ब्‍लॉगर

कोरोना संक्रमण के कारण खोया जेके दत्त जैसा योद्धा

आर.के. सिन्हा
अंधकार और अवसाद के इस दौर में देश ने अपने कई महत्वपूर्ण नायकों-योद्धाओं को कोरोना संक्रमण के कारण खोया है। उनमें जेके दत्त भी शामिल हैं। जब भी मुंबई में साल 2008 में हुए भीषण आतंकी हमले की चर्चा होगी तो दत्त साहब का नाम तो जरूर याद आएगा। उन्हीं की देखरेख में राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) ने पाकिस्तान से आए आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा था। वे तब एनएसजी के महानिदेशक थे।
दरअसल 26 नवंबर 2008 को पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकवादियों ने समुद्री मार्ग से मुंबई में प्रवेश किया और मुंबई में कई स्थानों पर अचानक हमला कर दिया। 28 नवंबर तक ताज होटल को छोड़कर हमले किये गए सभी स्थलों को सुरक्षा बलों ने अपने कब्जे में ले लिया था। अगले दिन, एनएसजी कमांडो ने होटल में प्रवेश किया और आतंकवादियों को मार गिराया। यह सब दत्त साहब की कुशल निगरानी में ही हो रहा था। वे खुद सारे आपरेशन को पल-पल देख रहे थे। वे बेहद निर्भीक और बहादुर पुलिस अफसर होने के साथ-साथ एक कुशल रणनीतिकार भी थे।
1971 बैच के बंगाल कैडर के आईपीएस अधिकारी, जेके दत्त ने 2006 से 2009 तक एनएसजी के प्रमुख के रूप में कार्य किया था। वह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के संयुक्त निदेशक भी रहे थे। वे जिस पद पर भी रहे वहां उन्होंने बेहतरीन तरीके से अपने कार्यभार को अंजाम दिया। उनका लंबा करियर बेदाग रहा। दत्त साहब एयरकंडीशन कमरों में बैठकर रणनीति बनाने वाले पुलिस अफसरों में से नहीं थे। वे मौकों पर खुद भी जाते थे। वे आतंकियों-अपराधियों से बेवजह सस्ती लोकप्रियता हेतु खुद दो-दो हाथ करने वाले अफसरों में नहीं थे। इसलिए उनके मताहत काम करने वाले अफसर और दूसरे कर्मी उन्हें सम्मान की नजरों से देखते थे। दत्त साहब ने अपने करियर के दौरान कभी किसी को भाई बंदी करके गलत तरीके से फेवर नहीं किया। उनका सारा जीवन ईमानदारी और पारदर्शिता की शानदार मिसाल रहा। वे उन अफसरो में भी नहीं थे जो मीडिया की सुर्खिया बटोरने की फिराक में रहते हैं। वे सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद भी मीडिया को इंटरव्यू आदि देने से बचते रहे। दरअसल होता यह है कि पुलिस और अर्धसैनिक बलों के अफसरों और जवानों को उनकी अनुकरणीय सेवाओं के लिए याद नहीं किया जाता। यह मानसिकता तो सही नहीं है। हालांकि उनपर कोई भी अधकचरे आरोप लगा देता है।
पंजाब में 80 और 90 के दशकों में जब सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई चालू की तो कथित मानवाधिकारवादियों ने हल्ला करना शुरू कर दिया था। वे यह कहने लगे कि पंजाब में मासूमों का कत्ल हो रहा है। पुलिस मानवाधिकारों का हनन कर रही है। पर जब आतंकी मासूमों को या पुलिसकर्मियों को मारते थे तब तो इनकी जुबानें बंद हो जाती थीं। पंजाब पुलिस के महानिदेशक केपीएस गिल पर तो मानवाधिकार संगठन हाथ धोकर ही पीछे पड़ गए थे। सुरक्षा बल यदि किसी मुठभेड़ में किसी आतंकी को मार गिराएं तो उन मानवाधिकारियों के हिसाब से तुरंत मानवाधिकार का उल्लंघन हो जाता है। लेकिन, जब मुठभेड़ में जब कोई सुरक्षाकर्मी शहीद हो जाए तो ये चुप लगाये रहते हैं। गोया मानवाधिकार सिर्फ दहशहतगर्दों का ही होता है।
मानवाधिकारों के हनन को लेकर कश्मीर में तैनात सुरक्षा बल तथाकथित मानवाधिकार संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं के निशाने पर रहे हैं। पर आजतक दुनिया के किसी मानवाधिकारवादी संगठन ने यह नहीं कहा कि सुरक्षाकर्मी भी मानव हैं। उनके भी मानवाधिकार हैं। क्या पुलिस कर्मी /सैनिकों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं? क्या निर्दोषों को पशुओं के तरह मारनेवालों के ही मानवाधिकार हैं I क्या ये भारतीय नहीं हैं? क्या इनके परिवार नहीं होते? ये अहम सवाल भी तो महत्वपूर्ण हैं। जेके दत्त चाहे अपने कैडर राज्य बंगाल में रहे हों या फिर केन्द्र में हों, वे अपने साथियों के दुःख-दर्द में उनके साथ सदा खड़े होते थे। वे यह तो देखते थे कि उनका मताहत किसी गलत कृत्य में कतई लिप्त न हो पर वे मानवाधिकारों के स्वयंभू प्रवक्ताओं की बकवास भी नहीं सुनते थे।
पूरे देश ने यह भी देखा है कि कश्मीर घाटी में कई बार बाजार से कोई औरत ड्यूटी पर तैनात जवान पर गर्म तेल फेंक गई या उसे गोली मार गई। पुलिस आरोपी को तलाशती है तो कोई सुराग भी नहीं देता। क्यों? क्या देश की सुरक्षा में तैनात जवान मनुष्य नहीं हैं और उन्हें भी सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है? क्या दिन-रात कठिन हालतों में ड्यूटी करने वाले और अपने परिवारों से महीनों अलग रहने वाले जवानों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं? उपद्रवी सुरक्षा बल के कैम्पों पर हमले करते रहे। वे ग्रेनेड फेंकते रहे। जवानों के सिर फूटे हैं, आंखें फूटी हैं, फ्रैक्चर हुए हैं। ये किसके खिलाफ मानवाधिकार के कोर्ट में जाएं? किसका नाम दें?
दरअसल बात यह है कि देश को अपने जेके दत्त, रिबैरो, केपीएस गिल, रणधीर वर्मा या तुकाराम ओम्बले जैसे सैकड़ों-हजारों पुलिस कर्मियों की उत्कृष्ट सेवाओं को याद रखना होगा। आपको पता है कि एएसआई तुकाराम ओम्बले कौन थे। तुकाराम ओम्बले जैसे बहादुर और बेखौफ पुलिसकर्मी पर सारा देश गर्व करता है। उन्होंने मुंबई हमले के मुख्य दरिंदे अजमल कसाब को अपनी जानपर खेलकर पकड़ा था। कसाब उस आतंकी हमले में अकेला ऐसा पाकिस्तानी आतंकी था, जिसे जिंदा पकड़ा गया था।
देखिए अफसर चाहे पुलिस महकमे का हो या फिर किसी अन्य विभाग का, उससे यह अपेक्षा तो रहती है कि वह अपने विभाग के समक्ष आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए रणनीति बनाए। वह अपने बल या विभाग को स्वच्छ नेतृत्व दे। जेके दत्त, केपीएस गिल की तरह ही वेद मारवाह भी थे। वे दिल्ली पुलिस के आयुक्त रहने के साथ-साथ एनएसजी के महानिदेशक भी रहे। उन्होंने दिल्ली पुलिस की कमान तब संभाली थी जब उसपर 1984 में सिखों के कत्लेआम को रोकने में नाकाम रहने के आरोप लग रहे थे। उन्होंने उस दौर में दिल्ली पुलिस को एक मजबूत नेतृत्व दिया और उसकी छवि को सुधारा।
बेशक, इस महान देश के सामने भांति-भांति की चुनौतियां आती ही रहेंगी। अगर हमारे पास जेके दत्त, वेद मारवाह या केपीएस गिल जैसे समझदार पुलिस अफसर होंगे, तो कठिन से कठिन हालातों का मुकाबला करना संभव होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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