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रैलियों के कोलाहल में ढक गए ज्वलंत मुद्दे

– डॉ. रमेश शर्मा

हिमाचल प्रदेश के चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते रैलियों और महारैलियों का दौर अपने चरम पर है । मुश्किल से सप्ताह भर का समय शेष है । राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, संविधान, कानून व्यवस्था, जाति और क्षेत्रीय समीकरण आदि महत्वपूर्ण विषय रहे हैं जिन का जिक्र दलों ने अपने-अपने हिसाब से परिस्थिति के अनुसार किया है अथवा कर रहे हैं । कौन कितना सफल रहा है यह परिणाम तय करेंगे । लोकसभा चुनाव में विदेश नीति, आर्थिक स्थिति, आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण जैसे पक्ष व्यापक बहस या अपेक्षित चिंता से लगभग अछूते रहे। ये मुद्दे आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं । सत्तारूढ़ दल ने इन्हें अपने ढंग से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में छुआ है लेकिन अन्य दलों से इन पर चर्चा से परहेज किया गया है इनका महत्व केवल अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की मेजबानी और औपचारिक वक्तव्य तक सीमित हो कर रह गया है ।


इसका एक अर्थ यह भी निकाल सकते हैं कि इन विषयों से विपक्षी नेताओं को लाभ होने वाला नहीं है या रुचि नहीं है अथवा वे अपने विरोधियों को संवेदनशील और जल्दी उकसाने या भड़काने वाले गाली-गलौज, व्यक्तिगत आक्षेप तक सीमित करें। अनेक सामाजिक समूहों को मानसिक उत्तेजना में बहाते हुए मुख्य तथ्यों से चुनाव तक भ्रमित रखा जाए और जिस उद्देश्य के लिए चुनाव करवाए जा रहे हैं यानि कि राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर केंद्रित न होने दिया जाए। चुनावी विज्ञान और तकनीक है।

हिमाचल प्रदेश में भी यही देखा गया है । प्रदेश की आर्थिकी को सुधारने के रोडमैप पर चर्चा नहीं है । सामाजिक विकास बाधित हो रहा है चिंता नहीं है । जंगल धू-धू कर जल उठे हैं परवाह नहीं है । हजारों पेड़ विकास के नाम पर या अवैध कटान के नाम पर ध्वस्त हो रहे हैं । पेयजल का संकट है । न सरकारी नौकरी है न प्राइवेट अवसर हैं । नई शिक्षा नीति नहीं है । स्वास्थ्य सेवाऐं पर्याप्त नहीं हैं । नशे जैसी बुराई फैल चुकी है आदि । इस प्रकार के अनेक जनता के कल्याण के विषयों का नदारद रहना हमें स्वस्थ लोकतंत्र की ओर ले जाएगा इसमें संदेह है। सोशल मीडिया, टीवी चैनलों पर ऊबाऊ संवाद इसमें अपना योगदान कर रहे हैं । आक्षेप और चरित्र हनन के मुकदमों से कोर्ट परेशान है ।

बहुत लोगों को बहुत समय तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है। यह कहावत है लेकिन पर्याप्त को मूर्ख बनाकर कमजोर व्यवस्था में सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है। यह पूरे विश्व में देखा जा रहा है । अतः मतदाता और उम्मीदवार सहित संपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया से संबंधित वर्ग को मुद्दों पर फोकस करते हुए लोकतंत्र के यज्ञ में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। जिस उद्देश्य और रोल के लिए चुनाव हो रहे हैं उसका ध्यान रखना चाहिए उसी क्षेत्र के लिए मतदाता को उम्मीदवार की योग्यता का आकलन करना चाहिए। यह बहुत बड़ा दायित्व है । कठिन है वर्तमान के संदर्भ में तो विशेष चुनौतिपूर्ण लगता है लेकिन श्रेयस्कर है। पंचायत, विधानसभा अथवा लोकसभा के उम्मीदवार और उसकी भूमिका सर्वदा विशिष्ट और भिन्न-भिन्न होती है तथैव मापदंड भी । बिडम्बना है कि कोलाहल में सामाजिक ढांचा क्षतिग्रस्त हो रहा है सारा चुनाव अभियान एक अभिनय दिखाई दे रहा है। चुनाव यदि व्यापक सामूहिक राष्ट्रीय नैतिक पतन की ओर धकेलने का प्रयास करे तो जनसाधारण का चिंतित होना स्वाभाविक है ।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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