इंदौर संजीव मालवीय। कांग्रेस (Congress) के नेता (Leader) जिस तरह से नोटा (NOTA) का प्रचार (campaign) करने में लगे हुए हैं, उतनी दिलचस्पी किसी उम्मीदवार (Candidate) को जिताने में आज तक नहीं लगाई। कांग्रेस में टिकट मिलने के बाद उम्मीदवार को संगठन नहीं, बल्कि खुद के बल पर ही चुनाव लडऩा होता है और खर्चा भी खुद ही करना पड़ता है। अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि अगर कांग्रेस अपने संगठन को सुधारने और नीचे तक मजबूती के लिए इस तरह के प्रयास करती तो शायद आज स्थिति कुछ और ही होती।
इंदौर में कांग्रेस एक लंबे अरसे से सत्ता से बाहर है। 2019 में कांग्रेस की लहर के बीच इंदौर से संजय शुक्ला, विशाल पटेल, जीतू पटवारी, तुलसी सिलावट विधायक बन गए थे, लेकिन इनके जीतने में भी इन्हीं की टीम की अहम भूमिका रही थी। तब भी संगठन ने किसी प्रकार का कोई साथ नहीं दिया। वक्त बदलता गया और पटवारी को छोड़ बाकी नेता भाजपा में शामिल हो गए हैं। तुलसी सिलावट ने तो सरकार बनाने में अपनी भूमिका निभाई थी, वहीं शुक्ला और पटेल अब भाजपा में शामिल हुए हैं। संगठन मजबूत नहीं होने के कारण इंदौर से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि विधानसभा तक नहीं पहुंचा है। यहां तक कि जीतू पटवारी खुद चुनाव हार गए। अब पांच साल तक यही स्थिति रहना है। नगर निगम की बात करें तो 2018 में भाजपा के 65 पार्षद चुने गए और कांग्रेस को मात्र 19 पार्षदों से संतोष करना पड़ा। इसमें भी अब धीरे-धीरे पार्षद कम होते जा रहे हैं। पिछले दिनों शिवम यादव और विनीता मौर्य ने भाजपा की सदस्यता ले ली। पिछले 20 सालों से कांग्रेस स्थानीय सत्ता से भी बाहर है। इसके बावजूद कांग्रेस संगठन में सुधार नहीं होना चिंता का विषय है। इंदौर में जिस तरह से प्रत्याशी ने नाम वापस लिया है, उससे तो लग रहा है कि अब कांग्रेस में संगठन नाम की कोई चीज ही नहीं बची है। कांग्रेस अब नोटा के माध्यम से बताना चाहती है कि वह कितनी पॉवरफुल है। इसके लिए रोज बैठकें हो रही हैं, खुद जीतू पटवारी इसे लीड कर रहे हैं। बड़े नेता नोटा को लेकर अभियान चलाने की बात कर रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि अगर कांग्रेस अपना दमदार प्रत्याशी मैदान में उतारती और कांग्रेसी उसको सहयोग करते तो इतने बुरे दिन नहीं देखना पड़ते और कांग्रेस की पूरे देश में किरकिरी नहीं होती। कांग्रेस में यह परंपरा टूटती जा रही है कि प्रत्याशी को सर्वमान्य मानकर चुनाव लड़ा जाए और उसको सहयोग किया जाए। इंदौर में कांग्रेस के ढेरों सहायक संगठन हैं और हर कोई सोशल मीडिया पर नोटा के पक्ष में अपील करता नजर आ रहा है। यहां तक कि महिला कांग्रेस, युवक कांग्रेस और सेवादल जैसे संगठनों के अध्यक्ष भी बड़े नेताओं के रहमोकरम पर निर्भर हैं और मैदान में कहीं दिखाई नहीं देते। खैर, अब नोटा के लिए अभियान चलाने के लिए कांग्रेसियों के लिए तो वही पुराना मुहावरा सिद्ध हो रहा है…
‘अब पछताए होत का…
जब चिडि़य़ा चुग गई खेत।’
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