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सृष्टि के रहस्य सदियों से अदृश्य

– हृदयनारायण दीक्षित

सृष्टि रहस्यपूर्ण है। इसका एक भाग प्रत्यक्ष है। शेष अदृश्य है। प्रत्यक्ष भाग के सहारे अप्रत्यक्ष को जानने के प्रयास जारी हैं। अणु परमाणु की गति के अध्ययन भी चल रहे हैं। सृष्टि उद्भव का आदितत्व प्राचीन दार्शनिकों के लिए जिज्ञासा का विषय रहा है। यूनानी दर्शन के पितामह थेल्स (ई.पू. लगभग 600 वर्ष) ने जल को आदि तत्व बताया था। विकासवादी सिद्धांत में चार्ल्स डारविन ने भी सृष्टि का उद्भव जल से ही बताया था। ऋग्वेद में ‘सृष्टि के प्रत्येक अंश को जन्म देने वाली जलमाताएं हैं। जलमाता का विचार महत्वपूर्ण है। कुछ विद्वान अग्नि को आदितत्व मानते थे। हिराक्लिटस का विचार यही था। ऋग्वेद में अग्नि भी बड़े देवता हैं। यूनानी दार्शनिक अनकसीमेनस वायु को आदितत्व मानते थे। कठोपनिषद में अग्नि के साथ वायु को भी मूलतत्व बताया गया है- ‘यह अग्नि सभी भुवनों में प्रविष्ट होकर रूप-रूप प्रतिरूप होता है।’ इसी तरह वायु के लिए कहा गया है- ‘यह वायु सभी भुवनों में प्रविष्ट होकर रूप-रूप प्रतिरूप होती है।’ रूप नाम भिन्न-भिन्न हैं। इनके भीतर अग्नि या वायु मूलतत्व उपस्थित हैं। वायु सूक्ष्म है। सुमेरी सभ्यता में मान्यता है कि पहले धरती और आकाश एक साथ जुड़े थे। ऋग्वेद में भी यही बात कही गई है कि पहले धरती आकाश मिले हुए थे।

पृथ्वी और आकाश पहले एक थे। ऋग्वेद में दोनो का साझा नाम ‘रोदसी’ है। ऋग्वेद (प्रथम मंडल, सूक्त 185 मंत्र 5) में द्यावा पृथ्वी मिले हुए हैं। अलग होने के बाद पृथ्वी माता हैं। द्यावा पिता हैं। दोनों ने वायु को जन्म दिया। धरती और आकाश को मरुद्गणो-वायु ने अलग किया। जैसे वैदिक चिंतन में पृथ्वी और आकाश पहले मिले हुए थे, साझा नाम रोदसी था वैसे ही सुमेरी सभ्यता में धरती आकाश का साझा नाम है-अनकि। ‘लिल’ ने धरती आकाश को अलग किया। वायु सूक्ष्म है, स्पर्श में आते हैं, लेकिन दिखाई नही पड़ते। वायु की भूमिका महत्वपूर्ण है। वे पांच महाभूतों में एक है। छान्दोग्य उपनिषद में वायु की महत्ता पर सुंदर कथा है। जानश्रुति के पुत्र का पौत्र श्रद्धालु राजा था। एक दिन वह सायं गर्मी के कारण छत पर बैठा था। उसी समय उधर से कुछ हंस उड़ते हुए निकले। एक हंस ने दूसरे से कहा- ‘देख! जानश्रुति पौत्रायण का यश तेज घुलोक के सामान फैल रहा है। उसे स्पर्श न कर। वह तुझे भस्म कर देगा।’ इस कथा में हंसों का संवाद है। हंस ज्ञान का प्रतीक पक्षी है। उनका संवाद दो समझदारों की ज्ञान वार्ता है। इसका जीवन में महत्व है। संवाद का विषय दार्शनिक है। सुबोध है।

एक हंस की दृष्टि में जानश्रुति पौत्रायण का यश दूरगामी था। दूसरे हंस ने राजा पौत्रायण के यश को सीमित बताया और कहा-‘तू किस महत्व से युक्त रहने वाले इस राजा के प्रति सम्मानित वचन कह रहा है? क्या तू इसे गाड़ीवान रैक्व के समान बताता है?’ पहले वाले हंस ने पूछा-‘ यह गाड़ीवान रैक्व कैसा है? दूसरे ने उत्तर दिया ‘प्रजा सत्कर्म करती है। वह गाड़ीवान रैक्व को मिल जाते हैं। रैक्व ज्ञानवान है।’ शंकराचार्य के भाष्य के अनुसार ‘लोक में प्रजा तमाम शोभन कार्य करती है। समस्त प्राणियों के धर्मफल उसके धर्मफल हो जाते हैं।’ जानश्रुति पौत्रायण ने हंसों की बात सुनी। राजा ने गाड़ीवान रैक्व को खोजने के निर्देश दिए। सेवक खोजने में विफल रहा। राजा ने सेवक से कहा- ‘जहां एकान्त वन, नदी तट आदि स्थानों पर ब्रह्मवेत्ता की खोज की जाती है, वहां रैक्व की खोज कर।’ इसी खोज में उसने दाद खुजला रहे रैक्व को देखा और कहा-‘ भगवन क्या आप ही गाड़ी वाले रैक्व हैं? रैक्व ने उत्तर दिया- ‘मैं ही रैक्व हूं।’ सेवक राजा के पास लौट आया। उत्तर वैदिक काल के राजा पशु-पक्षियों की टिप्पणी को भी महत्व देते हैं। हंस पक्षी है। इस प्रसंग में हंस मनुष्य भी हो सकते हैं। बहुत संभव है कि राजा पर टिप्पणी करने वाले ऋषि ने मनुष्यों के लिए हंस का प्रतीक प्रयोग किया होगा।

राजा जानश्रुति पौत्रायण रैक्व से मिलने को बेताब था। वह छह सौ गायें, एक हार, रथ और तमाम सामग्री लेकर रैक्व के पास गया। उसने निवेदन किया- ‘यह संपदा आप स्वीकार करें। मुझे आप उस देवता का उपदेश कीजिए जिसकी उपासना आप करते हैं।’ ज्ञान प्राप्ति के लिए विनम्रता जरूरी है। इसके पहले ज्ञान प्राप्ति की गहन इच्छा चाहिए। राजा रैक्व की यश कीर्ति से प्रभावित था। रैक्व ने राजा से कहा ‘ऐ शूद्र ! गायों सहित हार युक्त रथ तेरे ही पास रहे।’ यह सुनकर राजा एक सहस्त्र गायें, रथ और अपनी कन्या लेकर फिर उसके पास गया।’ रैक्व ने राजा को शूद्र कहा। इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि छान्दोग्य उपनिषद के रचनाकाल में वर्ण विभाजन हो रहा था। शंकराचार्य ने अपने भाष्य में कहा है कि वह शूद्र के समान केवल धन द्वारा ही विद्या ग्रहण करने के लिए रैक्व के पास गया था, सेवा द्वारा नहीं। गीता और उपनिषदो में ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की सेवा जरूरी बताई गई है – सेंवया परिप्रश्नेन। सेवा सहित प्रश्न पूछना चाहिए। रैक्व ने जानश्रुति पौत्रायण को विद्या का उपदेश किया। रैक्व वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण नहीं था। कथा का संकेत है कि गरीब रैक्व भी राजा को ज्ञान दे सकता है। राजा भी ज्ञान के लिए सभी व्यावसायिक वर्गों के पास जाते थे। ज्ञान परंपरा सभी वर्गों के लिए खुली थी। विद्या अध्ययन सबका अधिकार था।

रैक्व ने उपदेश दिया। वायु की महत्ता बताई ‘वायु ही संवर्ग है। अग्नि बुझते ही वायु में लीन हो जाते हैं। सूर्य अस्त होते हैं। वे भी वायु में लीन हो जाते हैं। चंद्र अस्त होते हैं, वे भी वायु में लीन हो जाते है।’ आगे कहते हैं-‘जल सूखता है, वह वायु में लीन हो जाता है। वायु ही सब जलों को अपने में लीन कर लेता है।’ आगे अध्यात्म का वर्णन है-‘ अथ अध्यात्मं’। कहते हैं कि प्राण ही संवर्ग है। जब पुरुष सोता है, प्राण को ही वाक् इन्द्रिय मिल जाती है। प्राण को ही चक्षु-देखने की इन्द्रिय मिल जाती है। प्राण को ही श्रोत्र और प्राण को ही मन प्राप्त हो जाता है। प्राण ही इन सबको अपने में लीन कर लेता है।’ कहते है कि ये दो संवर्ग हैं। देवताओं में वायु और इन्द्रियों में प्राण। वायु महत्वपूर्ण है। तैत्तिरीय उपनिषद के शांति पाठ में मित्र, वरुण, इंद्र, विष्णु आदि का स्मरण करते हैं, फिर वायु को नमस्कार करते हुए कहते हैं- ‘ नमस्ते वायो त्वमेंव प्रत्यक्षं ब्रह्म असि- हे वायु आप प्रत्यक्ष ब्रह्म है। मैं आप को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहता हूं। ऋत कहता हूं। सत्य कहता हूं। वक्ता आचार्य की रक्षा करें, मेरी रक्षा करे।’ सत्य के मार्ग पर अनेक कठिनाइयां हैं। यहां इसीलिए वायुदेव से रक्षा की स्तुति है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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