ब्‍लॉगर

मतदान और आधार-कार्डः कुछ सवाल

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आधार-कार्ड को मतदाता पहचान-कार्ड से जोड़ने के विधेयक को लोकसभा ने पारित कर दिया है। वह राज्यसभा में भी पारित हो जाएगा लेकिन विपक्ष ने इस नई प्रक्रिया पर बहुत-सी आपत्तियां की हैं। उनकी यह आपत्ति तो सही है कि बिना पूरी बहस किए हुए ही यह विधेयक कानून बन रहा है लेकिन इसकी जिम्मेदारी क्या विपक्ष की नहीं है? विपक्ष ने सदन में हंगामा खड़ा करना ही अपना धर्म बना लिया है तो सत्तापक्ष उसका फायदा क्यों नहीं उठाएगा? वह दनादन अपने विधेयकों को कानून बनाता चला जाएगा।

जहां तक आधार कार्ड को मतदाता-कार्ड के साथ जोड़ने का सवाल है, पहली बात तो यह है कि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है यानी कोई मतदाता पंजीकृत है और उसके पास अपने मतदाता होने का परिचय पत्र है और आधार-कार्ड नहीं है तो उसे वोट डालने से रोका नहीं जा सकता। तो फिर यह बताएं कि आधार कार्ड की जरूरत ही क्या है? इसकी जरूरत बताते हुए सरकार का तर्क यह है कि कई लोग फर्जी नामों से मतदान कर देते हैं और कई लोग कई बार वोट डाल देते हैं। यदि आधार-कार्ड और मतदाता पहचान-पत्र साथ-साथ रहेंगे तो ऐसी धांधली करना असंभव होगा।

यह ठीक है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के पास सिर्फ आधार कार्ड है तो क्या उसे वोट डालने का अधिकार होगा? आधार-कार्ड तो ऐसे लोगों को भी दिया जाता है, जो भारत के नागरिक नहीं हैं लेकिन भारत में रहते हैं। वह तो एक तरह का प्रामाणिक पहचान-पत्र है। यदि आधार-कार्ड के आधार पर वोट डालने का अधिकार नहीं है तो मतदान के समय उसकी कीमत क्या होगी? जिनके पास आधार-कार्ड नहीं है या जो उसे सबको दिखाना नहीं चाहते, उन्हें भी वोट देने का अधिकार होगा तो फिर इस कार्ड की उपयोगिता क्या हुई?

आधार-कार्ड में उसके धारक की निजता छिपी होती है। उसके नंबर का दुरुपयोग कोई भी कर सकता है। इसी आधार पर विपक्षी सांसदों ने इस प्रावधान का विरोध किया है। यदि मतदान करते वक्त मतदाता के आधार कार्ड से उसके नाम और नंबर का पता चल जाए और उसे मतपत्र से जोड़ दिया जाए तो यह आसानी से मालूम किया जा सकता है किसने किसको वोट दिया है यानी गोपनीयता भंग हो गई। इस डर के मारे हो सकता है कि बहुत-से लोग वोट डालने ही न जाएं।

यह भी तथ्य है कि अभी तक 131 करोड़ लोगों ने अपना आधार कार्ड बनवा लिया है। लेकिन यदि इस विधेयक पर विस्तार से बहस होती तो इसकी कमियों और उनसे पैदा होनेवाली शंकाओं को दूर किया जा सकता था। मतदान की प्रक्रिया को प्रामाणिक बनाने के एक उपाय की तरह यह कोशिश जरूर है लेकिन इस पर सांगोपांग बहस होती तो बेहतर होता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)

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