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उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व की सोशल इंजीनियरिंग

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज समाज पार्टी के कार्यक्रम में जय श्रीराम के नारे लगे। बसपा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। राम और राममंदिर से दूरी बनाकर चलने वाली बसपा में आया यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है। बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र की अगुआई में ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत भी अयोध्या से ही हुई थी। बसपा प्रमुख मायावती ने त्रिशूल तक लहराया। कार्यक्रम में शंख तक बजे। यह भी कहा गया कि ब्राह्मण शंख बढ़ाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि हाथी जब पगलाता है तो रौंदता भी है। सत्ता से बड़ा मद दूसरा नहीं होता।

बसपा में वैसे भी यह जो कुछ भी हो रहा है, ब्राह्मणों को प्रभावित करने के लिहाज से हो रहा है। अन्यथा बसपा का इतिहास जानने वालों को पता है कि मायावती बिना मतलब किसी को भी अपने पास नहीं फटकने देतीं। जब कांशीराम और मुलायम सिंह यादव की मैत्री हुई थी तब इसी बहुजन समाज पार्टी में जोर-शोर से नारा लगा था कि ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम।’ कोई ढाई दशक बाद अगर बसपाई श्रीराम का जयनाद करने को विवश हैं तो इसकी वजह आसानी से समझी जा सकती है। ब्राह्मणों को मनुवादी कहने वाली मायावती अब ब्राह्मण और दलित गठजोड़ के आधार पर उत्तर प्रदेश में सरकार गठन के सपने बुन रही हैं। ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा उछालने वाली मायावती को पता है कि अकेले दलितों के बल पर वह सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन श्रीराम का नारा लगाने के बाद उनके मुस्लिम मतदाता उनसे छिटकेंगे जरूर, इस संभावना को हल्के में नहीं लिया जा सकता। हर क्रिया की अपनी प्रतिक्रिया होती है। इसकी भी होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।

अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव है। इसे लेकर सभी छोटे-बड़े दल सक्रिय हो गए हैं। मायावती की पार्टी भी इसका अपवाद नहीं है। मुस्लिम, ओबीसी, ब्राह्मण, क्षत्रिय और दलितों के प्रति राजनीतिक दलों का बढ़ता रुझान और मतदाताओं को लुभाने की सारी गुणा-गणित सत्ता का सिंहासन कब्जाने को लेकर है। एक-दूसरे के वोट पर चोट करने की हसरत हर राजनीतिक दल पाले हुए है। इसके लिए हर संभव संतुलन साधे जा रहे हैं। तालमेल बिठाने की कोशिशें कर रहे हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए विवादास्पद बयानों, योजनाओं और गोष्ठियों का दौर शुरू हो चुका है। इसमें संदेह नहीं कि हर बड़े राजनीतिक दल का अपना परंपरागत निर्धारित वोटबैंक है। इसलिए उसकी कोशिश अपने वोटबैंक को टस से मस न होने देने की है। विजयश्री के वरण के लिए ऐसा करना जरूरी भी है लेकिन दूसरे दल के वोटबैंक में सेंध लगाने और उसे अपने पक्ष में करने की मुकम्मल रणनीति भी बनानी होगी।

बसपा साढ़े नौ साल से सत्ता से बाहर है। वर्ष 2007 में ब्राह्मणों के सहयोग से वह सत्ता में आई थी लेकिन जिस तरह बसपा से ब्राह्मणों को एक-एक कर पार्टी से निकाला गया, वह भी किसी से छिपा नहीं है। अकेले सतीश चंद्र मिश्र ही पार्टी में बने रहे, वर्ना तो उनके कई रिश्तेदार विधायक और मंत्री तक बसपा से दूध की मक्खी की तरह बाहर कर दिए गए। कुछ पर तो जांच का शिकंजा तक कस गया। इसबार फिर सतीश चंद्र मिश्र और उनकी पत्नी-बेटी को आगे कर मायावती ब्राह्मणों को अपने खेमे में लाने का प्रयास कर रही हैं। इसमें वे कितना सफल हो पाएंगी, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिस तरह कांग्रेस, सपा और भाजपा के शासन में वे ब्राह्मणों की उपेक्षा की बात कर रही हैं, उन्हें अपने शासनकाल में ब्राह्मणों पर हुए दलित उत्पीड़न के मुकदमों की संख्या पर विचार जरूर करना चाहिए। ब्राह्मणों को अकेले मायावती ही अपने खेमे में लाना चाहती हों, ऐसा भी नहीं है। सपा भी ब्राह्मणों को भाजपा के खेमे से निकालकर अपने खेमे में लाना चाहती है। 27 अगस्त से जिला स्तर पर वह भी ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित कर रही है। कांग्रेस की भी नजर ब्राह्मणों पर है। बसपा प्रमुख मायावती वर्ष 2007 जैसी सोशल इंजीनियरिंग कर पाएंगी या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इससे भाजपा की पेशानी पर बल तो पड़ ही गया है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अगर यह कहना पड़ रहा है कि ब्राह्मण भाजपा से नाराज नहीं है तो इसके अपने राजनीतिक मायने हैं। भाजपा प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन आयोजित कर रही है। वह तीर्थ पुरोहितों के साथ सम्मेलन कर रही है। संस्कृत के विद्वानों को पुरस्कृत कर रही है। संस्कृत विद्यालयों का स्तर सुधारने और वहां नियुक्तियां करने का उपक्रम कर रही है, इसे भी ब्राह्मणों को रिझाने की कवायद के तौर पर ही देखा जा रहा है।

वैसे भी तीन दशकों बसपा की नजर में अगर ब्राह्मण ‘शोषक’ से ‘शोषित’ हो गए हैं तो इसे भी मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के अध्याय के रूप में ही देखा जाना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि राममंदिर आंदोलन से पूर्व ब्राह्मण कांग्रेस का कट्टर समर्थक हुआ करता था लेकिन राममंदिर आंदोलन के बाद वह भाजपा के साथ आ गया है। भाजपा से नाराजगी की वजह से वह एकबार सपा और एकबार बसपा के साथ गया जरूर लेकिन समग्रता में नहीं। इससे भाजपा ने सबक लिया। बिकरू कांड में विकास दुबे के एनकाउंटर को लेकर विरोधी दल भाजपा को घेर जरूर रहे हैं लेकिन वे आधा सच बोल रहे हैं। विकास दुबे और उसके साथियों के हमले में मारे गए पुलिसकर्मियों में अधिकांश ब्राह्मण थे। इस बात का जिक्र राजनीतिक दल अपने सुविधा संतुलन के लिहाज से शायद नहीं कर रहे हैं।

भाजपा ने भी बसपा और सपा के ‘काउंटर’ में ब्राह्मण सम्मेलन शुरू किए हैं। वैसे ब्राह्मण तो सभी दलों से जुड़े हैं। कहीं कम और कहीं ज्यादा। हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में जिस तरह ब्राह्मण नेताओं को महत्व मिला, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। प्रदेश में ब्राह्मण 12 फीसदी और राजपूत 8 प्रतिशत हैं। इस वोटबैंक में जरा-सी हेरफेर भाजपा की राजनीतिक गणित बिगाड़ सकती है। वैसे जिस दलित वोटबैंक को मायावती अपना बता रही हैं, उसमें भाजपा कब का सेंध लगा चुकी है। अति दलित और अति पिछड़ों का राग अलापकर उसने मायावती के वोटबैंक की जड़ में पहले ही विभाजन का मट्ठा डाल रखा है।

उत्तर प्रदेश में तकरीबन 40 प्रतिशत ओबीसी हैं। भाजपा जिस तरह ओबीसी मतदाताओं को अपने पाले में लेती जा रही है, उससे सपा, बसपा, कांग्रेस की जमीन दरकती नजर आ रही है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में 27 ओबीसी मंत्रियों को शामिल करना भी उसके इसी मास्टर प्लान का हिस्सा है। 2 सितंबर से शुरू हुआ भाजपा ओबीसी मोर्चा का आउटरीच कार्यक्रम भी काबिलेगौर है। इसके जरिए अति पिछड़ा वर्ग के लोगों को भाजपा यह समझाने में जुटी है कि अन्य राजनीतिक दलों ने उन्हें धोखा दिया है और उन्हें केवल वोटबैंक मानते रहे हैं। दलित वोटबैंक को भी तोड़ने का लाभ भी पिछले चुनावों में भाजपा को मिला है। दलित समुदाय मुख्य रूप से बसपा का वोटबैंक रहा है। यह प्रदेश की आबादी में 20.8 प्रतिशत है।

मुस्लिमों को विश्वासघाती कहकर मायावती पहले ही अल्पसंख्यक वर्ग को नाराज कर चुकी हैं। कुछ घटनाओं का जिक्र कर वे उत्तर प्रदेश के 19 प्रतिशत मुसलमानों को यह बताने-जताने में जुटी हैं कि सपा, कांग्रेस और भाजपा के शासन में मुसलमानों के साथ ज्यादतियां हुई हैं लेकिन इस पर मुस्लिम तबका कितना यकीन कर पाएगा, यह देखने वाली बात होगी। सपा अगर मुस्लिम-यादव समीकरण की बात करती रही है तो बसपा दलित-मुस्लिम समीकरण की। कांग्रेस भी मुस्लिम मतों को साधकर प्रदेश के सत्ता सिंहासन पर विराजित होती रही है।

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिमों को यह एहसास दिलाने में जुटे हैं कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में करीब 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और सभी वर्गों के लोगों को टिकट देगी। मुसलमान सपा और बसपा को वोट देते रहे, मुख्यमंत्री बनाते रहे और जब हिस्सेदारी की बात होती है तो उनसे बात भी नहीं की जाती। आम आदमी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में अपना वर्चस्व बनाने में जुटी है।

कुल मिलाकर राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से मतदाताओं को लुभाने में कोर-कसर शेष नहीं रख रहे हैं। रही बात ब्राह्मणों की तो वह वहीं जाएगा जहां उसे सम्मान मिलेगा। इसलिए भी आवश्यक है कि ब्राह्मण को ठीक से समझने की कोशिश की जाए। जो भी राजनीतिक दल ऐसा कर पाएगा, 2022 में यूपी का चुनाव उसी के हाथ में होगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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