ब्‍लॉगर

भारतीय भाषाओं के न्यायिक सम्मान का यही सही वक्त

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

दिल्ली के विज्ञान भवन में छह साल बाद मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का सम्मेलन हुआ। इसमें अदालतों में न्यायाधीशों की कमी का मुद्दा तो उठा ही, भारतीय भाषाओं में कामकाज पर भी जोर दिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि बड़ी अदालतों में अगर स्थानीय भाषाओं में कार्य हो तो न्याय प्रणाली में आमजन का विश्वास बढ़ेगा। वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने भी कहा है कि अब न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं में काम करने का वक्त आ गया है लेकिन अदालतों में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग के लिए एक कानूनी व्यवस्था की जरूरत है। यह काम तो आजादी के कुछ समय बाद या यों कहें कि संविधान लागू किए जाने के दिन ही हो जाना चाहिए था, अगर उसे करने की जरूरत आजादी के 75 वें साल में महसूस की जा रही है तो इसे न्यायिक विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? खैर जब जागे तभी सवेरा लेकिन कानूनी व्यवस्था बनाने और लक्ष्मण रेखा के बहाने इसे और अधिक खींचा नहीं जाना चाहिए। शुभस्य शीघ्रं।

वैसे भी यह देश 1774 से ही सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी का प्रभाव देख और झेल रहा है। यह गुलाम भारत की विवशता हो सकती थी लेकिन आजाद भारत में तो निज भाषा उन्नति अहै वाली रीति-नीति अपनाई जा सकती थी। हमें भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के उस निर्णय को भी याद करना चाहिए जिसमें कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही है और इसकी जगह हिन्दी को लाने के लिए वह केंद्र सरकार या संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकते क्योंकि ऐसा करना विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देना होगा। इसके बाद भी तत्कालीन सरकार की सेहत पर असर नहीं पड़ा था। जिस अंग्रेजी को वादकारी जानता ही नहीं, उसमें वकील क्या बहस कर हा है और जज क्या फैसला दे रहे हैं, यह वादी-प्रतिवादी को पता ही नहीं चलता।

संविधान की धारा 384 में संशोधन और बड़ी अदालतों में भारतीय भाषाओं में कामकाज शुरू करने के लिए एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीन दयाल उपाध्याय के न्यायविद प्रपौत्र पं. चंद्रशेखर उपाध्याय हिंदी न्याय आंदोलन चला रहे हैं। उन्होंने इस दिशा में व्यापक प्रयास भी किए हैं। हिंदी से एलएलएम करने वाले वे भारतीय छात्र हैं और हिंदी से एलएलएम करने में उन्हें अपने कई साल गंवाने पड़े। अदालत के चक्कर काटने पड़े। अगर सरकार ने उनके प्रयासों पर भी गौर किया होता तो आज बड़ी अदालतों में लोगों को अपनी बोली-बानी में न्याय मिल रहा होता।

वाराणसी के जिला एवं सत्र न्यायालय में पंडित श्याम जी उपाध्याय वर्षों से संस्कृत में वाद दायर करते और बहस करते आ रहे हैं। मूल भावना भाषा नहीं, न्याय है। इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पक्षधर लंबे समय से यह मांग उठाते आ रहे हैं कि अदालतों के कामकाज की भाषा ऐसी हो जिसे आम आदमी भी समझ सके और वह हर बात के लिए वकीलों पर निर्भर न रहे। भारत एक आजाद और लोकतांत्रिक देश है और यहां अदालती कामकाज की भाषा आज भी अंग्रेजी है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति भला और क्या हो सकती है?

वह अंग्रेजी जिसे हटाने की मांग अगर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया करते रहे तो संघ और भाजपा के नेता भी। हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान के नारे के साथ सत्ता में आई भाजपा के बड़े नेता, मौजूदा रक्षा मंत्री और तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग की थी लेकिन केंद्र सरकार बड़ी अदालतों में हिन्दी को न्याय की भाषा आज तक नहीं बना पाई है। हमें 1967 के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन को भी नहीं भूलना चाहिए। मौजूदा समय यह सोचने का है तो आखिर वे कौन लोग हैं जो बड़ी अदालतों में अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं और सरल, सहज व सस्ते न्याय की भारतीय अवधारणा को पलीता लगा रहे हैं।

गौरतलब है कि संविधान की धारा 348 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के कामकाज की भाषा अंग्रेजी होगी लेकिन यदि संसद चाहे तो इस स्थिति को बदलने के लिए कानून बना सकती है। इसी तरह हाईकोर्ट के कामकाज की भाषा भी अंग्रेजी है लेकिन राष्ट्रपति की पूवार्नुमति लेकर राज्यपाल अपने राज्य में स्थित हाईकोर्ट को हिन्दी या उस राज्य की सरकारी भाषा में कामकाज करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन ऐसे हाईकोर्ट भी अपने आदेश, निर्देश और फैसले अंग्रेजी में ही देंगे।

ऐसा तो है नहीं कि संसद में संविधान संशोधन नहीं हुए। इतने संशोधन हुए कि मूल संविधान तलाश पाना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है। ऐसे में एक संशोधन यह भी हो जाता। इसकी संभावना तलाशने के लिए अलग से समूह गठित करने या अधिकरण बनाने की जरूरत ही नहीं थी लेकिन इस पूरे प्रकरण को जिस तरह जलेबी पेंच बनाया गया, वह समझ से परे है। अब भी समय है कि सरकार एक संविधान संशोधन कर दे कि आज से बड़ी-छोटी सभी अदालतों में कामकाज भारतीय भाषाओं में होंगे। समस्या चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो लेकिन उसका समाधान बहुत छोटा होता है, इस देश के हुक्मरानों को इस बाबत सोचना होगा ।

अगर हम सात साल पीछे जाएं तो सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि क्या सरकार इस मुद्दे पर वाकई गंभीर है। जनवरी 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर संविधान में संशोधन कर हिन्दी को सुप्रीम कोर्ट एवं सभी 24 हाईकोर्ट के कामकाज की भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यह शपथपत्र उसी जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया गया था जिसे टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने खारिज किया था। केंद्रीय गृह मंत्रालय का हलफनामा 2008 में विधि आयोग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर आधारित था जिसमें आयोग ने विचार व्यक्त किया था कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य करने का प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है और लोगों के किसी भी हिस्से पर कोई भी भाषा जबर्दस्ती नहीं लादी जा सकती। इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि हाईकोर्ट के न्यायाधीशों का अक्सर एक राज्य से दूसरे राज्य में तबादला होता रहता है, इसलिए उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अपने न्यायिक कर्तव्यों को अलग-अलग भाषाओं में पूरा कर सके। यह तर्क कुछ हद तक सहज हो सकता है लेकिन मौजूदा समय में अनुवाद की सुविधा है। टेली प्रॉम्प्टर की सुविधा है। उसका इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के समक्ष अंग्रेजी के साथ ही भारतीय भाषाओं में भी न्याय देने की बात कही है,वह सुखद भी है और भारतीय हितों के अनुरूप भी लेकिन अब न चूक चौहान वाले सिद्धांतों पर अमल करते हुए उसे गंभीरता से लिया जाए।बतौर प्रधानमंत्री दुनिया के तमाम देश इस व्यवस्था पर काम कर रहे हैं तो भारत में भी इस तरह के न्यायिक सुधार होने ही चाहिए।

भारतीय धर्मग्रंथों में भी न्याय को सुशासन का आधार कहा गया है। इस वजह से न्याय की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सबकी समझ में आ सके। का संबंध आम लोगों से होना चाहिए और इसे उनकी भाषा में होना चाहिए। न्याय और शासकीय आदेश अगर न्याय की भाषा की वजह से एक जैसे लगें तो इस दोष का निवारण तो होना ही चाहिए। जिस देश में 3.5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी जेलों में बंद हों, वहां भाषागत, व्यवस्थागत चिंता लाजिमी हो जाती है।

प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से न्याय प्रदान करने को आसान बनाने के लिए पुराने कानूनों को निरस्त करने की भी अपील की है। यह भी कहा है कि उनकी सरकार ने वर्ष 2015 में, लगभग 1800 कानूनों की पहचान की, जो अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से 1450 कानूनों को समाप्त कर दिया गया। लेकिन, राज्यों ने केवल 75 ऐसे कानूनों को समाप्त किया है। प्रधानमंत्री ने एक ऐसी न्यायिक प्रणाली के निर्माण पर जोर देने की बात कही है जहां न्याय आसानी से , जल्दी से और सभी के लिए उपलब्ध हो सके। उन्होंने कहा है कि न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की है, वहीं विधायिका नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। मेरा मानना है कि इन दोनों का संगम एक प्रभावी व समयबद्ध न्यायिक प्रणाली के लिए रोडमैप तैयार करेगा।

प्रधान न्यायाधीश ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्वीकृत 1104 पदों में से 388 के रिक्त होने का हवाला दिया। यह भी बताने और जताने के प्रयास किया कि न्यायाधीशों के पद भरने के लिए उन्होंने 180 सिफारिशें की हैं। इनमें से 126 नियुक्तियां की गई हैं।

हालांकि, 50 प्रस्तावों को अभी भी भारत सरकार के अनुमोदन की प्रतीक्षा है। उच्च न्यायालयों ने भारत सरकार को लगभग 100 नाम भेजे हैं। वे अभी तक हम तक नहीं पहुंचे हैं। स्वीकृत संख्या के अनुसार, हमारे पास प्रति 10 लाख जनसंख्या पर लगभग 20 न्यायाधीश हैं, जो बेहद से कम हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि बुनियाद मजबूत न हो तो ढांचा मजबूत नहीं हो सकता।

प्रधान न्यायाधीश रमण की यह बात ढांढस बंधाती है कि संवैधानिक अदालतों के समक्ष वकालत किसी व्यक्ति के कानून की जानकारी और समझ पर आधारित होनी चाहिए न कि भाषाई निपुणता पर। न्याय व्यवस्था और हमारे लोकतंत्र के अन्य सभी संस्थानों में देश की सामाजिक और भौगोलिक विविधता परिलक्षित होनी चाहिए। लगता है कि अब समय आ गया है कि इस मांग पर फिर से विचार किया जाए और इसे तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचाया जाए। प्रधानमंत्री भी सहमत हैं और मुख्य न्यायाधीश भी तो फिर देर किस बात की? सरकार पहल करे और न्यायपालिका अमल। कोई भी देश अपनी भाषा में ही बेहतर कार्य निष्पादन कर सकता है। इसलिए यही उचित समय है।इसका सम्यक उपयोग किया जाए।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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