अभी तक तो दिग्गी-नाथ खुद को जय-वीरू कह रहे थे, अब तोमर ने भी उनकी और शिवराज की जोड़ी को जय-वीरू बता डाला… अब आलम यह है कि इधर भी जय-वीरू, उधर भी जय-वीरू… बीच में फंसी मौसी….बसंती, यानी सत्ता का रिश्ता पक्का करने आए एक नहीं, बल्कि दो-दो जय-वीरू मौसी को समझा रहे हैं… हर बुराई में अच्छाई लपेटकर कान पका रहे हैं और बेचारी मौसी इस बात पर दाद दिए जा रही है कि तुम्हारी जोड़ी में लाख बुराई हों, पर लपेटना तुम्हें खूब आता है…अब मौसी की मुश्किल यह है कि वो इस जय-वीरू को चुने या उस जय-वीरू को…दोनों ही गब्बर, यानी अधिकारियों के गुलाम हैं…गब्बर लूटता भी है…मारता भी है और समझाता भी है कि पचास-पचास कोस दूर गांव में जब बच्चा रोता है तो मां कहती है सो जा बेटा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा…गब्बर से कोई तुम्हें बचा सकता है तो खुद गब्बर… इसलिए गब्बर को पालो और जय-वीरू को टालो…बात सही भी है…इस प्रदेश में चाहे जो जय-वीरू हों, गब्बर की लूटपाट कोई खत्म नहीं कर सकता…एक जय-वीरू, यानी नाथ-दिग्गी चुनाव से पहले गब्बरों की लूटपाट पर गुर्रा रहे थे…लेकिन जब से सत्ता के स्वयंवर का मैदान सजा है, तब से खामोशी छाई है…पचास परसेंट तो दूर पांच परसेंट की भी गब्बरी लूटपाट की आवाज नहीं आ रही है…यानी इस जय-वीरू ने भी गब्बर से सेटिंग कर ली है…हकीकत तो यह है कि जय-वीरू हों या गब्बर दोनों का काम तो एक ही था…एक छोटा था तो एक बड़ा था…पूरी शोले में कभी जय-वीरू गब्बर पर भारी पड़ते तो कभी गब्बर दोनों को दौड़ लगवाता था…मुसीबत तो ठाकुर की थी, जो गब्बर के सफाए के लिए जय-वीरू को लाया… लेकिन खुद को ठाकुर समझने वाली जनता को अपने कटे हाथों का ख्याल नहीं आया…ठाकुर को इतना तो समझना चाहिए कि जय-वीरू ताकतवर तो हैं, लेकिन वो किसे बचाएंगे कहा नहीं जा सकता…इस पूरे खेल में बसंती का बड़ा किरदार है… दोनों शोले बसंती की चाहत में ही बनीं…इस शोले में गब्बर ने बसंती (सत्ता) के अपहरण के लिए जब सांभा (प्रदेशभर के उम्मीदवार) को भेजा तो बसंती चीखी भी-चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है… लेकिन धन्नो भी धराशायी हो गई और बसंती गब्बर की चौखट पर पहुंच गई…बसंती को बचाने गब्बर और उसके साथियों के बीच पहुंचे जय-वीरू चिल्लाते रहेे कि बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना… मगर बसंती नाची भी और गाई भी…अभी फिल्म जारी है… बसंती नाच रही है…मौसी समझ नहीं पा रही है…ठाकुर कटे हाथ लिए चौखट पर खड़े हैं…अब जय-वीरू को यदि बसंती को बचाना है तो गब्बर को मारना ही पड़ेगा…लेकिन इस शोले में कहानी का क्लाइमैक्स बदला हुआ नजर आ रहा है…जय-वीरू दोनों गब्बर से समझौता करेंगे… न जय मरेगा न वीरू कुंवारा रहेगा…बसंती (सत्ता) का ब्याह होगा…गब्बर की लूट जारी रहेगी और ठाकुर (जनता) कटे हाथ लिए खुद को कोसता रहेगा…फिलहाल तो दोनों जय-वीरू ऑडिशन दे रहे हैं, जिसकी अदा में दम होगा ठाकुर उस पर फिदा होगा…
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