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कर्नाटक हाई कोर्ट : निकाह की सही व्याख्या और हिन्दू विवाह

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा मुस्लिमों के निकाह पर की गयी एक बड़ी टिप्पणी ने फिर से इस ओर सभी का ध्यान खींचा है। न्यायालय से साफ शब्दों में कहा है कि मुस्लिम निकाह एक अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) है, जिसके कई अर्थ हैं, यह हिन्दुओं की शादी की तरह कोई संस्कार नहीं है।

वस्तुत: जब यह निर्णय आया, तब अनेक लोगों का ध्यान इस मामले पर गंभीरता से गया कि दोनों धर्मों में दुनिया की आधी आबादी स्त्री को लेकर क्या सोच है। विवाह के संस्कार नहीं होने से इस्लाम में आज भी महिलाएं तलाक शब्द सुनते ही कैसे परेशान होने पर विवश हैं। इसका यह एक नहीं अब तक के अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। यही वो कारण भी रहा, जिसके चलते मोदी सरकार साल 2019 में ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून बनाने के लिए बाध्य हुई थी। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक कानून बनने के बाद से अब तक देश में ट्रिपल तलाक के मामले 80 प्रतिशत तक कम हुए हैं। फिर भी यह एक संकट तो है ही।

इस्लाम के विशेषज्ञों का भी यही कहना है कि निकाह शादी का कानूनी अनुबंध है या कहें कि जो दूल्हे-दुल्हन के बीच एक करारनामा है। इस्लामी समाज में ब्रह्मचर्य स्वीकार्य नहीं, सभी को निकाह करने का आदेश दिया गया है (कुरान 24:32)। पैगम्बर मोहम्मद ने हदीस में भी निकाह करने का आदेश दिया है। मोहम्मद साहब ने कहा है कि निकाह मेरी सुन्नत (तरीका) है, जो मेरी सुन्नत से कतराता है वह हम में से नहीं है। इस तरह निकाह को “निकाह-मिन-सुन्नह” या सुन्नत तरीके से किया गया निकाह कहते हैं।

अभी आए न्यायालय के निर्णय से पूर्व अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के वाद में विवाह की परिभाषा देते हुए न्यायाधीश महमूद ने भी कहा था “मुस्लिमों में विवाह शुद्ध रूप से एक सिविल संविदा है, यह कोई संस्कार नहीं है। इसी तरह से एक अन्य प्रकरण सबरूनिशा बनाम सब्दू के वाद में न्यायाधीश मित्तर ने कलकत्ता उच्च न्यायालय का निर्णय देते हुए मुस्लिम विवाह को विक्रय संविदा के सामान एक सिविल संविदा कहा है।

वस्तुत: आज इस बात को किसी को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि विवाह जैसा जीवन भर का साथ निभाने के लिए किया गया संकल्प जब अनुबंध या सिविल संविदा में बदल जाए तब उसका टूटना किसी भी दिन हो सकता है। इसीलिए हिन्दू सनातन परंपरा में विवाह एक संस्कार के रूप में धर्म यानी धारण करने के अर्थ में ग्रहण किया गया। उसे उन तमाम संकल्पों से आबद्ध कर दिया गया जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों के लिए यह कोई शारीरिक पूर्ति या भोग्य मनोरंजन का विषय बनकर ना रहे, बल्कि यह संस्कार परस्पर संसर्ग से उत्पन्न संतति से मोक्ष को देनेवाला और सात जन्मों का आधार बने।

श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति। यह कभी न टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । हिन्दू परम्परा ने अपने आरंभ से यह समझाने का प्रयास किया कि मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण- ये तीन ऋण होते हैं। इनमें अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जा सकता है। इसीलिए सनातन धर्म विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में स्वीकारता है।

वस्तुत: यहां जब दोनों पक्ष सभी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं तभी इस विवाह को किए जाने के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसके बाद वैदिक पंडितों के माध्यम से विशेष व्यवस्था, देवी पूजा, वर वरण तिलक, हरिद्रालेप, द्वार पूजा, मंगलाष्टकं, हस्तपीतकरण, मर्यादाकरण, पाणिग्रहण, ग्रंथिबन्धन, प्रतिज्ञाएं, प्रायश्चित, शिलारोहण, सप्तपदी, शपथ आश्वासन आदि रीतियों को करते हुए इस संस्कार को पूर्णता प्रदान की जाती है। सात बार वर-वधू साथ-साथ सात चावल की ढेरी या कलावा बँधे हुए सकोरे इन लक्ष्य-चिह्नों को पैर लगाते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ते हैं। प्रत्येक कदम के साथ एक-एक मन्त्र बोला जाता है। पहला कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा सुख के लिए, पाँचवाँ परिवार के लिए, छठवाँ ऋतुचर्या के लिए और सातवाँ मित्रता के लिए उठाया जाता है। दाम्पत्य जीवन में दोनों का ही बराबर का योगदान रहे, इसकी रूपरेखा यह सप्तपदी निर्धारित करती है। इसी प्रकार के अन्य पूजा विधान है।

विवाह में सुन्दर कामना लिए यह श्लोक कुछ इस तरह के होते हैं- इहेमाविन्द्र सं नुद चक्रवाकेव दम्पती, प्रजयौनौ स्वस्तकौ विस्वमायुर्व्यऽशनुताम् ॥ अर्थात, हे भगवान इंद्र ! आप इस नवविवाहित जोड़े को इस तरह साथ लाएं जैसे चक्रवका पक्षियों की जोड़ी रहती है, वे वैवाहिक जीवन का आनंद लें, और ये संतान की प्राप्ति के साथ-साथ एक पूर्ण जीवन जिएं। फिर कहा जाता है कि धर्मेच अर्थेच कामेच इमां नातिचरामि. धर्मेच अर्थेच कामेच इमं नातिचरामि॥ यानी मैं अपने कर्तव्य में, अपने धन संबंधी विषयों में, अपनी जरूरतों में, मैं हर बात पर जीवन साथी से सलाह लूंगा।

इसके बाद बोला गया, गृभ्णामि ते सुप्रजास्त्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः. भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यांत्वादुःगार्हपत्याय देवाः ॥ मैं तुम्हारा हाथ पकड़े रखूंगा ताकि हम योग्य बच्चों के माता-पिता बन सकेंगे और हम कभी अलग न होवें। मैं इंद्र, वरुण और सवितृ देवताओं से एक अच्छे गृहस्थ जीवन का आशीर्वाद मांगता हूं। फिर परस्पर कहा गया कि ससखा सप्तपदा भव. सखायौ सप्तपदा बभूव. सख्यं ते गमेयम्. सख्यात् ते मायोषम्. सख्यान्मे मयोष्ठाः – तुम मेरे साथ सात कदम चल चुके हो, अब हम मित्र बन गए हैं।

धैरहं पृथिवीत्वम्, रेतोऽहं रेतोभृत्त्वम्, मनोऽहमस्मि वाक्त्वम्, सामाहमस्मि ऋकृत्वम्, सा मां अनुव्रता भव। अर्थात, मैं आकाश हूँ और तुम पृथ्वी हो । मैं ऊर्जा देता हूँ और तुम ऊर्जा लो। मैं मन हूँ और तुम शब्द हो। मैं संगीत हूँ और तुम गीत हो । तुम और मैं एक दूसरे का पालन करें। इसके साथ ही भारतीय सनातन हिन्दू धर्म में यह भी कामना की गई है कि स्त्री जो एक पत्नि के रूप में किसी पुरुष के जीवन में आती है, वह अंत में अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करते हुए उसके लिए मां के स्वरूप में भी आए। इस संदर्भ में महाभारत’ में महर्षि व्यास का गांधारी को दिए आशीर्वाद को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है । यह संपूर्ण प्रसंग पढ़ने पर ध्यान में आ जाता है कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी के रिश्ते को लेकर कितना गहन चिंतन किया गया है।

इस केस में भी जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित की कही सभी बातें आज फिर से यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हिन्दू विवाह का अर्थ बहुत व्यापक है। धन्य है भारतीय ऋषित्व, जिन्होंने विवाह संस्कार पर इतना गहन चिंतन किया और एक समाज व्यवस्था ही नहीं दी, वरन इसके साथ तमाम वैज्ञानिक पक्षों को जोड़कर इसे पूर्णता प्रदान करने का भी प्रयास किया है। काश, इस निकाह, तलाक और विवाह को लेकर ही यह विचार शुरू हो जाए कि देश में अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक कानून क्यों होने चाहिए ? धर्म के आधार पर अलग-अलग नियम क्यों ? समानता के लिए इस देश को कब तक इंतजार करना होगा ? अच्छा हो, शीघ्र ही देश में समान नागरिक संहिता लागू हो जाए, जिससे पूरे देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक समान कानून के अंतर्गत आ जाएं। इसमें धर्म के आधार पर कम से कम कोई अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था तो नहीं होगी।

(लेखक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।)

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