामधारी सिख ऑटो पार्ट्स, होटल से लेकर कपड़ों के कारोबार में एक्टिव हैं। आप इन्हें थाईलैंड में भी खूब देखेंगे। ये वहां भी खूब बसे हुए हैं। ये शराब और मांस से परहेज करते हैं। थाईलैंड के नामधारियों ने नेताजी के आजाद हिन्द फ़ौज को दिल खोलकर भरपूर मदद की थी। तो जब देश अपनी आजादी का जश्न मना रहा है, तब उनको याद करना जरूरी है, जिनको बंटवारे के कारण अपने घरों को छोड़ना पड़ा था। उन शरणार्थियों ने बिजनेस की दुनिया में अपना कमाल का सिक्का जमाया।

(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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