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प. बंगाल विस चुनाव में महिला मतदाताओं का रुझान

 

मोहन सिंह
पश्चिम बंगाल विधानसभा सभा चुनाव में महिलाओं की बढ़-चढ़कर हो रही हिस्सेदारी के क्या संकेत हैं? बड़ी संख्या में महिला मतदाताओं के मतदान व्यवहार किस आधार पर तय हो रहे हैं? क्या वे राज्य की एक महिला मुख्यमंत्री के पिछले दस साल के कामकाज से संतुष्ट हैं? क्या महिलाओं के वोट व्यवहार का आधार भी वही है जो पुरुषों के हैं अथवा उनसे अलग हैं? ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पश्चिम बंगाल के बंग समाज में महिलाओं की सामाजिक भूमिका देश के अन्य महिला समाजों से थोड़ा अलग, गरिमामय और निर्णायक रहा है। परिवार में भी इन्हें बड़ो मां का दर्जा प्राप्त है और वे बहुत हद तक परिवार के निर्णय को प्रभावित भी करती हैं।

मतदाता के लिहाज से पश्चिम बंगाल के कुल मतदाताओं का लगभग 49.1% यानी 3 करोड़ 59 लाख 27 हजार से कुछ अधिक महिला मतदाता हैं। तुष्ट लक्ष्मी और जागृत सरस्वती के मेल से बंग समाज की महिलाओं के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए लगभग हर बंगाली महिला में कला, साहित्य और संगीत के प्रति स्वाभाविक रुझान देखने को मिलता है। थोड़े में जीवन को बेहतरीन तरीके से गुजरा करने की कला कोई बंग समाज की महिलाओं से सीख सकता है। बचपन से ही परिवार के बच्चों को शिक्षा के अच्छे संस्कारों से लैश करना और परिवार के बच्चों का जीवन पढ़ाई-लिखाई के बाद खुशहाल और सलामत रहे, इस बाबत उनके परवरिश की चिंता हर बंगाली परिवार की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।

आज विधानसभा चुनाव के वक्त इन चंद सवालों के दायरे में और बंग समाज की महिलाओं के राजनीतिक रुझान की रोशनी में ममता बनर्जी सरकार के कामकाज की पड़ताल करें तो जाहिर है अलग-अलग आयु वर्ग के बीच अलग-अलग राय उभर कर सामने आएगी। पर एक बात जो स्पष्ट रूप से सामने आ रही है कि ममता राज में कटमनी, करप्सन और सिंडिकेट के हर काम में दखलंदाजी से आमजन बेहद परेशान हैं। जाहिर है यह उनके मतदान के निर्णय को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है। पढ़ी-लिखी 20 साल से 30 साल आयु वर्ग की वे महिलाएं जो रोजगार की तलाश में भटक रही हैं, बातचीत से यह बात सामने आई कि अगर वे सत्ताधारी पार्टी से नहीं जुड़ी हैं तो उनके लिए जो थोड़ी बहुत सरकारी नौकरियों के अवसर उपलब्ध होते हैं, उसमें भी उनकी नियुक्ति नहीं हो सकती है। मतलब सरकारी नौकरियों में पूरी तरह से पारदर्शिता नहीं बरती जाती है।

एक मोबाइल कंपनी में सेल्स एक्सक्यूटिव के पद पर काम कर रही खोसला राजकुटी बताती हैं कि ममता बनर्जी के राज में यह एक ऐसा चलन है जिससे पढ़-लिखकर कामकाज की तलाश में निकली महिलाओं में ज्यादा नाराजगी है। वहीं चालीस से पचास आयु वर्ग की बंगाल की महिलाओं में आज भी ममता का वैसा ही जादू है, जैसा मोदी का है। ये वो महिलाएं हैं जो मोदी है तो मुमकिन है के नारे में यकीन करती हैं और जिन्हें जनधन खाते में कोरोना काल में पांच सौ रुपये की राशि बिना भेदभाव पहुंची हैं। एक केंद्रीय विद्यालय की अध्यापिका का मानना है कि ऐसी ही महिलाओं ने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव अपना कमाल दिखाया और बाजी पलट दी।

यूनिवर्सिटी-कॉलेजों में अध्ययनरत 20 साल से 25 साल आयु वर्ग एक छोटा ही सही, ऐसा समूह भी है जिसने वाम मोर्चा सरकार को भले नहीं देखा है पर उसे भाजपा की हिंन्दुत्व की विचारधारा में भी कोई बेहतर विकल्प नज़र नहीं आता। उसे अपनी सांस्कृतिक आजादी में हिंदुत्व की विचारधारा एक अनावश्यक हस्तक्षेप नज़र आती हैं। इस आयु वर्ग को लक्ष्य करके ही तीर्णमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा दावा करती हैं कि हमें अपनी संस्कृति पसंद है, हमें अपना संगीत पसंद है, अपनी मिष्टी पसंद है और हाँ हमें लव जिहाद भी पसंद है। पर महुआ मोइत्रा ने यह नहीं बताया कि आमतौर पर वाणी की मिठास और हर परिस्थिति में महिलाओं का हंसमुख व्यवहार जो बंग समाज की महिलाओं की जाति विशेषता रही है। ममता बनर्जी का यह बयान भी उन्हें पसंद है कि प्रधानमंत्री मोदी को गले में रस्सी बांधकर मरना चाहिए? क्या ममता यह बयान एक करुणामयी माँ और ममतामयी दीदी के बंगीय सभ्यता के आचरण के अनुकूल है?


बातचीत में अधिकतर महिलाओं ने बताया कि ममता के लड़ाकू छवि को तो वे पसन्द करती हैं पर हर समय उनका गुसैल चेहरा, चुनाव के वक्त अनावश्यक चिड़चिड़ापन और अनाप-शनाप बयानबाजी उन्हें पसंद नहीं। खासकर वे महिलाएं जिन्हें मोदी पसंद हैं और वे मोदी में वही छवि देखती हैं जो ममता समर्थक महिलाएं ममता दीदी में देखने को अभ्यस्त रही हैं। अगर उन्हें ममता को दीदी ओ दीदी कहें जाने पर चिढ़ है तो मोदी समर्थक महिलाओं में भी प्रधानमंत्री के प्रति अपमानजनक बयान से कोई खुशी नहीं है। हालांकि ममता सरकार की कन्याश्री और कई अन्य योजनाओं से भी महिलाओं का एक बड़ा वर्ग लाभान्वित हुआ है और इन महिला समूहों में आज भी ममता दीदी की वैसी ही पकड़ बरकरार है। पर कोरोना महामारी जैसे आपात स्थिति में केंद्र सरकार के मुफ्त राशन की लूट और अम्फाम तूफान के वक्त केन्द्रीय सहायता में बंदरबाट की टीस और हर केंद्रीय योजना को अपना बताकर जनता के बीच पेश करने की ममता सरकार की चालबाजी लोगों को बखूबी याद है। लोग इस चुनाव में इसका हिसाब लेने का मन बना चुके हैं।

पर क्या धार्मिक आधार पर भी इस चुनाव में महिलाओं के वोट विभाजित हो रहे हैं? पेशे से डॉक्टर डॉ. अरूप दास बताते हैं कि इस चुनाव में खासकर गांवों में हिंदुत्व, बेरोजगारी और कटमनी ही महिलाओं के मतदान का आधार तय कर रहे हैं। सीमांत चेतना मंच से जुड़ी सोनाली डे बताती हैं कि अब पहले की अपेक्षा शहरों में भी ज्यादा महिलाएं भाजपा के साथ आ रही हैं। हालांकि लाकेट चटर्जी को छोड़कर कोई कद्दावर भाजपा नेत्री शहरों में भी भाजपा के पास नहीं है। पर अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर कई महिलाओं ने बताया कि एक खास आयु वर्ग को छोड़ दें तो ज़्यादातर यंग जनरेशन इसबार परिवर्तन का मन बना रहा है। ख़ासकर इसलिए कि 34 साल के वाममोर्च और दस साल ममता सरकार को देखने के बाद एकबार भाजपा को भी अवसर देकर देखा जाय कि असोल परिबर्तन और सोनार बांग्ला बनाने के वादे में कितनी सच्चाई। किस हद तक उनकी उम्मीदें पूरी होती हैं।

महिलाओं से बातचीत से एक बात और साफ हुई कि जिन उम्मीदों के साथ ममता बनर्जी को वाममोर्चा से पिंड छुड़ाने के लिए सत्ता सौपीं गई थी, उन उम्मीदों पर ममता दीदी खरी नहीं उतरी। इसलिए अकेली महिला मुख्यमंत्री होने के नाते और चुनाव के एन वक्त घायल शेरनी की तरह ज्यादा घातक होने के दावे के बावजूद उनकी अगले पांच साल के वजूद का फैसला पिछले दस साल के कामकाज पर ही होंगे। लोकतंत्र के न्यूनतम तकाजे के मुताबिक ऐसा होना भी चाहिए।

 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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